संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एंकरों का बॉयकॉट पूरी तरह लोकतांत्रिक
16-Sep-2023 2:46 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  एंकरों का बॉयकॉट पूरी तरह लोकतांत्रिक

‘इंडिया’ गठबंधन के एंकर-बहिष्कार की खबर देश के मीडिया की सबसे बड़ी खबर है। इस पर कल हम अपने यूट्यूब चैनल पर खासा बोल चुके हैं, लेकिन अखबार पढऩे वाले लोगों के लिए इस पर लिखना भी जरूरी है। देश के टीवी-समाचार उद्योग ने इस विपक्षी बहिष्कार को लोकतंत्र पर हमला कहा है, और इसकी निंदा की है। लोकतंत्र में किसी भी नागरिक की तरह टीवी-समाचार उद्योग को भी यह हक है कि वह अपना धंधा अपनी मर्जी से चलाए, और जब सरकार उस पर मेहरबान रहे, सरकार का चेहरा देखकर चलने वाला कारोबार उस पर मेहरबान रहे, तो फिर उसे विपक्ष की कोई फिक्र होनी भी क्यों चाहिए? आज ऐसा लगता है कि जिन 14 नामी-गिरामी (?) एंकरों का सार्वजनिक बहिष्कार किया गया है, वे एक तरफ तो विपक्ष के इस फैसले का विरोध करते हुए अपने आपको पत्रकार साबित करने में भी लग गए हैं, इसके अलावा सत्ता के साथ अपनी बातचीत में वे इसे अपनी शहादत का सुबूत भी बता रहे होंगे कि सत्ता का साथ देने की वजह से उनकी कुर्बानी दी जा रही है। टीवी-समाचारों के बहुत से लोगों को यह मलाल हो रहा होगा कि इस फेहरिस्त में उनका नाम नहीं है जबकि वे भी पूरी ताकत से नफरत फैलाने में लगे रहते हैं, वे भी आपस में और विपक्ष के दोस्तों से यह सवाल पूछ रहे होंगे कि उनकी तपस्या में क्या कमी रह गई थी? 

यह बहिष्कार इसलिए हुआ है कि ये कुख्यात एंकर लगातार नफरत की बातें फैला रहे थे, सरकार के पक्ष में, और विपक्ष को नीचा दिखाने के लिए एक एजेंडा चला रहे थे, पड़ोसी पाकिस्तान के साथ युद्धोन्माद का एक एजेंडा बढ़ा रहे थे, देश के भीतर अलग-अलग तबकों के बीच बहुत बुरी तरह टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। इनका बहिष्कार काफी पहले से कर दिया जाना चाहिए था, पता नहीं राजनीतिक  दलों को इस फैसले पर पहुंचने में इतना वक्त क्यों लगा। दूसरी तरफ यह बड़ा और कड़ा फैसला ‘इंडिया’ की मजबूती की एक और परख रहा कि 26 पार्टियों ने यह फैसला लिया है। हमारे हिसाब से बिना गठबंधन बने भी ऐसे किसी मुद्दे पर विपक्ष को एक साथ होना चाहिए था क्योंकि देश के टीवी-समाचार मीडिया का जितना संगठित कार्यक्रम विपक्ष को नीचा दिखाने का चल रहा था, उसका एक अहिंसक विरोध पहले ही होना था। जो समाचार-टीवी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से 9 बरस में भी एक सवाल भी नहीं कर पाए, सत्ता से असुविधा के कोई सवाल करने की जिनकी हिम्मत नहीं है, वे सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के एक प्रकोष्ठ की तरह विपक्ष पर टूटे पड़े रहते हैं, इसलिए विपक्षी पार्टियों को पहले ही ऐसी संगठित साजिश का शिकार बनने से इंकार कर देना था। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम इसी जगह लगातार यह बात लिखते आए हैं कि देश के अखबारों को अपने पुराने नाम, प्रेस, पर लौट जाना चाहिए, और देश की आज की मीडिया नाम की विशाल छतरी के नीचे से हट जाना चाहिए। अखबारों और टीवी-समाचारों का चरित्र बिल्कुल अलग है, काम के तौर-तरीके, रीति-नीति, परंपराएं, सब कुछ एकदम अलग है। ऐसे में सबको एक साथ मीडिया बुलाया जाना अखबारों की इज्जत के खिलाफ है जिनके बीच कुछ अखबार जरूर गोदी मीडिया का दर्जा पा चुके हैं, लेकिन अभी भी बहुत से अखबार ईमानदारी से निकलते हैं। अखबारों का मिजाज ऐसा है कि वहां ईमानदार बने रहने की संभावना कुछ हद तक तो चलती है। एक वक्त था जब अखबारों को प्रेस नाम से ही जाना जाता था, और आज फिर उसी चीज की पहल करनी चाहिए। कल टीवी-समाचार उद्योग के संगठन का जो बयान सामने आया, जिसमें विपक्ष के बहिष्कार के फैसले को अलोकतांत्रिक बताया गया, और चैनलों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ कहा गया, वह बयान अपने आपमें इस बात का सुबूत है कि टीवी-समाचार उद्योग जिस हद तक लोकतंत्र-विरोधी हो चुका है, साम्प्रदायिक हो चुका है, उसका एजेंडा जिस तरह युद्धोन्मादी है, उसने इनमें से किसी भी बात की परवाह नहीं की है, और न इनमें से किसी बात को माना है। ऐसे में जिस तरह देश के और कोई भी कारोबारी संगठन अपने लोगों को बचाने के लिए एकजुट रहते हैं, उसी तरह की एकजुटता टीवी-समाचार उद्योग में दिख रही है। इसका पत्रकारिता के किसी नीति-सिद्धांत से कोई लेना-देना नहीं है, और न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से। आज जब देश का सुप्रीम कोर्ट बार-बार यह कह रहा है कि टीवी किस तरह एक तनाव खड़ा कर रहे हैं, बार-बार चेतावनी दे रहा है, तो उस पर ऐसे एसोसिएशन ने कुछ भी नहीं किया। आज जब दर्जन भर से अधिक लोगों के बहिष्कार का गांधीवादी फैसला लिया गया है, तो उसे टीवी-समाचार उद्योग ज्यादती करार दे रहा है। 

हमारा यह मानना है कि न सिर्फ टीवी, बल्कि अखबारों में भी, वेबसाइटों पर भी जो लोग लगातार और स्थाई रूप से बेईमानी करते हैं, उनसे बात करने से लोगों को मना करना चाहिए। ऐसा बहिष्कार किसी भी तरह से उन माध्यमों के किसी अधिकार के खिलाफ नहीं है, बल्कि लोगों के अपने अधिकारों के तहत लिया गया फैसला है। आज अगर कहीं पर कोई शराब पार्टी होती है, और किसी व्यक्ति को शराबियों के बीच बैठने से परहेज है, और वह उस न्यौते पर वहां जाने से इंकार कर देता है, तो यह शराबियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं है। ‘इंडिया’ गठबंधन ने न तो और लोगों से इन एंकरों की बहिष्कार की बात कही है, और न ही इन एंकरों के चैनलों का अभी बहिष्कार किया है। यह इन पार्टियों का बुनियादी हक है कि वे किन कार्यक्रमों में जाएं, और किनमें नहीं। कल के दिन वे कुछ चैनलों का भी बहिष्कार करते हैं, तो भी वह अलोकतांत्रिक नहीं होगा। हमारा तो यह मानना है कि देश में लगातार साम्प्रदायिक हिंसा भडक़ाने में लगे हुए कुछ ऐसे चैनल हैं जिनका पूरी तरह से बहिष्कार होना चाहिए, जो कि ‘इंडिया’ गठबंधन ने अभी नहीं किया है। ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने वाले चैनलों पर कोई भी कार्रवाई करना नहीं चाहती है, जबकि उसके कानून बहुत कड़े बने हुए हैं। ऐसे में लोगों की उम्मीद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट से हो सकती है कि वह सीधे-सीधे इन चैनलों के लाइसेंस कैंसल करे, इनके प्रसारण पर रोक लगाए, इनकी सम्पत्ति जब्त करके साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों के बीच बांटे। लोकतंत्र के तहत अगर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है, तो उसका मतलब उस स्वतंत्रता का इस्तेमाल लोकतंत्र को खत्म करना नहीं हो सकता। यह बात एकदम ही साफ रहनी चाहिए कि  इस तरह के जितने अधिकार हैं ये लोकतंत्र रहने तक ही हैं, और अगर इनका इस्तेमाल समाज में नफरत फैलाने में किया जा रहा है, देश की राजनीति में एक झूठा संतुलन दिखाने में किया जा रहा है, तो किसी गठबंधन से परे देश के कानून को भी इसका नोटिस लेना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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