संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्टाचार और मनमानी से बनने जा रहा टॉवर क्या आसमान में छेद करेगा?
17-Sep-2023 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भ्रष्टाचार और मनमानी से बनने जा रहा टॉवर क्या  आसमान में छेद करेगा?

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के कांग्रेसी मेयर ने यह बताया है कि शहर के बीचोंबीच म्युनिसिपल की पुरानी बिल्डिंग की जगह पर 16 मंजिल इमारत बनाई जाएगी। यह इमारत कारोबारी होगी, और भी मनोरंजन के दूसरे कारोबार यहां चलेंगे। कहा गया है कि सौ करोड़ रूपए से ज्यादा की लागत से यह इमारत शहर के सबसे व्यस्त इलाके में बनाई जाएगी। यह इलाका आज इस कदर व्यस्त रहता है कि कहीं एक दुपहिया खड़ा करने की जगह नहीं रहती, और आसपास के चौराहे, सामने की सडक़ पर ट्रैफिक उफनते रहता है। दशकों से कई बार इस सडक़ पर गाडिय़ों को बंद करवाया गया, सडक़ के एक हिस्से में एक दिन और दूसरे हिस्से में दूसरे दिन ट्रैफिक किया गया, सौ तरह के प्रयोग करने के बाद भी यहां पर आना-जाना मुहाल रहता है। लेकिन चूंकि जगह म्युनिसिपल के पास है, इसलिए अब शहर के इस सबसे व्यस्त हिस्से में 16 मंजिल कारोबारी इमारत बनाने के लिए सौ करोड़ का कर्ज लेकर काम आगे बढ़ाने की योजना है। जाहिर है कि किसी भी तरह का कंस्ट्रक्शन नेता, अफसर, और ठेकेदार, सबको बहुत सुहाता है। 

हम ऐसे किसी एक मामले पर अधिक लिखना नहीं चाहते, क्योंकि अब सत्ता की पहुंच में जमीन का जो टुकड़ा है, उसके भयानक बाजारूकरण की बात आम हो गई है। ऐसे टेंडर, ऐसे ठेके, भयानक भ्रष्टाचार से भरे रहते हैं, और सत्ता को इससे ज्यादा कुछ पसंद नहीं आता। इसलिए न सिर्फ म्युनिसिपल, बल्कि सरकार के सभी विभाग और सभी निगम-मंडल, हर किसी में जमीनों के दोहन और शोषण का गलाकाट मुकाबला चलते रहता है, और हमने तो सरकार के ही दो हिस्सों में बाजारू संभावनाओं वाले जमीन के ऐसे टुकड़ों के लिए लड़ाई देखी है। 

लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार हमारी आज की बात का बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि इस जमीन पर न सही, किसी और जमीन पर, म्युनिसिपल न सही कोई और, भ्रष्टाचार की गगनचुंबी इमारत तो खड़ी होकर रहेगी, और उसे कोई रोक नहीं पाएंगे। लेकिन इस जमीन को लेकर हमें यह फिक्र होती है कि क्या म्युनिसिपल और प्रदेश सरकार तमाम किस्म की कानूनी और सामाजिक जवाबदेही से परे हो चुकी हैं? इनकी नजरों में देश के कानून का, शहर की जरूरत का कोई भी सम्मान रह गया है या नहीं? शहर का सबसे व्यस्त इलाका जहां चारों तरफ कुछ किलोमीटर तक सिर्फ ट्रैफिक जाम रहता है, और शहर का सबसे बड़ा प्रदूषण जहां रहता है, वहां पर लाखों वर्गफीट का यह नया निर्माण बनाना किसकी जरूरत है? कम से कम इस शहर के फेंफड़े की जरूरत नहीं है, जनता की जरूरत नहीं है, और पैसों से लबालब भरे हुए, रात-दिन फिजूलखर्ची और बर्बादी करते हुए, तालाब पाटते, और मैदान काटते हुए म्युनिसिपल को तो बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। लेकिन इस योजना को एक गौरव की तरह पेश किया जा रहा है, और मीडिया के मन में इसे लेकर बुनियादी जिम्मेदारी के कोई सवाल भी नहीं हैं। 

किसी शहर में खुली हवा को बने रहने देना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ऐसी कोई भी दैत्याकार फौलादी योजना सबसे पहले घने इलाके में सांस लेना और मुश्किल करेगी, लेकिन जब शहरीकरण के फैसले योजनाशास्त्रियों और विशेषज्ञों की जानकारी के बिना राजनेता करते हैं, और उन्हें मंजूरी उनके ऊपर बैठे हुए राजनेता देते हैं, तो सवाल उठता है कि इस देश में किसी भी विशेषज्ञता की क्या जरूरत है? हर प्रदेश में सत्तारूढ़ नेता, और निर्वाचित स्थानीय नेता अगर अपनी मर्जी से तमाम विशेषज्ञ फैसले ले सकते हैं, तो फिर स्वास्थ्य मंत्री को भी एमआरआई मशीन का इंतजार किए बिना अपने लैटरपैड पर कैंसर और दूसरी बीमारियों का इलाज लिखना चाहिए। शहर के सबसे घने इलाके में 16 मंजिल की यह निहायत गैरजरूरी इमारत भ्रष्टाचार, मनमानी, और शहर के फेंफड़ों में छेद करने वाली रहेगी, और चूंकि कोई जनसंगठन इस पर आवाज उठाने वाले नहीं हैं, और तकरीबन तमाम भ्रष्ट-निर्माणों पर चूंकि सत्ता और विपक्ष दोनों अघोषित रूप से भागीदार हो जाते हैं, इसलिए शहर के अब तक खाली बचे टुकड़ों का हिंसक बाजारूकरण एक आम बात हो गई है। हम छत्तीसगढ़ राज्य में इस एक राजधानी में ही कई दर्जन ऐसी खुली जगहों को देख रहे हैं, जिन्हें बिल्कुल खुला रखना जरूरी है, लेकिन उनके आसपास के इलाकों का पर्यावरण अध्ययन करवाए बिना भी उन पर दानवाकार योजनाएं बनाई जा रही हैं, और शहर की बेहतरी को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जा रहा है।

मध्यप्रदेश के समय में हमने पढ़ा-सुना था कि इंदौर में कोई एक इंजीनियर या आर्किटेक्ट पति-पत्नी सरकार की जनविरोधी नीतियों और योजनाओं के खिलाफ आवाज उठाते थे। अब अधिकतर प्रदेशों में यह मुमकिन इसलिए नहीं रह गया है कि अधिकतर आर्किटेक्ट या इंजीनियर सरकारी योजनाओं से जुड़े रहते हैं, और ऐसी आवाज उठाना उनके लिए हितों का टकराव रहेगा। फिर भी हमारा यह मानना है कि जनता के बीच से कुछ लोग ऐसे निकल सकते हैं जो कि हाईकोर्ट जाकर ऐसी योजनाओं के खिलाफ पीआईएल लगाएं, और उस पीआईएल के लिए मजबूत जमीन तैयार करने को पहले से ऐसी योजनाओं वाली सरकारी संस्थाओं को नोटिस भेजना शुरू करें, सूचना के अधिकार में जानकारी मांगें, और उनमें खामियां निकालकर, उन्हें जनहित के खिलाफ साबित करते हुए अदालत जाएं। निर्वाचित कुर्सियों पर अच्छे या बुरे कैसे लोग पांच बरस के लिए आते हैं, और उन्हें किसी शहर या प्रदेश को हमेशा के लिए बर्बाद करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। छत्तीसगढ़ की इस राजधानी में राज्य सरकार का इंजीनियरिंग कॉलेज तो है ही, केन्द्र सरकार का एनआईटी भी है। हमारा यह भी मानना है कि बिना किसी राजनीतिक नीयत के सिर्फ छात्र-छात्राओं और प्राध्यापकों के ज्ञान और उनकी समझ के लिए इस शहर की तमाम सार्वजनिक खाली जगहों का एक अध्ययन होना चाहिए कि वहां शहर और समाज की भलाई में क्या बनना चाहिए, और क्या-क्या नहीं बनना चाहिए। वैसे तो राज्य सरकार अगर जिम्मेदार हो, तो उसे ऐसी किसी भी दैत्याकार और विनाशकारी सोच के पहले जानकारों से राय लेनी चाहिए। इस देश के आईआईटी और आईआईएम के लोग पूरी दुनिया में जाकर वहां की सबसे कामयाब कंपनियां चलाते हैं, लेकिन लगता है कि हिन्दुस्तान को उनकी विशेषज्ञता की कोई जरूरत नहीं है। छत्तीसगढ़ प्रदेश बनने के बाद से अब तक खनिज कमाई की वजह से इसमें जरूरत से ज्यादा पैसा रहा, और राजधानी बन गए इस शहर में जरूरत से अधिक भ्रष्ट योजनाएं बनती ही रहीं। अब यह समय आ गया है कि जागरूक लोगें के किसी जानकार संगठन को जिनका कि सरकार से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें सार्वजनिक हित के ऐसे मुद्दों पर सरकार के सामने विरोध दर्ज करना चाहिए, और फिर जैसी कि उम्मीद है, उसके अनसुने रहने पर अदालत जाना चाहिए। किसी भी शहर या प्रदेश के लोग अपनी आने वाली पीढिय़ों को दमघोंटने वाला धुआं विरासत में देकर जाएं, तो उन्हें 25-50 बरस बाद लिखे जाने वाले इतिहास में गैरजिम्मेदार मुजरिम ही लिखा जाएगा। जब लोगों के पास शिकायत करने और अदालत तक जाने का विकल्प है, तब तक सत्ता की ऐसी दानवाकार मनमानी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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