विचार / लेख

-बादल सरोज
शुरुआत एक कहानी से-1983-84 की बात है। ईएमएस नम्बूदिरीपाद भोपाल आए थे। कार्यक्रम के बाद रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में वापसी ट्रेन के इंतजार में थे। हम उस वक़्त का अपना नौजवान सभा का पाक्षिक अखबार ‘नौजवान’ लेकर उन्हें दिखाने पहुंचे । उन्होंने उसे देखा, अल्टा-पल्टा और कहा कि हिंदी आधुनिक भाषा है, इसमें शार्ट फॉर्म्स के लिए भी शब्द हैं जैसे माकपा, भाजपा, बसपा। मलयालम में ऐसा नहीं है । उसके बाद ईएमएस ने, प्यार से, हिंदी के व्याकरण पर हमारा एक शॉर्ट रिफ्रेशर कोर्स ले लिया । लौटते में प्लेटफार्म के बाहर एक हाथ मे समोवारी चाय और दूसरे में चारमीनार पकड़े हमसे कामरेड शैली ने पूछा ; तुम मलयालम के कितने शब्द जानते हो ? हमने कहा वडक्कम। उन्होंने कह-चलो घर । ये तमिल है। मलयालम में ‘नमस्कारम’ या ‘अभिवादनम’ कहते हैं। और मुस्कुराकर बोले : तुम्हें पता है मलयालम शंकराचार्य की मातृभाषा है।
निस्संदेह हिंदी एक आधुनिक भाषा है जो, सैकड़ों वर्षों में, अनेक सहयोगी भाषाओं/बोलियों के जीवंत मिलन से बनी है । जब तक इसका यह अजस्र स्रोत बरकरार है, जब तक इसकी बांहें जो भी श्रेष्ठ और उपयोगी है का आलिंगन करने के लिए खुली हैं, जब तक इसकी सम्मिश्रण उत्सुकता बनी है तब तक इसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता। हिंदी को तीन ओर से होने वाले हमलों से खुद को बचाना होगा।
एक
पहला उन स्वयंभू हिंदीदांओं से जो उसे अतिशुध्द बनाने, उसका संस्कृतिकरण करने के जुनून में उसे इतनी क्लिष्ट और हास्यास्पद बना देते हैं कि वह किसी की समझ मे नही आती । अधिकांश मामलों में खुद उनकी भी समझ में नहीं आती।
दो
दूसरा उन मनोरोगियों से है जो निज भाषा से प्यार और मान का मतलब बाकी भाषाओं का धिक्कार और तिरस्कार मानते हैं। हिंदी एक उत्कृष्ट भाषा है किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि बाकी भाषाएँ निकृष्ट हैं। श्रेष्ठता बोध दूसरे को निकृष्ट मानकर रखना एक तरह की हीन ग्रंथि है - मनोरोग है। हर भाषा का अपना उद्गम है, सौंदर्य है, आकर्षण है, उनकी मौलिक अंतर्निहित शक्ति है। बाकी को कमतर समझने की यह आत्ममुग्धता दास भाव भी जगाती है।
अपने अंतिम निष्कर्ष में यह तिरस्कारवादी रुख , संकीर्ण और अंधभक्त सोच यहां लाकर खड़ा कर देता है कि पूर्व प्रभुओं की भाषा अंग्रेजी की घुसपैठ तो माथे का चन्दन बन जाती है मगर तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, असमी, कश्मीरी, खासी-गारो-गोंडी-कोरकू, भीली, मुण्डा, निमाड़ी, आदि इत्यादि अस्पृश्य बना दी जाती है। इन्ही का एक रूप विस्तारवादी है जो ब्रज, भोजपुरी, अवधी, बघेली, मैथिली, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, कन्नौजी, मगही, मारवाड़ी, मालवी को भाषा ही नही मानते, हिंदी की उपशाखा मानकर फूले फूले फिरते रहते हैं। अब भला ये हिंदी की शाखा या उपशाखा कैसे हो गयीं जबकि हिंदी आधुनिक है और ये उसकी परदादी और परनानी की भे परदादी और पर नानियाँ हैं।
तीन
तीसरा बड़ा खतरा उनसे है जो हिंदी में ' ई ' की जगह ' ऊ ' की मात्रा लगाने पर आमादा हैं । हिंदी - या और किसी भी भाषा को - किसी धर्म विशेष से बांधना उसके धृतराष्ट्र-आलिंगन के सिवाय और कुछ नहीँ । ऐसे तत्वों की एक सार्वत्रिक विशेषता है ; वे न हिंदी ठीक तरह से जानते है न हिंदी के बारे में कुछ जानते हैं।
उन्हें नही पता कि हिंदी की पहली कहानी ‘रानी केतकी’ लिखने वाले मुंशी इल्ला खां थे। पहली कविता ‘संदेश रासक’ लिखने वाले कवि अब्दुर्रहमान - पहले लोकप्रिय कवि अमीर खुसरो, पहला महाकाव्य लिखने वाले मलिक मोहम्मद जायसी थे । (इन्ही की कृति थी ; पद्मावत, जिस पर बनी फिल्म पर इन ‘ऊ’ की मात्रा वाले उऊओं ने रार पेल दी थी ।) ये सब भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पहले की बात है।
हिंदी में पहला शोधग्रंथ -पीएचडी- फादर कामिल बुल्के का था/की थी, वे ही जिन्होंने हिंदी शब्दकोष तैयार किया था।
प्रथम महिला कहानी लेखिका बंग भाषी राजेन्द्र बाला घोष थी जिन्होंने ‘दुलाई वाली’ कहानी लिखी और कई ग्रंथों के हिंदी अनुवाद के माध्यम बने राममोहन राय बंगाली भी थे और ब्रह्मोसमाजी भी। भाषा जीवित मनुष्यता की निरंतर प्रवाहमान, अनवरत विकासमान मेधा और बुद्धिमत्ता है । जिसे हर कण गति और कलकलता प्रदान करता है।