संपादकीय
कांग्रेस को शायद काफी देर से यह बात समझ आई, लेकिन हैदराबाद में हुई पार्टी की कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी सहित दिग्विजय सिंह और भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने कहा कि तमिलनाडु के डीएमके नेता के बयान से शुरू हुए सनातन के बयानबाजी से पार्टी को बचना चाहिए। वहां से निकली खबरें बताती हैं कि कांग्रेस के बहुत से नेताओं का यह कहना था कि पार्टी को बीजेपी के एजेंडा में नहीं फंसना चाहिए। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने नेताओं को पार्टी लाईन से परे निजी बयान देने से कड़ाई से मना किया है। कुल मिलाकर पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को कई हिसाब से चौकन्ना कर दिया है, और वह जो परंपरागत चूक करती है, अब उसका नुकसान पार्टी को समझ आ रहा है। लेकिन औपचारिक चर्चाओं से परे अभी भी बहुत सी बातें हैं जो कि इन खबरों में नहीं आई हैं, और हो सकता है कि उन पर कार्यसमिति की बैठक में चर्चा हुई हो, या न भी हुई हो।
कांग्रेस एक बड़ी पुरानी पार्टी है, और इसका धर्मनिरपेक्षता का इतिहास रहा है। लेकिन हाल के बरसों में इसने यह बात समझ ली कि मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों, या दूसरे अल्पसंख्यकों के मुद्दों को उठाने का नुकसान शायद उसे झेलना पड़ता है। पता नहीं यह बात सच है, या फिर कांग्रेस के भीतर के कुछ कम धर्मनिरपेक्ष, कुछ अधिक हिन्दू लोगों का ऐसा सोचना है। जो भी हो, हाल के बरसों में कांग्रेस ने बड़ी खुलकर हिन्दुत्व की राजनीति की है, और शायद उसने यह भी मान लिया है कि मुस्लिमों के पास भाजपा के खिलाफ अगर कांग्रेस को जिताने का स्पष्ट विकल्प होगा, तो वह कांग्रेस को छोडक़र कहीं जा नहीं सकती, और अगर उसके पास कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा ऐसा विकल्प है जो कि भाजपा के खिलाफ जीत की संभावना वाला है, तो वह कांग्रेस से लगाव खत्म भी कर चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस के काफी नेता अल्पसंख्यकों की अनदेखी की राजनीति कर रहे हैं, ताकि बहुसंख्यक हिन्दुओं को पार्टी हिन्दू-विरोधी, या मुस्लिमपरस्त न लगे। पता नहीं यह कांग्रेस का सोचा-विचारा फैसला है, या इसके क्षेत्रीय छत्रप अपने स्तर पर ऐसी राजनीति कर रहे हैं, लेकिन यह तो बहुत जाहिर है कि एक-एक करके बहुत से प्रदेशों में कांग्रेस हिन्दुत्व बी टीम के रूप में अपनी पहचान बना रही है, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में वह भाजपा को पीछे छोड़ चुकी बताई जाती है।
जब देश के मतदाताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा धर्मनिरपेक्षता की लंबी परंपरा और राजनीतिक चेतना को पूरी तरह खोकर धार्मिक ध्रुवीकरण में गर्व पाने लगा है, तो वैसे में चुनावी राजनीति में किस पार्टी को क्या करना चाहिए, इस बारे में हमारे पास कोई समाधान नहीं है। हम अपनी परंपरागत सोच के मुताबिक इतना ही कह सकते हैं कि हर पार्टी को धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए, और वैसा ही दिखना भी चाहिए। लेकिन सत्ता की राजनीति में यह हर पार्टी की अपने प्रति जिम्मेदारी बनती है, और उसका हक बनता है कि वह साम्प्रदायिकता फैलाए बिना, धर्मान्धता को अपनाए बिना, बहुसंख्यकों के धर्म को बढ़ावा देकर अपनी जमीन तैयार करे। पता नहीं मोदी की अगुवाई में भाजपा के रहते हुए ऐसा हिन्दुत्व कांग्रेस को किसी किनारे पहुंचा पाएगा या नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी अलग-अलग कुछ प्रदेशों मेें ऐसा ही करते दिख रही है। अभी कांग्रेस कार्यसमिति के कुछ नेताओं के जो बयान बाहर आए हैं, उनमें भाजपा जैसी हिन्दूवादी पार्टी के जाल में फंसने के खिलाफ पार्टी के नेताओं को आगाह किया गया है। ऐसा लगता है कि सनातन धर्म के मुद्दे पर डीएमके नेताओं ने अपना जो परंपरागत रूख सामने रखा है, उसमें नया कुछ नहीं है, सिवाय भाजपा के उसे दुहने के। भाजपा ने तुरंत ही देश के चुनावी माहौल के बीच इसे सनातन धर्म और हिन्दू धर्म पर हमला करार दिया है, और इंडिया-गठबंधन में डीएमके के साथ रहने पर कांग्रेस को भी इस हमले में शामिल बताया है। चुनावी राजनीति में इतनी तोहमत बहुत हैरान करने वाली नहीं है, लेकिन वोटरों की कमअक्ली के बीच कांग्रेस के किसी भी बड़बोले नेता का बयान पार्टी के लिए बड़ी फजीहत बन सकता है, और हैदराबाद में यही फिक्र सामने आई है, और इसकी तरफ से सावधान रहने की बात कही गई है।
लेकिन कांग्रेस में नासमझी कई अलग-अलग स्तरों पर होती है। जब हिन्दू धर्म से जुड़े हुए कोई मुद्दा या विवाद खबरों में आते हैं, तो कई बार कांग्रेस के कोई मुस्लिम प्रवक्ता उस पर बयान देते दिखते हैं। यह लापरवाही आत्मघाती है, और भारत में हिन्दू-मुस्लिम तनातनी की हकीकत को अनदेखा करना भी समझदारी नहीं है। जब पार्टी के पास आधा दर्जन बड़े-बड़े हिन्दू प्रवक्ता भी हैं, तो पार्टी के मुस्लिम प्रवक्ता या नेता का उस पर कुछ कहना जरूरी तो नहीं रहता। लेकिन कांग्रेस में ऐसा कई बार होते आया है। अब जाकर अगर पार्टी को धार्मिक संवेदनशीलता समझ में आ रही है, तो उसे सबसे पहले अपने नेताओं को उनके धर्म से परे के धर्मों पर बयानबाजी से दूर रहने को कहना चाहिए। लेकिन एक दूसरी बात यह भी है कि हाल के बरसों में कुछ प्रदेशों में कांग्रेस ने जिस आक्रामक अंदाज में हिन्दुत्व के मुद्दे पर लीड लेने की कोशिश की है, उससे जनता के बीच हिन्दुत्व को लेकर भावनात्मक उभार आया है। उसका नतीजा यह निकल रहा है कि आज हिन्दू-मुस्लिम, या हिन्दू-ईसाई जैसे किसी भी छोटे से तनाव के खड़े होने पर भी बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का एक तबका तुरंत ही झंडा-डंडा लेकर सडक़ों पर रहता है। हम छत्तीसगढ़ में कई घटनाओं के बाद ऐसा तनाव देख चुके हैं। चूंकि हिन्दुओं को हिन्दुत्व के मुद्दे पर जगाने के काम में भाजपा के अलावा कांग्रेस भी पूरी ताकत से लगी हुई है, इसलिए अब ‘जागे हुए’ जरा से भी किसी गैरहिन्दू मुद्दे पर तुरंत ही उत्तेजित हो जाते हैं। इसलिए हिन्दूवादी पार्टियों और संगठनों की दशकों से फैलाई गई ‘हिन्दू चेतना’ को जब कांग्रेस ने भी बढ़ावा दिया है, तो अब इस नई बढ़ी हुई चेतना के चलते ध्रुवीकरण और अधिक रफ्तार से होने का एक नया खतरा सामने आया है। अब बहुसंख्यक धर्म के लोगों को भी अपने धर्म का अहसास पहले से बहुत अधिक होने लगा है, क्योंकि कांग्रेस भी रात-दिन राम-राम कर रही है।
देश में यह नई धार्मिक उत्तेजना चुनाव में किस पार्टी के कितने काम आएगी इसका कोई अंदाज हमें नहीं है, लेकिन ऐसी उत्तेजना से कौन से नए खतरे खड़े हो रहे हैं, उसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व को लेकर कांग्रेस कार्यसमिति के भीतर एक सावधानी की बात तो हुई है, भाजपा के जाल में फंसने से बचने की बात तो हुई है, लेकिन पार्टी के अपने आक्रामक हिन्दुत्व के लिए किसी लक्ष्मणरेखा की बात हुई हो ऐसा कम से कम खबरों में नहीं आया है, और अधिक संभावना इस बात की है कि ऐसी कोई चर्चा भी नहीं हुई होगी। यह बात इस देश की गौरवशाली धर्मनिरपेक्ष परंपराओं का हौसला पस्त करने वाली हो सकती है, लेकिन कांग्रेस शायद यह मान रही है कि धर्मनिरपेक्षता की अधिक चर्चा करना उसके लिए नुकसान की बात है। हम देश के राजनीतिक माहौल के बारे में कई तरह की सलाह दे सकते हैं, लेकिन जब बात कांग्रेस के चुनावी नफे-नुकसान की आती है, तो कांग्रेस पार्टी उसके लिए हमसे अधिक समझदार है, और जिस देश में मुकाबला भाजपा जैसी पार्टी से हो, मोदी जैसे नेता से हो, वहां पर हमारी राय कांग्रेस या किसी और पार्टी के चुनावी फायदे की हो नहीं सकती। इसलिए क्या सही है और क्या गलत, इस पर चर्चा तो हम कर सकते हैं, अपने इस कॉलम में अक्सर ही करते हैं, लेकिन कौन सी बात किस पार्टी के फायदे की हो सकती है, उस पर चर्चा करना हमारे बस से परे की बात है। ऐसे में हम जनता से ही सीधे बात कर सकते हैं, कई राजनीतिक दलों को कहने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।