विचार / लेख

फोटो : सोशल मीडिया
-डॉ. आर.के. पालीवाल
विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया द्वारा कुछ चैनलों के चौदह पत्रकारों के बहिष्कार की घटना पत्रकारिता, लोकतंत्र और राजनीतिक दलों के लिए एक खतरनाक संकेत है। इसमें कोई शक नहीं कि राजनीति से चोली दामन का साथ रखने वाली पत्रकारिता में आजादी के बाद से राजनीति की तरह ही निरंतर गिरावट आई है जिस पर काफी दिनों से गोदी मीडिया और प्रायोजित मीडिया के नाम पर खूब बहस हो रही थी लेकिन इस गिरावट की परिणति इस हद तक पहुंचेगी इसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की थी।
कुछ पत्रकारों, संपादकों, अखबार और चैनल मालिकों से सत्ता धारी दलों और कुछ नेताओं के आत्मीय संबंध और गहरे मनमुटाव पहले भी होते रहे हैं। आपातकाल में अधिकांश मीडिया दो वर्गों में विभाजित हो गया था। एक बड़ा वर्ग सरकार के साम दाम दण्ड भेद के सामने नतमस्तक हो गया था और दूसरा भाग तरह तरह की प्रताडऩा का शिकार बना था।यह पहली बार हुआ है कि अ_ाईस राजनीतिक दलों के इण्डिया गठबन्धन ने बाकायदा प्रेस रिलीज कर चौदह पत्रकारों की सूची जारी कर उनके बहिष्कार की घोषणा की है।
इस विषय पर पर सोशल मीडिया में तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया ख़ुद मीडिया जगत से आ रही हैं। कुछ लोग इस सूची को अपूर्ण मान रहे हैं और इसमें कुछ और पत्रकारों का नाम शामिल करने की अपील कर रहे हैं। संभव है कि इस सूची में उन्हीं पत्रकारों के नाम शामिल हुए हैं जिन पर इण्डिया गठबंधन के घटक दलों में सर्व सहमति बनी हो। यह भी संभव है कि इस सूची को जान बूझकर सीमित किया गया हो ताकि इस पर प्रतिक्रिया देखने के बाद दूसरी सूची भी जारी हो।
कुछ लोगों का मानना है कि बहिष्कार केवल पत्रकारों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। पत्रकारों को शरण देने वाले चैनलों का भी बहिष्कार किया जाना चाहिए। गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों को ऐसे मीडिया हाउसों को विज्ञापन आदि के लिए भी ब्लैक लिस्ट किया जाना चाहिए। एक मत यह भी है कि केवल टी वी चैनल के पत्रकारों पर ही यह तोहमत क्यों लगी है, अखबारों के पत्रकारों और संपादकों को क्यों बख्शा गया है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि अखबार में अभी भी काफी संपादक और वरिष्ठ पत्रकार पुरानी पीढ़ी के हैं जिन्होंने बड़े पत्रकारों और संपादकों की संगत में पत्रकारिता सीखी है इसलिए वहां उस तरह की एकतरफा खबरें तुलनात्मक रूप से काफी कम हैं। एक कारण यह भी है कि टेलीविजन में नई उम्र के पत्रकारों को उनके ज्ञान से अधिक बोलने के लहजे और दिखने की अदाओं और भाव भंगिमा के आधार पर नियुक्त किया जाता है और वहां लाइव कार्यक्रम में एडिटिंग के लिए भी समय नहीं मिलता, इसलिए ज्यादा तीखा हो जाता है। तीसरा कारण यह भी है कि देखे गए समाचार का असर पढ़े गए से अधिक गहरा और ज्यादा समय तक प्रभावी रहता है इसलिए उससे किसी राजनीतिक दल को होने वाला नुक्सान भी व्यापक होता है। इसीलिए कुछ लोग कह रहे हैं कि गठबंधन के नेता इन पत्रकारों की बेबाक पत्रकारिता और तीखे तेवरों से भय खाते हैं इसलिए उनका सामना करने की हिम्मत नहीं करते।
सरकारी तंत्र के डर और सरकारी विज्ञापनों के लालच के कारण प्रेस स्वतंत्रता के मामले में हमारे मीडिया घरानों की स्थिति बदतर होती जा रही है।
प्रेस की स्वतंत्रता की वैश्विक रैंकिंग में 2002 में हम 80 वें स्थान से खिसकते हुए वर्तमान में 161वें स्थान पर पहुंच गए हैं जो बेहद चिंताजनक और शर्मनाक है।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी संभवत: प्रेस से परहेज करने वाले प्रधानमंत्रियों की सूची में नंबर वन पर आते हैं। उन्होंने पिछ्ले नौ साल में एक भी ऐसी प्रेस कॉन्फ्रेस नहीं की जहां राष्ट्रीय मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों को प्रश्न पूछने के लिए खुला मंच दिया हो।
जाहिर है वे अपने मंत्रियों का भी मीडिया से खुलकर बात करना शायद ही पसंद करते हैं।ऐसी विपरीत परिस्थितियों में कुछ पत्रकारों को विपक्ष द्वारा बहिष्कृत किया जाना भी देश की प्रेस और लोकतंत्र के लिए एक काले अध्याय जैसा ही है।