विचार / लेख

-अपूर्वा
वो भवन की सजावट का काम नहीं करते. कंगूरे नहीं लगाते बल्कि बुनियाद खड़ी करते हैं. ऐसी मजबूत बुनियाद जिस पर बुलंद इमारतें खड़ी हो सकें.
वो गीली-कच्ची मिट्टियों पर पसीना बहकर सुंदर-सुंदर मूर्तियां बनाते हैं.
वो देश का भविष्य गढ़ते हैं. वो शिक्षक हैं और इन शिक्षकों में लाखों ऐसे शिक्षक भी हैं जो निजी स्कूलों में मोमबत्ती की तरह जलकर प्रकाश दे रहे.
अब तो हिंदी निजी स्कूल विलुप्त हो रहे. अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हैं ज़्यादातर . इन स्कूलों से निकलकर बच्चे एक के बाद एक कमाल कर रहे हैं.
बच्चे ऊंचाइयों को छू रहे. पालक गर्व कर रहे . स्कूल श्रेय ले रहा ...कितनी सुंदर तस्वीर हैं..
इस सुंदर तस्वीर को बनाने वाले कहाँ हैं? किस हाल में है? उन पर क्या गुज़र रही है? उनकी कैसे गुज़र -बसर हो रही? इस सवाल का उत्तर क्या कोई जानना चाहता है? ये सवाल कोई पूछना भी चाहता है?
किसे परवाह है निजी स्कूल के मामूली शिक्षकों की? क्या किसी ने कभी जानने की कोशिश की, कि उन्हें न्यूनतम वेतन भी मिलता है?
क्या उन्हें कभी पेंशन मिलेगी?
क्या उन्हें न्यूनतम छुट्टियां भी मिलती हैं?
आठ से दस घंटों के कड़े परिश्रम के दौरान उन्हें कितनी देर बैठने की इज़ाज़त है, ये किसी ने पूछा ?
स्कूल पालकों से कहता है हम 'एजुकेशन बोर्ड' ..जो भी नाम हो ...के अनुसार फीस ले रहे ...इसलिए बढ़ाई..
क्या कभी ये सवाल पूछा गया कि उसी 'एजुकेशन बोर्ड' के नियमानुसार क्या आप अपने शिक्षक को वेतन देते हैं ?
क्या कभी शिक्षा के बड़े -बड़े अधिकारी स्कूल से ये सवाल करते हैं कि अपने शिक्षकों को देश के श्रम कानूनों के हिसाब से अवकाश देते हैं या नहीं ?
ऐसे बहुत से खराब सवाल हैं जो बच्चों की पढ़ाई और स्कूल की छवि पर गर्व करने वालों के मुँह का जायका बिगाड़ सकते हैं.
दरअसल, निजी अंग्रेजी स्कूल में काम करने वाले शिक्षकों का हाल-बेहाल है.
सबसे कम वेतन, सबसे कम छुट्टियां, सबसे कम आराम और सबसे ज़्यादा काम. सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी.
स्कूल के बच्चों को संवारने से बेहतर कोई काम नहीं तो इससे बढ़कर मेहनत और ज़िम्मेदारी का भी कोई काम नहीं.
पर क्या नीव की मजबूती में जुटे इन कलम -चाक के मज़दूरों की कोई सुध लेता है ?
किसी राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र में इनका ज़िक्र सुना. इनसे तो कोई कोरा-झूठा वायदा तक नहीं करता !
कोई सामाजिक -राजनीतिक संगठन इनकी चर्चा नहीं करता.
कोई अखबार इनकी पीड़ा पर नहीं लिखता.
सब संगठित हो सकते हैं. पेरेंट्स का संगठन है, स्कूल प्रबंधकों का संगठन है, छात्रों के तो कई प्रकार के होते हैं पर यदि निजी स्कूल के शिक्षक अपना संगठन बना लें तो उससे बढ़कर कोई जुर्म नहीं !!
इस शहर का इतिहास ही गवाह है निजी स्कूल के शिक्षकों ने जब संगठित होने की कोशिश की, कुचले गए.
निजी स्कूल के शिक्षकों को संगठित होने का अधिकार नहीं है ..
निजी स्कूल के शिक्षकों को 'एजुकेशन बोर्ड' द्वारा निर्धारित वेतन मांगने का अधिकार नहीं है ..
निजी स्कूल के शिक्षकों को श्रम कानूनों के अनुसार अवकाश मांगने का अधिकार नहीं है..
निजी स्कूल के शिक्षकों के लिए पेंशन तो एक सपना है. सरकारी शिक्षक के वेतन का आधा भी पाना उसके नसीब में नहीं है.
वेतन तय नहीं, काम के घंटे तय नहीं, Leave rules यानी छुट्टियां कितनी तय नहीं,
भविष्य क्या ...तय नहीं ... मेडिकल सुविधाएँ तो दूर की कौड़ी !
ये सवाल एक शहर का नहीं, प्रदेश का नहीं इस देश का है.
आखिर इस देश में निजी स्कूल के शिक्षकों की जगह कहाँ है ?
अगली बार पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग में जाएँ तो उनसे कहिये अपने स्कूल के शिक्षकों के वेतन अपनी वेबसाइट में डालें.
उनसे कहिये यदि शिक्षकों को आराम नहीं मिलेगा तो गुणवत्ता का असर पढ़ाई पर और बच्चों पर आएगा.