संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारत-कनाडा रिश्तों में खालिस्तानी-विस्फोट..
21-Sep-2023 4:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारत-कनाडा रिश्तों में खालिस्तानी-विस्फोट..

भारत और कनाडा के रिश्तों पर मानो गाज गिर गई। कनाडा भारतवंशी लोगों से भरा हुआ है, और दोनों देशों के बीच बड़े कारोबारी रिश्ते हैं। इनकी वजह से दोनों के बीच संबंध ठीक रहने थे, लेकिन हिन्दुस्तान के एक आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे, खालिस्तान को लेकर दोनों देशों के रिश्ते फिलहाल तो तबाह दिखते हैं। मोदी सरकार के 9 बरसों में यह पहली बार दिख रहा है कि कोई बड़ा पश्चिमी देश भारत पर कत्ल का इल्जाम लगाते हुए उसके एक राजनयिक को देश से निकाल दे। जवाब में भारत ने भी ऐसा ही किया है, लेकिन इस जवाबी कार्रवाई से यह तनातनी खत्म नहीं हो जाती क्योंकि कनाडा के प्रधानमंत्री ने वहां की संसद में औपचारिक घोषणा करते हुए यह साफ-साफ कहा है कि कनाडा की जमीन पर, एक कनाडाई नागरिक का कत्ल किया गया, और जांच में ऐसे तथ्य मिल रहे हैं कि इसके पीछे भारत है। यह बात साफ है कि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलन को बड़ी छूट मिली हुई है, और कुछ महीने पहले लोग यह देखकर हक्का-बक्का रह गए थे कि सिक्खों के एक बड़े कार्यक्रम में इंदिरा गांधी की हत्या की एक झांकी निकाली गई थी। भारत में उस मौके पर भी, और उसके पहले भी दर्जनों बार कनाडा से खालिस्तानी आंदोलन के मुद्दे पर विरोध दर्ज किया था, और कहा था कि भारत में आतंकी और अलगाववादी कार्रवाई करने वाले खालिस्तानी आंदोलनकारी कनाडा की जमीन पर बढ़ावा पा रहे हैं। 

भारत के कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि खलिस्तानी आंदोलन का हिन्दुस्तान में कोई अस्तित्व नहीं है, और ऐसे नामौजूद आंदोलन में अपनी भागीदारी बताकर भारत के कई सिक्ख पश्चिमी देशों में राजनीतिक शरण मांगते हैं कि भारत में उन पर खतरा है। दूसरी तरफ भारत ने अभी यह कहा है कि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलनकारियों को बढ़ावा देकर वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपनी कमजोर स्थिति को मजबूत करना चाहते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह भी एक हकीकत है कि पश्चिमी देशों में राजनीतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाकी दुनिया के लिए परेशानी या असहमति का सबब रहती है। इस मामले में भी कुछ हद तक ऐसा ही है कि कनाडा वहां की सिक्ख आबादी के खालिस्तानी-जनमतसंग्रह करते हैं, और पश्चिम के देश ऐसे आंदोलनों को तब तक गैरकानूनी करार नहीं देते, जब तक कि वे हिंसक न हो जाएं। हालांकि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलनकारियों में से कुछ ने बड़ी हिंसा भी की है, और लोगों को याद होगा कि कनाडा के इतिहास का सबसे बुरा आतंकी हमला 1985 में एयर इंडिया के एक प्लेन को बम लगाकर उड़ा देने का था, और 1985 के इस खालिस्तानी हमले में सवा तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे जिनमें से अधिकतर कनाडा के थे। इसके बाद भी वहां बसी हुई सिक्ख आबादी संख्या में बहुत बड़ी है, राजनीति में सक्रिय है, और वहां मंत्रिमंडल में ऐसे सिक्ख भी रहते आए हैं जो कि खालिस्तानी आंदोलन के आरोपी रहे हैं। 

लेकिन इनमें से कोई भी बात बिल्कुल ताजा नहीं है, ये अधिकतर तनाव काफी अरसे से चले आ रहे थे, और ऐसे में जब भारत और कनाडा के प्रधानमंत्री अभी-अभी जी-20 के दौरान रूबरू मिले थे, तब भी कनाडा में हुई इस हत्या की बात ट्रूडो ने मोदी से की थी, लेकिन बात किसी किनारे पहुंची नहीं। एक अभूतपूर्व तनातनी के बीच ट्रूडो कनाडा लौटे, और उन्होंने वहां संसद में भारत पर यह खुला आरोप लगाया और उसके खिलाफ राजनयिक निष्कासन की कार्रवाई की। इस तनातनी में पश्चिम के कई विकसित और ताकतवर देशों के सामने एक परेशानी खड़ी कर दी है कि आज जब वे एक तरफ तो यूक्रेन के मोर्चे पर उलझे हुए हैं, चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय मुकाबला चल ही रहा है, ऐसे में इन दोनों ही मुद्दों पर भारत के साथ के जरूरी होने पर वे किस तरह कनाडा का भी साथ दें? अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से कनाडा ने अपनी कार्रवाई का खुलासा किया है कि वह अपनी जमीन पर अपने नागरिक का कत्ल बर्दाश्त नहीं कर सकता, और उसने इन देशों को अपनी नजर में कत्ल के सुबूत पेश भी किए हैं। आज ये तमाम देश कनाडा के साथ भी बने रहना चाहेंगे, और भारत को भी साथ रखना चाहेंगे। इसलिए भारत और कनाडा दोनों के लिए यह नौबत अंतरराष्ट्रीय असुविधा खड़ी करने की भी है। 

फिर कनाडा में लाखों भारतीय छात्र-छात्राएं पढ़ रहे हैं, लाखों लोग काम कर रहे हैं, और भारतीय मूल के लाखों लोग वहां बसे हुए हैं। ऐसे में बड़े कारोबारी रिश्तों के अलावा भारतीयों और भारतवंशियों की हिफाजत भी एक बड़ी बात है, और इस मोर्चे पर कोई भी नया तनाव खड़ा होने पर वह भारत के लिए एक परेशानी रहेगी। इन दोनों ही देशों के लिए आज यह माना जा रहा है कि यह कूटनीतिक असफलता है जब दोनों देशों के पीएम दिल्ली में मिल-बैठकर भी इस मुद्दे को नहीं सुलझा पाए, तो फिर अब नीचे के स्तर पर इसका कोई आसान समाधान जल्द हो जाए ऐसा दिखता नहीं है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि खालिस्तानी मुद्दे पर अगर भारत को यह साख मिल रही है कि उसने कनाडा में एक खालिस्तानी को मार गिराया है, तो उससे हिन्दुस्तान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थकों और प्रशंसकों के बीच उनके लिए तारीफ के सिवाय कुछ नहीं होगा। राष्ट्रवादी सोच आतंकियों से सरहद पर या विदेशों में कड़ाई से निपटने की वकालत करती है। दुनिया के कुछ और देश भी अपने विरोधियों के साथ इस किस्म की ‘कार्रवाई’ करने के लिए जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि देशों से उम्मीद की जाती है कि वे रंगे हाथों न पकड़ाएं। अब कनाडा हिन्दुस्तान के खिलाफ जिन सुबूतों का हवाला दे रहा है, उनके सामने आने पर ही कोई बात साबित हो सकती है, लेकिन उससे मोदी को भारत के भीतर आबादी के एक बड़े हिस्से में एक मजबूत नेता की शोहरत मिलेगी, जिसे इसमें भी मोदी है तो मुमकिन है ही देखने मिलेगा। 

फिलहाल हम इसे दोनों देशों के सर्वोच्च स्तर पर कूटनीतिक नाकामयाबी मानते हैं, और कनाडा इस हद तक पहुंचा, या उसे इस हद तक जाना पड़ा कि वह संसद में भारत को औपचारिक रूप से हत्या का जिम्मेदार कहे, तो यह किसी भी तरह की बातचीत की पूरी ही असफलता है। इस नौबत से पश्चिम के देशों में बसे हुए खालिस्तान-समर्थकों को एक नई ताकत मिलेगी कि कम से कम कनाडा की सरकार इस हद तक उसके लिए और उसके साथ खड़ी है। आने वाला वक्त बताएगा कि इन दोनों बड़े और ताकतवर देशों के रिश्ते किस तरफ बढ़ते हैं क्योंकि दोनों के आपसी हित बहुत व्यापक हैं, और दोनों के साझा दोस्त भी इस तनाव से परेशान हैं। फिलहाल तो यह लगता है कि इस ताजा तनाव से भारत और कनाडा दोनों के प्रधानमंत्रियों को अपनी-अपनी जमीन पर, अपने-अपने लोगों के बीच एक नई ताकत मिली है, और अपने-अपने विपक्षियों का समर्थन भी मिला है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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