संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फिल्म बॉबी की आधी सदी के मौके पर दो घटनाएं हुईं
24-Sep-2023 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फिल्म बॉबी की आधी सदी के मौके पर दो घटनाएं हुईं

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ के बस्तर के दंतेवाड़ा से खबर है कि 12वीं क्लास में पढऩे वाले 18 साल के लडक़े और सहपाठी 17 साल की लडक़ी में प्रेम था। घरवालों ने इन्हें एक-दूसरे से बात करने के लिए मना किया और पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा। नतीजा यह हुआ कि बीती सुबह उनकी लाशें मिलीं, उन्होंने खुदकुशी कर ली थी। गांव के लोगों ने इन दोनों का अंतिम संस्कार एक साथ कर दिया है। दोनों एक गांव के थे, बचपन से एक-दूसरे को जानते थे, साथ में खेलते-कूदते बड़े हुए थे, और बरसों से एक-दूसरे को चाहते थे। यह भी खबर है कि दोनों के घरवाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं थे, और ये लडक़े-लडक़ी कुछ और लोगों को ऐसा बोल भी चुके थे कि मरकर तो एक हो सकते हैं। और हुआ भी यही कि दोनों परिवारों ने इनका अंतिम संस्कार एक चीता पर किया। 

इसके साथ ही एक दूसरी खबर यह है कि भाटापारा कॉलेज से पढ़ाई करके लौटते हुए एक छात्र-छात्रा ने शिवनाथ नदी के पुल पर से बहती नदी में छलांग लगा दी, और इन दिनों नदी में जितना पानी है, जैसा बहाव है, उनके भी बचने की उम्मीद नहीं दिख रही है। इस तरह के मामले हर हफ्ते-दो हफ्ते में इसी राज्य में सुनाई दे जाते हैं, और शायद देश में कोई तारीख ऐसी नहीं गुजरती होगी जब कोई प्रेमीजोड़ा खुदकुशी न करे। 

हम इस तकलीफदेह नौबत के बारे में पहले भी कई बार इसी जगह पर लिख चुके हैं कि कुछ लडक़े-लड़कियां बालिग होने के पहले ही प्रेमसंबंधों में पड़ जाते हैं, और जब उन्हें साथ जीने की कोई संभावना नहीं दिखती, तो वे साथ मर जाना तय करते हैं। कुछ तो भारत के महानगरों से परे के तमाम शहर-कस्बों में लडक़े-लड़कियों के मिलने और अपनी शारीरिक-मानसिक जरूरतों को पूरा करने की सामाजिक गुंजाइश बड़ी कम रहती है। उन्हें छुप-छुपकर मिलना पड़ता है, मां-बाप आमतौर पर धर्म और जाति पर अड़ जाते हैं, जाति एक रहने पर कभी गोत्र आड़े आ जाते हैं, तो कभी गरीबी-अमीरी। कुल मिलाकर भारत की नई पीढ़ी की हसरतों और सामाजिक हकीकत के बीच कोई मेल नहीं बैठता है। दुनिया के दूसरे विकसित और सभ्य देशों को देखकर हिन्दुस्तान के लडक़े-लड़कियों के मन में भी प्रेम और देहसंबंध की बात आती है, उन्हें लगता है कि जिंदगी में उन्हें अपनी पसंद के साथी चुनने का हक मिलना चाहिए। दूसरी तरफ उनसे एक पीढ़ी पहले के उनके मां-बाप, अपने से एक पीढ़ी पहले के संयुक्त परिवार के अपने लोगों की सोच और दबाव में नई पीढ़ी को मर्जी की सांस भी लेने देना नहीं चाहते। नतीजा यह होता है कि जो नई पीढ़ी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं रहती, वह अपने भविष्य और अपनी उम्मीदों को एक अंधेरी सुरंग में पाती है, और उसे लगता है कि ऐसे जीने से तो मर जाना बेहतर है। लोगों को याद होगा कि 50 बरस पहले हिन्दी में आई फिल्म बॉबी में इसी तरह के टीनेजर लडक़े-लडक़ी को परिवार मंजूर नहीं करता है, और दोनों जान देने के लिए पहाड़ से नदी में कूद जाते हैं। अभी इस फिल्म के आने की तारीख देखते हुए यह देखकर हैरानी हो रही है कि कुल चार दिन बाद इसकी रिलीज को आधी सदी पूरी हो रही है। और इस आधी सदी में हिन्दुस्तान का हाल जरा भी नहीं बदला है, मां-बाप अभी भी जमींदाराना, सामंती, और शहंशाह अकबरी सोच रखते हैं, और जिस अंदाज में वे बच्चों की कॉलेज की पढ़ाई की ब्रांच तय करते हैं, उसी तरह वे उनके लिए जीवनसाथी तय करना चाहते हैं। 

ऐसा लगता है कि पिछले दो-तीन दशक में पीढिय़ों का यह टकराव कुछ अधिक तेज हुआ है क्योंकि दुपहिया का चलन बढ़ा, मोबाइल फोन आए, सोशल मीडिया पर लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना बढ़ा, और बढ़ते शहरीकरण के साथ बाहर पढऩे-लिखने वाले लडक़े-लड़कियों के मिलने की गुंजाइश बढ़ी। नतीजा यह हुआ कि नई पीढ़ी अपने साथी खुद तय करने लगी, और मां-बाप को ऐसा लगा कि बच्चों के भविष्य तय करने का उनका एकाधिकार छिन गया। हिन्दुस्तान और दुनिया के कई अलग-अलग हिस्सों में हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी जैसी सोच रखने वाले मां-बाप ने मर्जी के खिलाफ जाने वाले बच्चों को मरवाना भी जारी रखा है, और जगह-जगह इसे ऑनरकिलिंग कहा जाता है, जाने किस तरह का ऑनर (सम्मान) है यह? बहुत सी जगहों पर तो दूसरे धर्म में शादी करने वाली लड़कियों को उनके मां-बाप किसी भी कीमत पर शादी तुड़ाकर भी वापिस लाना चाहते हैं, फिर चाहे उसके बाद ऐसे विवाद की वजह से उन्हें अपनी लडक़ी की शादी किसी कम काबिल स्वजातीय से ही क्यों न करनी पड़े। 

यह देश कई तरह के विरोधाभासों से भरा हुआ है। यहां पर लोग एक साथ कई सदियों में जीते हैं। एक तरफ तो वे हिन्दुस्तान से बाहर जाकर लगातार कामयाबी पाने वाले लोगों की तारीफ करते नहीं थकते, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को अपना दामाद कहते नहीं थकते, यह एक अलग बात है कि ऋषि सुनक की शादी अंतरजातीय विवाह थी, और दक्षिण भारत के नारायण मूर्ति की बेटी अक्षरा से उनकी शादी हुई थी। लेकिन गर्व करने के लिए हिन्दुस्तानी हमेशा तैयार रहते हैं, वहां पर धर्म और जाति इसलिए आड़े नहीं आते कि वह दूसरों के परिवार की बात रहती है, लेकिन जब अपने बच्चों की बात आती है, तो वे ऑनरकिलिंग पर उतर आते हैं। जिस तरह कुछ नौबतों के बारे में यह कहा जाता है कि लगता है कि पूरे कुएं में भांग घोल दी गई है, और पूरा गांव नशे में झूम रहा है, ठीक उसी तरह हिन्दुस्तानी मां-बाप मुगल-ए-आजम के वक्त में जीते हैं, और अपने शहजादे या शहजादी पर राज करना चाहते हैं। नतीजा यह होता है कि जो नई पीढ़ी ऐसी मुगलिया सल्तनत की गुलाम बनना नहीं चाहती है, वह खुद होकर अपने को दीवार में चुन लेती है। यह नौबत हिन्दुस्तान में कैसे बदल सकती है इसका कोई आसान तरीका हमारे पास नहीं है। लेकिन समाज के जिम्मेदार लोगों को अलग-अलग सामाजिक मंचों पर इस बारे में बात जरूर करना चाहिए क्योंकि जो प्रेमीजोड़े खुदकुशी नहीं कर रहे हैं, वे भी जिस तरह की कुंठाओं में जीते होंगे, वह आसान जिंदगी तो नहीं रहती, और वैसी जिंदगी में समाज और दुनिया को उनका वह योगदान नहीं मिल सकता जो कि एक खुशहाल दिल-दिमाग से मिल सकता है। भारत में जाति व्यवस्था को तेजी से तोडऩे की जरूरत है, धर्मों के बीच नफरत खत्म करने की जरूरत है, मर्जी से शादी करने वाले बालिग लोगों के लिए एक सुरक्षित कानूनी वातावरण मुहैया कराना जरूरी है, और पारिवारिक या सामाजिक तनाव खड़ा होने पर आसपास के लोगों को दखल देने की हिम्मत होना जरूरी है। इतनी तमाम उम्मीदें कई चंद्रयानों को चांद तक पहुंचा सकती है, लेकिन हम यह चर्चा करना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, और तकलीफ की बात यह है कि हर कुछ हफ्तों में ऐसी नौबत आती है कि हम इस कॉलम में, या हमारे यूट्यूब चैनल पर हम इस बारे में बोलने को मजबूर होते हैं। फिल्म बॉबी की आधी सदी के इस मौके पर कल ही ऐसी दो घटनाएं हुई हैं, और देश को अपनी इस आधी सदी के मानसिक विकास के बारे में सोचना चाहिए। 
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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