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देव रतूड़ी उत्तराखंड के गाँव से निकल कर कैसे चीन में बने स्टार
25-Sep-2023 1:16 PM
देव रतूड़ी उत्तराखंड के गाँव से निकल कर कैसे चीन में बने स्टार

आसिफ़ अली

“बी वाटर माय फ़्रेंड” यानी आप पानी की तरह बनों. ख़ुद को इतना लचीला बनाओ कि हर हालात और माहौल में ढल सको.

इस डायलॉग को कहते हुए देव रतूड़ी ने कहते हैं, “मेरी ज़िंदगी का यू टर्न ब्रूस ली के इसी डॉयलाग के कारण आया. दूसरा बदलाव ब्रूस ली के जीवन पर आधारित फ़िल्म ड्रेगन को देखकर आया. मैंने ब्रूस ली को देखकर मार्शल आर्ट सीखा था, वो कला आज मेरे काम आ रही है. मेरी फ़िल्मों में बहुत सारा एक्शन होता है, तो उस कला को मैं वहाँ इस्तेमाल करता हूँ.”

यह कहानी उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के केमरिया सौर गांव के 46 वर्षीय “द्वारिका प्रसाद रतूड़ी” की है. जिन्हें आज दुनिया “देव रतूड़ी” के नाम से जानती है.

साल 1998 में मुंबई में एक बार जब देव रतूड़ी को कैमरे का सामना करने का मौक़ा मिला तो वे एकदम नर्वस हो गए थे.

तब उन्हें इस बात का क़तई अंदाजा नहीं था कि वह एक दिन न केवल चीनी फ़िल्म उद्योग में इतनी शोहरत बटोरेंगे और इतने कामयाब हो जाएंगे कि वहाँ के स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में उनका ज़िक्र होगा.

देव रतूड़ी के संघर्ष की कहानी उनकी ज़ुबानी

देव रतूड़ी बताते हैं, “यह आठवीं क्लास की बात है, जब परिवार के आर्थिक हालात इतने ख़राब थे कि मैं नंगे पाँव स्कूल जाता था. उस समय परिवार के पास मेरे गाँव के सरकारी स्कूल की एक रुपए फ़ीस देने के भी पैसे नहीं होते थे.”

वो कहते हैं, “ज़्यादातर तो ऐसा भी होता था कि, जब मैं स्कूल से घर वापस लौटता था तो घर में खाने तक के लिए भी कुछ नहीं होता था. हम पाँच भाई और बहन थे, पिता जो काम करते थे, उस वक़्त उससे परिवार का गुज़ारा करना मुश्किल था. जिस कारण मैं दसवीं कक्षा के आगे की पढ़ाई चाह कर भी नहीं कर पाया.”

उन्होंने बताया, “बुरे हालात की वजह से मैं 1991 दसवीं करके कुछ काम करने के लिए दिल्ली पहुँचा. दिल्ली के कापसेहड़ा गाँव में मैंने दूध की डेयरी में 350 रूपये महीना की सैलरी पर नौकरी की. यह नौकरी मुझे दिल्ली में रहकर काम करने वाले चाचा की सिफ़ारिश पर मिली थी.”

वो बताते हैं, “यहाँ मैं कापसेहड़ा और आस पास के गाँवों में साइकिल पर दूध बेचा करता था. उस वक़्त बस यह ख़ुशी थी कि मुझे काम मिलने के साथ साथ साइकिल चलाना आ गया.”

यहाँ उन्हें काम करते हुए क़रीब एक साल हो था. इसके बाद कापसेहड़ा में उन्होंने एक बिल्डर के यहाँ अपनी दूसरी नौकरी की.

वो बताते हैं, "जहाँ मैं कभी उनकी गाड़ी साफ़ करता और कभी गाड़ी चलाता था. यहाँ मेरी 500 रुपये तनख़्वाह थी. मैंने साल 1993 से लेकर साल 2004 तक उनके साथ 11 साल बिताए."

कभी-कभी तीखे रवैये के चलते उनसे नाराज़गी भी हो जाती थी.

अपने जीवन के टर्निंग प्वाइंट के बारे बताते हैं, "एक बार साल 1998 में मेरी उनसे नाराज़गी हुई तो मैंने उनसे यह कहकर चला गया कि मैं हीरो बनने जा रहा हूँ."

उत्तराखंड के गांव में अपने परिवार के साथ.

कैसे मुंबई पहुँचे देव रतूड़ी

देव ने बताया, “उस वक़्त ब्रूस ली की फ़िल्में देखने का मुझ पर जुनून सवार रहता था. शायद ही ब्रूस ली कोई फ़िल्म ऐसी होगी जो मैंने नहीं देखी होगी.”

वो कहते हैं, “मैंने ब्रूस ली की सबसे पहली फ़िल्म एंटर द ड्रेगन देखी थी. ब्रूस ली की फ़िल्में देखकर मुझे मार्शल आर्ट का शौक़ चढा. दूसरी फ़़िल्म डब्ड होती थी जिसके कारण उसमें बोली जाने वाली अंग्रेज़ी साफ़ और धीरे बोली जाती थी, जो मेरे लिए अंग्रेज़ी सीखने का अच्छा ज़रिया था. नीचे लिखे सब टाइटल्स को पढ़कर अंग्रेज़ी सीखा करता था.”

वो बताते हैं, “ब्रूस ली के जीवन पर आधारित फ़िल्म ड्रेगन को देखकर मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ था. इसमें ब्रूस ली के हॉन्ग कॉन्ग से अमेरिका जाने से लेकर उसके सभी स्ट्रगल को दर्शाया गया है. जिसको देखकर मुझे लगा कि जब यह आदमी कर सकता है, तो मैं भी कर सकता हूँ.”

उन्होंने बताया, “ यह फ़िल्म देखकर मुझ पर भूत सवार हो गया और मैं हीरो बनने मुंबई के लिए निकल पड़ा. एक साल तक मैंने वहाँ मार्शल आर्ट सीखा."

"साल 1998 में एक बार “पुनीत इस्सर” (टीवी धारावाहिक महाभारत में दुर्योधन) हिंदुस्तानी नामक टीवी धारावाहिक डायरेक्ट कर रहे थे, तो उन्होंने मुझे कैमरे के सामने एक छोटा डायलॉग बोलने को कहा.”

वो कहते हैं, “मैंने डायलॉग याद किया, मगर लाइट और कैमरा चेहरे पर पड़ते ही, मैं सबकुछ भूल गया और कुछ नहीं बोल पाया. उस दिन मैं बहुत मायूस था."

"इसके कुछ दिन बाद फिर मैं दिल्ली वापस लौट आया. मैं अपने फ़िल्मी इरादों में तो फ़ेल हो गया था, मगर मुंबई में मैंने रहते हए मार्शल आर्ट में निपुणता हासिल कर ली थी.”

दिल्ली में वेटर की नौकरी से लेकर चीन तक का सफ़र

वो कहते हैं, "दिल्ली वापस लौटने के बाद मुझे साल 2004 में मुझे एक हरियाणवी फ़िल्म “छन्नो द ग्रेट” में काम करने का मौक़ा मिला, इसमें मेरा क़रीब छह मिनट का एक्शन रोल था."

वो बताते हैं, "मगर मेरे दिमाग़ से “ब्रूस ली” का नाम उतर ही नहीं पा रहा था. हर वक़्त मेरे दिमाग़ में एक सोच चलती रहती थी कि मैं किस तरह से ब्रूस ली की धरती पर पहुँच पाऊँगा. मैं वहां मार्शल आर्ट्स सीखने जाना चाहता था. उस वक़्त मेरे दिमाग़ में एक ग़लतफ़हमी सवार थी कि सभी चाइनीज़ लोगों को मार्शल आर्ट आती है."

देव कहते हैं, "लेकिन मेरे सामने अब सबसे बड़ी समस्या यह थी कि चीन जाने के लिए पैसे कहाँ से लाऊँ. मैं इसी पसोपेश में था कि तभी मेरे एक दोस्त ने बताया कि चीन में उसके जानकार का रेस्टोरेंट है और मुझे वहां नौकरी मिल सकती है."

"मालिक ने जब मुझसे पूछा कि काम आता है, तो मैंने कहा कि काम तो नहीं आता, मगर मैं सीख लूँगा, बस आप मौक़ा दो. तब उन्होंने मुझे सलाह दी कि तुम किसी रेस्टोरेंट में तीन या चार महीने काम कर लो. जिसके बाद मैंने दिल्ली में एक रेस्टोरेंट में क़रीब पाँच हज़ार रुपये महीने की तनख़्वाह पर वेटर की नौकरी की."

वो कहते हैं, "तीन महीने दिल्ली में काम करने के बाद चाइना के रेस्टोरेंट मालिक ने मेरा वीज़ा लगवाया और 2005 में, मैं चाइना पहुँच गया. हालांकि चीन आने से पहले मेरे कुछ दोस्तों ने मुझे समझाया भी था कि, अब तू यहाँ जम गया है, वहां जाकर क्या करेगा. लेकिन मेरे ज़हन में चीन जाकर मार्शल आर्ट सीखना बसा था."

जब पहुँचे हॉन्ग कॉन्ग

वो कहते हैं, "जब मैं हॉन्ग कॉन्ग पहुँचा तो वहाँ बड़ी ऊँची इमारतें और सड़कें देखकर मेरी आँखें खुली की खुली तह गईं. वहाँ से तेज़ गति से चलने वाली मेट्रो में बैठ कर शंजन पहुँचा. जहाँ मैंने एक पंजाबी रेस्टोरेंट में काम करना शुरू किया. यहाँ मैंने क़रीब डेढ़ साल काम किया.”

“इस दौरान मैं सभी को पूछता था कि मुझे मार्शल आर्ट सिखाओ, तो वो मुझसे बोलते थे कि तुम हमको योगा सिखाओ. मैं उनको जवाब देता, मुझे योगा तो नहीं आता, तो वो लोग मुझसे बोलते जिस तरह से तुमको योगा नहीं आता, वैसे ही हमको मार्शल आर्ट नहीं आता. लंबे अरसे बाद मेरी ग़लतफ़हमी दूर हुई कि चाइना में हर किसी को मार्शल आर्ट नहीं आता.”

“क़रीब दो साल बाद पंजाबी रेस्टोरेंट में काम करने के बाद मुझे बीजिंग में जर्मन रेस्टोरेंट में नौकरी मिली. इसके बाद मैंने साल 2010 में बीजिंग में ही एक अमेरिकन रेस्टोरेंट में जनरल मैनेजर पोस्ट पर काम किया. मैं ठीक ठाक पैसे कमाने लगा था इसलिए मैंने रेस्टोरेंट को ही अपना प्रोफेशन बनाना तय कर लिया.

"चीन में लोगों को भारतीय खाने के बारे में जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने यहाँ कल्चरल थीम पर रेस्टोरेंट चलाने का सोचा और 2013 में शिजआन शहर मैंने अपना पहला रेस्टोरेंट रेड फ़ोर्ट नाम से खोला."

रेड फ़ोर्ट रेस्टोरेंट सभी को बहुत पसंद आया और वो अच्छी तरह चल पड़ा. दो साल के भीतर मैंने छह रेस्टोरेंट खोल लिए.

फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत

देव रतूड़ी बताते हैं, "साल 2015 में मेरे रेस्टोरेंट में एक फ़िल्म डायरेक्टर मिस्टर “थान” आए. उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे यहाँ एक छोटा सा शूट करना है और आपको भी उसने एक छोटा किरदार निभाना है."

"इसमें मुझे फ़िल्म के हीरो को गेट से लाकर टेबल पर बिठाना है और उसे हिंदुस्तानी खाने के बारे में बताना होता है. तब मुझे 1998 दे दौरान का वो दिन याद आया जब कैमरा देखकर मेरे पैर काँप गए थे, मगर आज मेरे सामने एक बार फिर मौक़ा था, मैंने तब सोचा “देव” आज नहीं तो फिर कभी नहीं.”

"जब वो सीन शूट किया गया, तो मैंने अपना किरदार बख़ूबी निभा दिया. यह एक ऑनलाइन फ़िल्म थी, जिसका नाम SWAT था."

वो बताते हैं, "इस फ़िल्म को देख कर एक दूसरे डायरेक्टर ने अपनी फ़िल्म में मेन लीड गैंगस्टर का रोल दिया. दूसरी फ़िल्म बहुत अच्छी चली और इसके बाद मुझे फ़िल्में मिलती गईं."

"अब तक 35 से ज़्यादा फ़िल्म और ड्रामों में काम कर चुका हूँ. जबकि चीन में कुल 11 रेस्टोरेंट भी चलाता हूं, जिनमें 8 इंडियन और 3 चाइनीज़ हैं."

पाठ्य पुस्तक में देव पर एक अध्याय

एक बार एक स्कूल से बहुत से बच्चे उनसे मिलने आए, जिनमें उनके चाइनीज़ दोस्त की बेटी भी शामिल थी.

उन बच्चों ने बताया कि उनकी 7वीं कक्षा की अंग्रेज़ी की बुक में देव रतूड़ी की स्टोरी पढ़ाई जाती है. दोस्त की बेटी ने तब उनसे कहा, “अंकल इन सब बच्चों को यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं आपको जानती हूँ, इसलिए मैं इनको यहाँ लेकर आई हूँ.”

वो कहते हैं, "पाठ्य पुस्तक में मुझे 2018 में शामिल किया गया था, उसमें मेरे चीन आने और कामयाब होने के बारे में बताया गया है. मेरे लिए यह सबसे बड़ा अचीवमेंट है. हालाँकि मैं कभी पढ़ाई के लिए कॉलेज नहीं गया, मगर आज चीन में मुझे बच्चों को प्रेरणा देने के लिए बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटिज बुलाती हैं. चीन में कई अवॉर्ड भी मिले हैं."

"मैं उत्तराखंड में मौजूद अपने गाँव केमरिया सौर का पहला व्यक्ति हूँ, जिसका पासपोर्ट बना और जो विदेश गया. मैं उत्तराखंड से क़रीब 150 लोगों को चीन बुला चुका हूँ. जिनमें से क़रीब 50 लोग तो मेरी ख़ुद की कम्पनी यानी रेस्तरां में काम कर रहे हैं. मेरे गाँव के ज़्यादातर लोग आज चीन में हैं."

"मेरे मन में हमेशा एक मलाल रहता है कि मजबूरियों के कारण मैं अपनी पढ़ाईं नहीं कर पाया. इसीलिए एक रतूड़ी फ़ाउंडेशन भी बनाया हुआ है जो उत्तराखंड, ख़ासकर मेरे इलाक़े के स्कूली बच्चों की मदद करता है."

 

क्या कहते हैं देव रतूड़ी के पुराने दोस्त

देव के पिछले क़रीब 23 साल पुराने दोस्त महावीर रावत ने बताया कि, “साल 2000 में हम दोनों की दोस्ती हुई थी. तब वो एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में काम करते थे. उस समय मैंने उनका जुनून देखा था. तब मुझे लगा था कि यह इंसान साधारण नहीं हो सकता.”

वो कहते हैं, “देव ने अपने जीवन में बहुत कठिनाइयाँ झेली हैं और आज भी कहीं न कहीं कठिनाइयाँ झेलते हैं. ऐसा नहीं है कि अगर वो आज एक कामयाब शख़्स हो तो उसके पास कोई कठिनाई नहीं होगी. मगर देव का हौसला इतना बुलंद है कि वो सभी चुनौतियों का डटकर मुक़ाबला कर लेते हैं. वो वाक़ई सुपर ह्यूमन है.”

वो कहते हैं, “हम दोनों ने दो साल चीन में साथ में रेस्टोरेंट में भी काम किया है. किसी ज़माने मैं देव को गाइड किया करता था, मगर आज देव मुझे गाइड करते हैं. आज मुझे देव को देखकर बहुत ख़ुशी होती है.”

देव के बचपन के दोस्त रमेश पेन्यूली पंजाब में रहते हैं.

रमेश ने बताया कि वो देव के बचपन के दोस्त हैं. देव के दिल्ली जाने के बाद वो भी दिल्ली चले गए थे और साथ में क़रीब 7 महीने वक़्त गुज़ारा.

देव ने उन्हें भी चीन बुलाया था मगर पारिवारिक कारणों के चलते वो वहाँ नहीं जा पाए. (bbc.com)

 

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