संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...बाजार के खानपान में सेहत के लिए कई खतरे
27-Sep-2023 4:41 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   ...बाजार के खानपान में सेहत के लिए कई खतरे

इन दिनों हिन्दुस्तान के गांव-गांव, और घर-घर तक पहुंचने वाले पैकेट बंद खाने के सामान में नमक, शक्कर, और घी-तेल की मात्रा निर्धारित मात्रा से बहुत अधिक पाई गई है। इस मामले में काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन न्यूट्रीशन एडवोकेसी इन पब्लिक इंट्रेस ने ऐसे कई दर्जन अलग-अलग पैकेट-फूड का रासायनिक विश्लेषण किया जिनमें से एक तिहाई में ये सारी चीजें निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा निकलीं। हिन्दुस्तान वैसे भी सेहत के लिए निर्धारित नमक की अधिकतम सीमा से अधिक खाता है, और उसके बाद इस तरह के पैकेट वाले खानों से लोगों की सेहत को खतरा पहुंचाने की हद तक ये चीजें बढ़ जा रही हैं। एक समय था जब हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब-तम्बाकू के इश्तहार भी छपते थे। बाद में उन्हें सेहत के लिए नुकसानदेह मानकर बंद किया गया। पहले सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीने की मनाही भी नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी, उस पर भी रोक लगी। आज वक्त आ गया है कि खानपान के सामानों को लेकर सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि बच्चों से लेकर बड़ों तक उनका इस्तेमाल न बढ़े। 

आज भारत में खानपान के नियम बनाने वाली सरकारी संस्थाएं, या सरकारी विभाग न सिर्फ लापरवाह हैं, बल्कि ऐसी आशंका भी रहती है कि वे कारोबारी दुनिया की रिश्वत के दबाव में नियमों को कभी भी पर्याप्त कड़ा नहीं बनाते, और न ही उसे लागू करते। खानपान के पैकेट, डिब्बे, और बोतलों पर स्वास्थ्य से संबंधित चेतावनी न तो पर्याप्त प्रमुखता से रहती है, न ही वह स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा में रहती है। उसे इस तरह दबाकर, छुपाकर, छोटे अक्षरों में, कहीं पीछे, नीचे डाल दिया जाता है कि उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। बार-बार यह बात उठती है कि कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल में कितने चम्मच शक्कर रहती है, और किस उम्र या वजन के व्यक्ति को एक दिन में अधिकतम कितनी शक्कर लेनी चाहिए। ऐसी किसी चेतावनी के बिना बोतलबंद तरह-तरह के ड्रिंक बाजार में बिकते हैं, और हर पीढ़ी के लोग उसके आदी हो चुके हैं। जो अंतरराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के दूसरे देशों में वहां की कानूनी जागरूकता के चलते अपने ऐसे ही सामानों पर कानूनी चेतावनी, सेहत के बारे में खतरे साफ-साफ छापती हैं, वे हिन्दुस्तान में इससे कतराती हैं, और भ्रष्ट सरकारी विभागों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता। सेहत के लिए अधिक जागरूक देश बरसों से जो करते आ रहे हैं, वह भी हिन्दुस्तानी अफसरों को नहीं दिखता। यहां तो लंबे समय तक सिगरेट कंपनियां इसी बात पर सरकार से उलझती रहीं कि सिगरेट से कैंसर होने के खतरे की चेतावनी पैकेट पर न छापी जाए, या जब छापी भी गई तो वह कितनी छोटी छापी जाए। नतीजा यह है कि आज हिन्दुस्तान में तम्बाकू से होने वाले मुंह के कैंसर के आंकड़े लाखों में पहुंचे हुए हैं, और सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि यह पुरूषों में सभी तरह के कैंसरों में सबसे अधिक जिम्मेदार है, और करीब 12 फीसदी कैंसर मरीज मुंह के कैंसर के ही हैं। मुंह का कैंसर पांच बरस की जिंदगी ही छोड़ता है। लेकिन सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी छापने में कंपनियों ने बरसों तक अड़ंगे लगाए थे। 

आज हिन्दुस्तान में मजदूरों के बच्चों के हाथ भी तरह-तरह के चिप्स और दूसरे खानपान के पैकेट दिखते हैं। मां-बाप के पास पकाने का वक्त नहीं रहता, तो भूखे बच्चों के लिए आसपास की दुकान में टंगे पैकेट में से ही कुछ ला दिया जाता है। नतीजा यह होता है कि जरा-जरा से बच्चे कई तरह के पैकेट के आदी होते जा रहे हैं, घर के बाहर निकलते ही वे इन्हीं चीजों की जिद करने लगते हैं, और अधिक नमक-शक्कर, तेल-घी, और स्वाद के लिए डाले गए तरह-तरह के केमिकल्स की आदत उन्हें पडऩे लगती है। भारत में सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार में भी अब लोगों को इन चीजों को पेश करने की आदत पडऩे लगी है, और मेहमानों के साथ-साथ खुद भी इन्हें खाते हुए लोगों की रोजाना की इन चीजों की खपत बढ़ती जा रही है। यह सिलसिला देश की सेहत के लिए खतरनाक है क्योंकि भारत को दुनिया की डायबिटीज की राजधानी भी कहा जाने लगा है। 

देश में आज ऐसे गैरसरकारी संगठनों को बढ़ावा देने की जरूरत है जो कि सरकार और कारोबार की इस मिलीजुली साजिश के खिलाफ वैज्ञानिक तथ्यों को लोगों के सामने रखते हैं। इनसे विश्वसनीय और वैज्ञानिक जानकारी लेकर समाज के अलग-अलग किस्म के संगठनों को भी अपने लोगों के सामने इन बातों को उठाना चाहिए, और धीरे-धीरे लोगों तक जागरूकता पहुंच सकती है। आज सोशल मीडिया और यूट्यूब, मैसेंजर सर्विसों और मैसेंजर-चैनलों के युग में यह आसान भी है कि कोई सामाजिक संगठन जागरूकता की ऐसी छोटी-छोटी फिल्में बनाएं, या पावर पाइंट प्रेजेंटेशन तैयार करें, और उन्हें चारों तरफ फैलाएं। इनका पूरी तरह वैज्ञानिक तथ्यों पर होना इसलिए जरूरी रहेगा कि ऐसी जागरूकता के खिलाफ बाजार की ताकतें अदालतों तक दौड़ लगा सकती हैं। इसीलिए हम वैज्ञानिक अनुसंधान पर काम करने वाली प्रतिष्ठित संस्थाओं से जानकारी लेने की बात कर रहे हैं। 

सरकारों को भी चाहिए कि आज वे जिस तरह जनता के इलाज के लिए उन्हें मुफ्त इलाज-बीमा दे रही हैं, उन्हें इसके साथ-साथ लोगों को सेहतमंद रहने के लिए जागरूक भी करना चाहिए। सरकार को अपनी तमाम संचार-ताकत का इस्तेमाल करके लोगों तक उनके समझ आने लायक भाषा में खानपान से सेहत को होने वाले खतरे की बात पहुंचानी चाहिए। आज बाजार में खाने-पीने के चीजों का जिस आक्रामक तरीके से हमला हुआ है, उसकी मार से बचना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि अब घरों में भी बाजार से पका-पकाया खाना भी आने लगा है, और स्वाद को चटोरा बनाने के लिए बाजार के खाने में जिस तरह केमिकल्स मिलाए जाते हैं, उससे भी लोगों की आदत बढ़ती चल रही है। हमने यहां पर टुकड़ा-टुकड़ा कई बातों का जिक्र किया है, और इस बारे में लोगों को खुद भी सोचना चाहिए क्योंकि खानपान की गड़बड़ी से होने वाली कई किस्म की बीमारियां लोग अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में भी देते हैं। इसलिए विरासत में सिर्फ मकान-दुकान छोडक़र जाना काफी नहीं है, अगली पीढ़ी को स्वस्थ जींस और डीएनए मिले, यह उससे अधिक जरूरी है। इसकी शुरूआत सेहतमंद खानपान से ही हो सकती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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