संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनाव के वक्त सरकारी और निजी पैसों के ऐसे हिंसक इस्तेमाल को रोकें
01-Oct-2023 6:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  चुनाव के वक्त सरकारी और निजी पैसों के ऐसे हिंसक इस्तेमाल को रोकें

photo : twitter

केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अभी कहा है कि वे आने वाले लोकसभा चुनाव में न तो पोस्टर-बैनर लगवाएंगे, न किसी को चाय पिलाएंगे, जिसे वोट देना है दे, जिसे न देना है वो न दें। उन्होंने कहा कि वे चुनावों में रिश्वत नहीं लेते, और न किसी को कुछ देते हैं। उन्होंने पहले एक वक्त यह भी कहा था कि वोटर खाता सबका है, लेकिन वोट उसी को देता है जिसे देना होता है। उन्होंने बताया था कि एक बार उन्होंने एक-एक किलो मटन बांटा था, लेकिन चुनाव हार गए थे। आज की इस खबर पर सोचने की जरूरत इसलिए है कि आज देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव काले बादलों की तरह मंडरा रहे हैं। सरकारी स्तर पर योजनाओं और कार्यक्रमों की बौछार चल रही है कि वोटरों के दिल का कोई कोना सूखा न रह जाए। नेताओं के अपने होर्डिंग और पोस्टर जिधर नजर जाए, उधर बदसूरती फैलाते दिख रहे हैं। तमाम संपन्न पार्टियों के वे नेता अपने चेहरों से सडक़ों को पाट दे रहे हैं जो कि अपनी पार्टी की टिकट पाने के लिए उम्मीद से हैं। जाहिर है कि टिकट पाने वाले लोगों का सार्वजनिक जगहों पर हमला इससे कई गुना अधिक होगा। इन दिनों जो चर्चा सुनाई पड़ती है उसके मुताबिक टिकट दिलवाने के लिए पार्टी के कुछ बड़े नेता करोड़ों रूपए उगाही भी कर रहे हैं, और टिकट चाहने वाले लोग उन्हें लाखों रूपए के तोहफे भी दे रहे हैं। कुल मिलाकर माहौल दो नंबर से लेकर दस नंबर तक के पैसों की अश्लील और फूहड़ नुमाइश का होकर रह गया है, और अभी पार्टियों के उम्मीदवार भी आने बाकी हैं, चुनाव प्रचार शुरू होना भी बाकी है। 

नेताओं और उनकी पार्टियों के बीच मचा हुआ यह घमासान बताता है कि जिन्होंने पांच बरस काम किया हो उनमें, और जिन्होंने कुछ न किया हो, उनमें भी हड़बड़ी एक सरीखी है, दोनों ही किस्म के लोग बदहवास हैं क्योंकि बड़ी पार्टी की टिकट और मौत का कोई भरोसा नहीं रहता है कि वह कब किसके ऊपर आकर गिरे। ऐसे में बहुत से नेताओं को यही ठीक लगता है कि मतदान के 15-20 दिन पहले मिलने वाली टिकट के बाद हर पल वे इतना अंधाधुंध खर्च करें कि वोटर उसी के सैलाब में बह जाए। खुद सरकारों की, यानी सत्तारूढ़ पार्टियों की ऐसी ही हड़बड़ी दिख रही है। कई पार्टियां तो अपनी राज्य सरकारों की कामयाबी के कई-कई पन्नों के इश्तहार दूसरे प्रदेशों के अखबारों में छपवा रही हैं मानो वहां से भी वोटर वोट देने आएंगे। और यह सब कुछ जनता के पैसों से हो रहा है। प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपने प्रदेशों में तो बड़े अखबारों को इश्तहारों से पाट चुकी हैं, मानो यह अपने खिलाफ कुछ न छपने की गारंटी सी हो। और इस हड़बड़ी में सरकारों को यह भी नहीं दिख रहा है कि एक पाठक की एक दिन में कामयाबी की कहानियां पढऩे और बर्दाश्त करने की क्षमता कितनी है, किसी एक की जिंदगी में इनके लिए जगह कितनी है। इन सबसे लगता है कि पांच बरस का कार्यकाल सरकारों ने कामयाबी से पूरा नहीं किया है, और आखिरी के एक-दो महीनों की हड़बड़ी कुछ इस तरह की है कि देर रात की आखिरी ट्रेन पकड़ रहे हों। 

यह सिलसिला दो किस्म के पैसों को उजागर करता है। एक तो निजी कालेधन को जिससे कि सडक़ किनारे खम्भों पर पोस्टर और होर्डिंग लगाकर लोगों की नजरों को उनसे ढांक दिया जाता है। दूसरा यह कि किसी एक पार्टी के राज वाले राज्य के सरकारी इश्तहारों के पैसों से दूसरे प्रदेशों में भी इश्तहार दिए जा रहे हैं क्योंकि वहां पार्टी विपक्ष में है, और वहां उस पार्टी के राज वाले प्रदेश की कामयाबी दिखाकर वोटरों को प्रभावित किया जा रहा है। खुद अपने-अपने प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी सरकारों के खर्चों से अंधाधुंध चुनावी प्रचार करने में लगी हैं, और लोकतंत्र में यह सत्ता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इस पर न चुनाव आयोग, न किसी और का कोई काबू है। यह पूरा सिलसिला वोटरों और मीडिया को सत्ता के असर के सैलाब में बहा देने का है। साथ ही इस हड़बड़ी का सुबूत भी है कि पांच बरस के किए-कराए पर सरकार को खुद ही अधिक भरोसा नहीं है, और आज वह जनता के पैसों को इस तरह, इस हद तक झोंक रही है। 

ऐसे में नितिन गडकरी जैसे नेता की बात मायने रखती है कि वे न पोस्टर छपवाएंगे, न लोगों को कुछ खिलाएंगे-पिलाएंगे। कम से कम एक बड़े नेता ने तो ऐसा नैतिक साहस दिखाया है, कि उसके अपने चेहरे को कदम-कदम पर चिपकाने के बजाय काम ऐसा करके दिखाए कि जिसे पूरा देश देखे, जिसकी पूरे देश में तारीफ हो। और जो बात उन्होंने पहले कही थी वह भी एकदम सही है कि वोटर पैसे और सामान तो सबसे ले लेते हैं, लेकिन वोट उसी को देते हैं जिसे देना चाहिए। इस बात को बाकी लोगों को भी याद रखना चाहिए कि अगर आपके काम कामयाब हैं, तो फिर आपको कदम-कदम पर अपने पोस्टर लगाने की जरूरत नहीं है, हर टीवी चैनल पर दिन भर छाए रहने, हर अखबार में अपने कई पन्ने छपवाने की जरूरत नहीं है। लेकिन जहां काम में कमजोरी रहती है, वहां पर फिर लोग अंधाधुंध सहारा ढूंढने लगते हैं, और अभी तो चुनाव कई हफ्ते दूर है, और बदहवासी का यह आलम चारों तरफ छा चुका है। 

केन्द्र और राज्य सरकारों के इश्तहार देने, प्रचार करने की मर्जी पर कोई कानूनी काबू नहीं है। दिल्ली में जब केजरीवाल सरकार ने एक सार्वजनिक योजना में केन्द्र सरकार के साथ राज्य की तरफ से रकम देने से मना कर दिया, तो अभी कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से उसके दिए जा रहे विज्ञापनों का हिसाब मांगा। अब ऐसा लगता है कि चुनाव के वक्त सरकारों के विज्ञापनों के खर्च को लेकर किसी तरह के कोई नियम बनने चाहिए ताकि अखबार और टीवी चैनलों में से जो लोग अपनी आत्मा बेचना न चाहें, वे भी मुकाबले में कहीं टिक सकें। चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग कहने को तो देश भर से बड़े-बड़े अफसरों को खर्च-पर्यवेक्षक बनाकर भेजता है, लेकिन पूरे प्रदेश को पता रहता है कि किस-किस बड़े नेता की सीट पर सीमा से सौ-सौ गुना अधिक खर्च होने जा रहा है। यह खर्च अगर किसी को नहीं दिखता है, तो वह सिर्फ चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक को नहीं दिखता। यह नौबत भी बदलनी चाहिए क्योंकि खर्च की ऐसी सुनामी के सामने किसी ईमानदार उम्मीदवार के पांव नहीं टिक सकते। चुनाव का वक्त लोगों की जुबानी हिंसा का भी रहता है, और इसके साथ-साथ सरकारी पैसों, और निजी कालेधन के हिंसक इस्तेमाल का भी रहता है। इसका क्या इलाज निकाला जा सकता है जनता को भी सोचना चाहिए, क्योंकि चुनाव आयोग तो अब सरकार के किसी विभाग की तरह हो गए हैं, जो कि नेता के मातहत उसकी मर्जी का काम करते हैं। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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