संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेटियों के मामले में इस देश में जारी है पत्थर युग
20-Oct-2023 3:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   बेटियों के मामले में इस देश में जारी है पत्थर युग

edit photo courtesy prabhat khabar

हालांकि चुनावी राज्यों के लोग चुनाव से परे अभी शायद ही कुछ देखने-पढऩे में अधिक दिलचस्पी रखते हों। जिंदगी में राजनीति और चुनाव से परे भी बहुत सी बातों की अहमियत है। कुछ अलग-अलग खबरें मिलकर पिछले दो-तीन दिनों से हमें यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हिन्दुस्तान एक देश के भीतर अलग-अलग संस्कृतियों के कई योरप की तरह है, जहां प्रदेशों से कई गुना अधिक संस्कृतियां हैं। अब मुम्बई की एक खबर है कि वहां प्रेमविवाह करने वाले एक जोड़े का कत्ल कर दिया गया था। एक मुस्लिम लडक़ी ने हिन्दू लडक़े से शादी की थी। लडक़ी के मां-बाप अधिक खफा थे, और यह जोड़ा यूपी के बांदा जिले से आकर मुम्बई में रह रहा था। अब मुम्बई पुलिस ने इस लडक़ी के बाप-भाई, परिवार के दोस्त, और तीन और मुस्लिम नाबालिगों को गिरफ्तार किया है। बाप-भाई ने मुम्बई में एक रिश्तेदार के घर इस बेटी-दामाद को मिलने बुलाया, और उन्हें मारकर लाश ठिकाने लगा दी। दूसरी तरफ एक खबर यह है कि कर्नाटक से खबर है कि एक रोजी-मजदूर की बेटी ने बैंगलोर विश्वविद्यालय से आठ गोल्ड मैडल के साथ केमेस्ट्री में एम.एस.सी. किया है, और तीन नगद पुरस्कार भी जीते हैं। बाप ने हमेशा बेटी को आगे बढ़ाया, और बेटी आसमान पर पहुंच गई। वह बेंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर रहती थी, और रोज बस से कॉलेज आती-जाती थी। बस का सफर वह पढऩे में लगाती थी, और पिता की इस हसरत को पूरा करना चाहती है कि उसे टीचर बनना है। एक दूसरी खबर है कि यूपी के प्रयागराज में एक बहुत व्यस्त न्यूरोसर्जन ने अपनी बेटी का नीट इम्तिहान के लिए हौसला बढ़ाने को खुद भी 30 साल बाद मेडिकल दाखिले का इम्तिहान दिया, और उन्हें 89 फीसदी और बेटी को 90 फीसदी नंबर मिले। लेकिन आज हम जिस मामले को लेकर यहां लिखना शुरू कर रहे हैं, वह बिल्कुल ही अलग मामला है। झारखंड में एक पिता ने बेटी की शादी धूमधाम से की थी, और जब उन्हें पता लगा कि दामाद पहले से दो-दो शादियां किया हुआ था, अपनी इस तीसरी बीवी के साथ रहता नहीं था, और उसके साथ बुरा सुलूक करता था, तो पिता बैंडबाजा बारात लेकर बेटी के ससुराल पहुंचे, और अपनी बेटी को धूमधाम से अपने घर लेकर आए। 

ये सारी ही खबरें पिछले तीन दिनों की हैं, और हिन्दुस्तान की ही हैं। इनसे पता लगता है कि यह देश किस तरह धर्म, जाति, और मां-बाप की निजी पसंद या परहेज से बंधा हुआ देश है, कहां तो एक मजदूर बाप अपनी बेटी को एम.एस.सी. तक पहुंचाता है, जिसका गला गोल्ड मैडलों से भर जाता है, और कहां दूसरा बूढ़ा बाप बेटी के दूसरे धर्म में शादी करने पर अपने कुनबे के साथ मिलकर उसका गला काट देता है, और बाकी पूरी जिंदगी जेल में गुजारने को तैयार रहता है। यह हैरानी होती है कि किसी लडक़ी के आगे बढऩे की संभावनाएं किस हद तक उसके परिवार से मिले हौसले पर टिकी रहती हैं, और खासकर भारतीय समाज में मुखिया माने जाने वाले बाप के रूख पर बेटी का भविष्य कुछ या अधिक हद तक निर्भर करता ही है। ऐसा लगता है कि आगे बढऩे वाली बहुत सी लड़कियां बाप की वजह से आगे बढ़ती हैं, या फिर बाप के बावजूद आगे बढ़ जाती हैं। हमने हॉलीवुड के कुछ सबसे मशहूर और कामयाब फिल्म अभिनेताओं की तस्वीरें देखी हैं कि किस तरह वे अपनी बेटियों को अपने चेहरों पर अंधाधुंध पेंटिंग करने देते हैं, नेलपॉलिश लगाने देते हैं। ऐसे भी पिता देखे हैं जो बच्चों को कैंसर हो जाने पर उनके गिर गए बालों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए खुद भी सिर मुंडाकर रखते हैं। हिन्दुस्तान में भी ऐसी कमी नहीं है, और बनिया समुदाय का एक बाप जिस तरह झारखंड में बारात ले जाकर बैंडबाजे के साथ अपनी बेटी को ससुराल की प्रताडऩा से निकालकर लाता है, वह देखने लायक बात है, उससे सीखने लायक बात है। 

सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसे लेकर भारत की एक प्रचलित बात को याद भी दिलाया है कि बेटी को बिदा करते हुए मां-बाप कहते हैं कि डोली तो मायके से उठ रही है, अब अर्थी ससुराल से उठनी चाहिए। इस दकियानूसी और पाखंडी सोच के चलते उस लडक़ी के भाई तो खुश हो सकते हैं कि उन्हें जायदाद में हिस्सा नहीं देना पड़ेगा, या लौटी हुई बहन को पूरी जिंदगी घर में नहीं रखना होगा। लेकिन यह अकेली बात एक लडक़ी को ससुराल नाम की एक हिंसक दुनिया में पूरी तरह अकेला बनाकर छोड़ती है, और बहुत से मामलों में तो वह जवानी में ही पति के घर से अर्थी चढ़ जाती है, हिंसा झेलती है, कभी मारी जाती है, और कभी खुद को मार डालती है। यह सिलसिला हिन्दुस्तानी समाज को हिंसक बनाते चलता है क्योंकि इसमें मान लिया जाता है कि एक बार शादी हो जाने के बाद कोई भी लडक़ी अपने पति और ससुराल के रहमोकरम पर रहती है, उसी के लायक रहती है। मां-बाप की जमीन-जायदाद से परे भी यह सिलसिला मानसिक रूप से एक शादीशुदा लडक़ी को तोड़ देता है, उसे गहरे अवसाद का शिकार बना देता है, और जीने की उसकी चाह खत्म हो जाती है। एक इंसान के रूप में उसकी संभावनाओं को किनारे भी रख दें, तो भी समाज के एक उत्पादक सदस्य के रूप में उसका योगदान शून्य हो जाता है, और वह कुछ मायनों में समाज पर बोझ भी बन सकती है, मानसिक रोगों की शिकार हो सकती है। 

इसलिए झारखंड के एक पिता की यह बहादुर पहल हमें आज खुलकर उसकी तारीफ के लायक लग रही है कि उसने अपनी बेटी की घरवापिसी को भी जश्न की शक्ल दे दी। अपनी बच्ची को प्रताडऩा में मरने के लिए छोड़ देना पारिवारिक जिम्मेदारी से दूर भागने के अलावा और कुछ नहीं होता, ऐसे में धूमधाम से लडक़ी को उसके घर वापिस लाकर इस पिता ने एक मिसाल पेश की है, और इस पर अलग-अलग समाजों में चर्चा भी होनी चाहिए। देश का कोई कानून किसी लडक़ी को मां-बाप की जायदाद में बरसों की अदालती कार्रवाई के बाद हक तो दिला सकता है, लेकिन कोई भी कानून मां-बाप को मजबूर नहीं कर सकता कि वे मुसीबतजदा अपनी बेटी को वापिस घर लेकर आएं। और आज तक प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को कभी ऐसे हौसले की गवाह नहीं रही है कि बेटी को इस तरह वापिस लाया जाए। इसलिए हम इस पारंपरिक रीति-रिवाज के बिल्कुल नए और मौलिक किस्म के इस्तेमाल की तारीफ करते हैं कि इससे समाज के और लोगों को भी एक राह दिखेगी, एक हौसला दिखेगा। 

इस पिता की पहल, कर्नाटक के रोजी-मजदूर का बेटी को आसमान पर पहुंचाना, प्रयागराज के न्यूरोसर्जन पिता का बेटी के साथ इम्तिहान देना, जब इन बातों को हम यूपी से मुम्बई आकर बेटी-दामाद का कत्ल करने वाले कुनबे की खबर के साथ रखकर देखते हैं तो लगता है कि हिन्दुस्तान एक साथ कई सदियों को जी रहा है। कुछ लोग 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं, और कुछ लोग 18वीं सदी में जी रहे हैं। शायद ही कभी इस देश में समाज में बराबरी की, इंसाफ की सोच एक सरीखी बिखर सकेगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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