संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नारायण मूर्ति की आलोचना से परे भी सोचने की जरूरत
27-Oct-2023 3:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नारायण मूर्ति की आलोचना से परे भी सोचने की जरूरत

देश के आईटी सेक्टर के एक बड़े कारोबारी नारायण मूर्ति ने अभी एक दूसरे कारोबारी मोहन दास पई से एक लंबे इंटरव्यू में इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि हिन्दुस्तान के नौजवान कामगार काम कम करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें हर हफ्ते 70 घंटे काम करना चाहिए। इसका मतलब हर दिन औसत 10 घंटे काम करना होता है। इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना भी शुरू हो गई है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह भी होगा, और भारत जैसे देश में जहां पर कि कामगारों को न तो ठीक तनख्वाह मिलती है, न मेहनताना, और न ही काम की जगहों पर कानूनी सहूलियतें मिलतीं। लोगों का यह भी कहना है कि नारायण मूर्ति के तर्क कारोबारियों की भलाई के हैं, और कामगारों का शोषण करने वाले हैं। कुछ और लोगों ने यह मुद्दा भी उठाया है कि हफ्ते में 70 घंटे काम की उम्मीद का मतलब महिलाओं को काम से हटा देना ही है क्योंकि आमतौर पर महिलाएं परिवार का काम करने के बाद नौकरी या रोजगार की जगह पर इतने घंटे काम नहीं कर सकतीं। नारायण मूर्ति का पूरा इंटरव्यू हमने अभी नहीं देखा है, और उन्होंने इसे देश के विकास के साथ जोडक़र कहा है कि नौजवानों को अपने देश के लिए हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए, और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जर्मनी और जापान की मिसालें दी हैं कि किस तरह कुछ बरस तक ये लोग हर दिन कुछ घंटे ज्यादा काम करते रहे। उन्होंने कहा कि जब तक लोग अतिरिक्त कोशिश नहीं करेंगे, तब तक सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि कोई सरकार उतनी ही अच्छी हो सकती है जितनी कि जनता की कार्य-संस्कृति होती है। 

हो सकता है कि नारायण मूर्ति के पूरे इंटरव्यू से कुछ और बातें भी निकलकर आएं, लेकिन हम इसे उनकी कही बातों से परे भी देश की संस्कृति से जोडक़र आज कुछ चर्चा करना चाहते हैं। नारायण मूर्ति की यह बात अगर 70 घंटों को छोड़ दिया जाए, तो यह इस तरह से एक सही सलाह है कि आज हिन्दुस्तान के स्कूल-कॉलेज राजनीतिक नीयत से बढ़ती चली जा रही छुट्टियों के हमले के शिकार हैं। पढ़ाई के दिन साल में घटते चले जा रहे हैं, हर दिन पढ़ाई के घंटे घटते चले जा रहे हैं, और कुल मिलाकर पढ़ाई का माहौल भी खत्म होते चल रहा है, क्योंकि अब बच्चे अलग-अलग तरह के दाखिला-इम्तिहानों को पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दिलचस्पी ज्ञान प्राप्त करने में नहीं रहती है, दाखिला पाने में रहती है। इसलिए कम ज्ञान, और मुकाबले की अधिक तैयारी इन्होंने मिलाकर बच्चों के कुछ सीखने का माहौल खत्म कर दिया है। फिर दूसरी बात यह भी है कि स्कूल और कॉलेज से परे जो वक्त बच्चों के पास रहता है, उस वक्त का मनोरंजन, कुछ सीखने, या आत्मविकास करने जैसे किसी काम के लिए बेहतर इस्तेमाल की सोच हिन्दुस्तान में बहुत कम है। बच्चे हों या बड़े, टीवी के सामने बैठ जाते हैं, या मोबाइल फोन पर उलझे रहते हैं, और बाकी दुनिया की जानकारी तो दूर रही, अपने ही देश के असल सामाजिक सरोकारों को वे छू भी नहीं पाते। कॉलेज से निकलकर लोग बेरोजगार की तरह बरसों गुजार देते हैं, लेकिन अपने आपको अधिक हुनरमंद बनाने, या मौजूदा हुनर को बेहतर करने की सोच बहुत ही कम लोगों में रहती है, और खासकर उत्तर भारत तो ऐसी सोच से अछूता सा लगता है। एक तरफ उत्तर भारत, दूसरी तरफ हिन्दीभाषी बाकी राज्य भी किसी जिम्मेदार सोच से एकदम आजाद लगते हैं। यही वजह रहती है कि दक्षिण के राज्यों के लोग दुनिया के तमाम देशों में छोटे कामगारों से लेकर सबसे बड़ी कंपनी चलाने तक पहुंचे रहते हैं, और उनके मुकाबले अधिक आबादी वाले उत्तर भारत की कोई जगह नहीं रहती। 

हम पल भर के लिए नारायण मूर्ति की बात से असहमत होने को भी तैयार हैं कि इतना ज्यादा काम करके हिन्दुस्तानी कामगारों को कुछ हासिल नहीं होता है। लेकिन दूसरी तरफ यह देखा जाए कि हिन्दुस्तानी कामगार, खासकर नौजवान किस अंदाज में उन सरकारी नौकरियों के लिए मुकाबला करते हैं जिनमें नौकरी की गारंटी रहती है, और कामचोरी की भी, जिनमें रिश्वत की गुंजाइश रहती है, और जिन्हें पूरी जिंदगी तनख्वाह और पेंशन का जुगाड़ माना जाता है। इसके मुकाबले जब निजी नौकरियों की बात करें, तो बहुत से लोग कम तनख्वाह की, कम गारंटी वाली निजी नौकरी करने के बजाय ठलहा बैठना बेहतर समझते हैं। मतलब यह है कि अगर भरपूर तनख्वाह नहीं मिलती है, तो लोग खाली बैठ जाएंगे, लेकिन न कम तनख्वाह का काम करेंगे, और न ही अधिक घंटे काम करेंगे। मालिकों और कंपनियों की तरफ से कर्मचारी का शोषण एक हकीकत है, और यह भी सही है कि मजदूरों के हक बचाने के लिए जो कानून है वे हिन्दुस्तान में बेअसर हैं। लेकिन क्या इन कानूनों पर अमल के बेहतर हो जाने पर लोगों को अधिक मेहनत नहीं करनी चाहिए? और यह मेहनत न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों की बात है, बल्कि बेरोजगारी के दिनों, उसके भी पहले कॉलेज के पढ़ाई के दिनों की बात है, जब कोई मालिक नहीं रहते, और लोग अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, तब भी हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में लोग मेहनत नहीं करते। 

नारायण मूर्ति की बात से देश में कार्य-संस्कृति को जोडक़र देखने की जरूरत है, उनके गिनाए घंटों को लेकर लाठी लेकर उन पर टूट पडऩे से कुछ हासिल नहीं होना है। अधिक और बेहतर काम करना न सिर्फ मालिक, सरकार, या देश के लिए अच्छी बात होगी, बल्कि लोगों को अपने-अपने स्वरोजगार में, अपने व्यक्तित्व विकास में, अपना ज्ञान और समझ बढ़ाने में अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए, जो कि आज हिन्दुस्तान की संस्कृति नहीं है। यह बात जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों में यह संस्कृति है, और वहां के लोग भारत के दाखिला-इम्तिहानों में भी अधिक कामयाब होते हैं, और पूरी दुनिया के खुले बाजार में जाकर वहां भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। उत्तर और दक्षिण का फर्क देखना हो, तो इन आंकड़ों को देखने की जरूरत है जिनमें कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय 2.36 लाख सालाना है, तमिलनाडु में 2.12, केरल में 2.05, आन्ध्र में 1.76, और छत्तीसगढ़-एमपी में 1.04, झारखंड में 0.71, यूपी में 0.61, और बिहार में 0.43 लाख प्रति वर्ष है। इसलिए अगर नारायण मूर्ति ने कुछ कहा है, तो वे देश के कमजोर मजदूर कानूनों के लिए या उन पर कमजोर अमल के लिए जिम्मेदार नहीं है, उसके लिए सरकारें, और उन्हें चुनने वाली जनता भी जिम्मेदार हैं। उनकी बात से यह समझने की जरूरत है कि जिस किसी के लिए यह मुमकिन हो, वे अपनी जवानी के बरसों में अगर अधिक काम करके उसका अधिक भुगतान पा सकते हैं, तो उन्हें उसकी कोशिश करनी चाहिए। नारायण मूर्ति उत्तर भारत में कोई कारखाना नहीं चलाते, बल्कि वे दक्षिण भारत में एक आईटी कंपनी चलाते रहे हैं, और वे मजूदरों के हक अपने कारोबार के हिसाब से ही मानकर यह बात कह रहे हैं। अगर लोगों को लगता है कि बिना काम किए सरकारी नौकरी का इंतजार उनके लिए बेहतर है, तो वे जरूर खाली बैठ सकते हैं, सरकार के पास उन्हें किसी हल में जोतने का कोई कानून तो है नहीं। जिन लोगों को लगता है कि वे अपने नौजवानी के अधिक ताकत के बरस अधिक काम कर सकते हैं, तो वे किसी नौकरी में अधिक कर लें, स्वरोजगार में अधिक कर लें, या कि अपने व्यक्तित्व विकास पर अधिक मेहनत कर लें। वरना ठलहा बैठकर वक्त बर्बाद करना हिन्दुस्तान की मौजूदा संस्कृति तो है ही, और लोकतंत्र में उस पर कोई रोक भी नहीं है। 

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