संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इजराइली हमले थामने के प्रस्ताव पर भारत का अलग रहना हैरान करने वाला है
28-Oct-2023 3:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  इजराइली हमले थामने के प्रस्ताव पर भारत का अलग रहना हैरान करने वाला है

संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजराइल और गाजा के हमास नाम के संगठन के बीच गाजा की जमीन पर चल रही जंग को रोकने के लिए जॉर्डन ने एक प्रस्ताव रखा था, इस पर 120 देशों ने इसका समर्थन किया, 14 इसके खिलाफ थे, और 45 देशों ने मतदान नहीं किया। मतदान न करने वाले देशों में भारत भी एक था। भारत के अलावा पश्चिम के देश, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन, और ब्रिटेन भी मतदान से गैरहाजिर रहे। लेकिन समर्थन करने वाले देशों में बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, रूस, और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश थे। जंग को रोकने के इस प्रस्ताव में बाद में संशोधन भी सुझाया गया जिसमें यह कहा गया कि महासभा 7 अक्टूबर को इजराइल में हुए हमास के आतंकी हमलों और बंधक बनाने को साफ-साफ खारिज करती है, और उसकी निंदा करती है। बंधकों के साथ मानवीय व्यवहार हो, और उनकी तत्काल बिना शर्त रिहाई सुनिश्चित की जाए। इस संशोधन पर 87 लोगों ने मतदान किए, जिनमें भारत भी शामिल था, 55 देशों ने इसके खिलाफ वोट डाला, और 23 देश गैरहाजिर रहे। 

इस पूरे मामले को समझने की जरूरत है कि आज फिलीस्तीन के गाजा पर जिस अंदाज में इजराइली बमबारी चल रही है, और हमास के आतंकियों को मारने के नाम पर नागरिक इलाकों पर बमों और मिसाइलों से हमले किए जा रहे हैं, और तीन हजार से अधिक तो बच्चे ही मारे गए हैं, जिन्हें खुद इजराइल भी हमास के आतंकी नहीं कह सकता। आज इसे दुनिया का सबसे अमानवीय हमला करार दिया जा रहा है, और इजराइल के भीतर और बाकी दुनिया में जगह-जगह बसे हुए यहूदी और इजराइली भी तुरंत रोकने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इजराइल का साथ देने वाले कुछ पश्चिमी देशों के साथ-साथ भारत भी खड़ा हो गया, और उसने जंग रोकने के मूल प्रस्ताव पर वोट नहीं डाला। सदस्य देशों के दो तिहाई से कम लोगों ने ही हमास का नाम जोडऩे के संशोधन का साथ दिया, इसलिए यह संशोधन मंजूर नहीं हुआ, लेकिन भारत इस संशोधन के साथ खड़े रहा। फिलीस्तीन पर गांधी और नेहरू के वक्त से लेकर मोरारजी सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक का जो साफ-साफ रूख था, आज भारत की मोदी सरकार उसके ठीक खिलाफ है। आज इजराइल के साथ भारत के कारोबारी रिश्ते इतने बड़े और इतने मजबूत हैं कि गरीब फिलीस्तीन बेइंसाफी झेल रहा है, लेकिन उसके जायज और ऐतिहासिक हक के लिए भारत मुंह खोलने को भी तैयार नहीं है। हालत यह है कि आज भारत के भीतर अगर कोई पार्टी या कोई पत्रकार फिलीस्तीन पर हो रहे जुल्म और मारे जा रहे हजारों लोगों को बचाने के लिए, और वहां फंसे हुए लाखों लोगों तक मानवीय राहत पहुंचाने के लिए बात करें, तो भी इस देश का एक तबका उसे देश का विरोध करार देने लगता है। लोकतंत्र में सरकार की नीति से असहमति का हक शामिल रहता है, और भारत सरकार की बहुत सी नीतियों से अलग-अलग समय पर देश के कई तबके असहमत रहे हैं, और उसे कभी देश के साथ गद्दारी नहीं माना गया था। 

आज फिलीस्तीन में जितने लोग मारे जा रहे हैं, और एक मुल्क का हक छीना जा रहा है, वह पूरा का पूरा एक मुस्लिम समाज है। आज हिन्दुस्तान के एक तबके को यह सुहा सकता है कि मुस्लिम दुनिया में कहीं भी मारे जाएं। लेकिन सवाल यह उठता है कि आज अगर किसी एक कमजोर मुल्क पर फौजी हमला करके दुनिया की एक बड़ी फौजी ताकत बेइंसाफी कर सकती है, तो फिर कल दुनिया के कुछ दूसरे देश भी अड़ोस-पड़ोस के देशों पर यही कर सकते हैं। इस बार इजराइल और फिलीस्तीन के बीच जंग का मामला फिलीस्तीन के एक हिस्से पर काबिज हमास नाम के एक संगठन के इजराइल पर किए हमले से शुरू हुआ है, लेकिन दुनिया में जंग के लिए जो नियम बने हुए हैं उनमें से हर नियम को कुचलते हुए इजराइल जिस तरह से गाजा पर अनुपातहीन हवाई हमले कर रहा है, नागरिक इलाकों पर बम बरसा रहा है, वह अभूतपूर्व है। इसे किसी आतंकी संगठन पर हमले से होने वाला कोलैटरल डैमेज कहने से काम नहीं चल सकता। कुछ हजार हमास-आतंकियों को मारने के लिए अगर दसियों हजार फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का काम किया जा रहा है, और 20-25 लाख नागरिकों को गाजा खाली करने पर मजबूर किया जा रहा है, तो यह जवाबी फौजी कार्रवाई नहीं है, और यह एक किस्म की गुंडागर्दी है, जिसके पीछे अमरीका की शह भी है। 

हिन्दुस्तान को आज अपने लंबे इतिहास को ध्यान में रखते हुए, और दुनिया में इंसाफ की वकालत करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अधिक सक्रिय भूमिका निभानी थी, उससे भारत चूक गया, या सोच-समझकर दूर रहा। इन दिनों लगातार विदेश नीति के मोर्चे पर भारत को सदमे झेलने पड़ रहे हैं। मालदीव जैसे रणनीतिक महत्व के छोटे से देश ने नई सरकार बनते ही यह कह दिया है कि भारत वहां से अपने हर सैनिक को हटा दे। दूसरी तरफ श्रीलंका के साथ भारत की कुछ तनातनी चल रही है। और इन दोनों ही देशों के पीछे आज चीन की बड़ी मदद है, जाहिर है कि चीन एक किस्म से भारत की रणनीतिक घेरेबंदी कर रहा है। कुछ ऐसा ही भूटान के साथ हो रहा है, और अभी-अभी चीन और भूटान के बरसों से रूके हुए कुछ मामले अभी सुलझे हैं, और यह भी भारत के लिए एक फिक्र की बात हो सकती है। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चीनी सरहद पर भारत किस तरह उस देश का अवैध कब्जा झेल रहा है, और एक बड़ा फौजी तनाव वहां पर लंबे समय से बना हुआ है। एक अलग ही मोर्चे पर मध्य-पूर्व के कतर में अभी-अभी भारत के 8 भूतपूर्व नौसेना-अफसरों को इजराइल के लिए जासूसी करने के लिए मौत की सजा सुनाई गई है। भारत में बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया है कि वे भारत सरकार को इस बारे में कुछ अरसे से कहते आ रहे थे, लेकिन पता नहीं क्यों भारत सरकार कतर सरकार से बात करके इस नौबत को आने से रोक नहीं पाई। यह बात भी बड़ी अजीब है कि भारत के ये भूतपूर्व नौसेना अफसर कतर में इजराइल के लिए जासूसी कर रहे थे, ऐसी नौबत भारत की विदेश नीति की एक चूक या गलती ही साबित करती है। 

भारत में विदेश नीति की अपनी कामयाबी को साबित करने के लिए इस देश में पिछले दिनों बहुत बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय जलसे किए जिन पर हजारों करोड़ खर्च किया गया। लेकिन ऊपर जिन देशों के साथ खराब रिश्तों की बात हमने गिनाई है, उनसे बेहतर संबंध तो बिना किसी लागत के हो सकते थे, लेकिन वे बिगड़ते चल रहे हैं। आखिर में विदेश नीति की एक बड़ी नाकामयाबी को गिनाना जरूरी है कि किस तरह आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में पहली बार कनाडा के साथ भारत के रिश्ते इस हद तक खराब हो गए हैं कि दिल्ली से कनाडा के कूटनीतिक अफसरों की थोक में रवानगी करवा दी गई है। यह याद रखना चाहिए कि कनाडा में लाखों भारतवंशी कामयाब कारोबारी या कामगार हैं, वहां से वे अपनी ढेरों कमाई हिन्दुस्तान भेजते हैं, कनाडा भारत के छात्र-छात्राओं के लिए एक लोकप्रिय जगह है, और वहां पर हिन्दुस्तानियों को काम करने की छूट बड़ी उदारता से मिलती है। खालिस्तान के मुद्दे पर कनाडा सरकार के रूख को लेकर भारत से उसके संबंध अंधाधुंध बिगड़ गए हैं, और पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन सरीखे कुछ बड़े देश इस मुद्दे पर भारत के साथ नहीं दिख रहे हैं कि कनाडाई जमीन पर एक खालिस्तान-समर्थक नेता के कत्ल में भारत का नाम लिया जा रहा है। उन्होंने भारत को सलाह दी है कि वह जांच में कनाडा का सहयोग करे। ये तमाम बातें विदेश नीति के मोर्चे पर चकाचौंध जलसों से परे नाकामयाबी और जटिलता बता रही हैं, और इस बारे में मोदी सरकार को संसद या बाकी दलों को भी भरोसे में लेकर काम करना चाहिए क्योंकि देश की विदेश नीति किसी सरकार के कार्यकाल के बाद भी जारी रहती है, और उसमें बहुत तेज रफ्तार से महज सत्ता की मर्जी से फेरबदल नहीं होना चाहिए।

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