संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : करवा चौथ जैसे सारे बोझ सिर्फ महिलाओं पर क्यों?
01-Nov-2023 4:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : करवा चौथ जैसे सारे बोझ सिर्फ महिलाओं पर क्यों?

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

आज देश के कुछ या कई हिस्सों में करोड़ों हिन्दी महिलाएं करवा चौथ मनाएंगी। वे दिन भर भूखी रहेंगी, और शाम को पति का चेहरा, या चांद देखने के बाद खाएंगी। पति की मंगलकामना के लिए किया जाने वाला यह उपवास बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है, और पत्नी के इसी समर्पण को ध्यान में रखते हुए मर्द बिना हेलमेट दुपहिया चलाते हैं, बिना सीट बेल्ट कार, और उन्हें भरोसा रहता है कि पत्नी के करवा चौथ के बाद अब यमराज उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह तो साल में एक दिन की बात है, हिन्दुओं में साल के कुछ और ऐसे त्यौहार हैं जो महिलाएं पति के लिए करती हैं, या बेटों के लिए। शादीशुदा महिलाएं गले में मंगलसूत्र पहनती हैं, जो कि पति के मंगल की भावना बताता है, इसके अलावा महिलाएं माथे पर बिंदी लगाती हैं, मांग में सिंदूर भरती हैं, कलाईयों पर चूडिय़ां पहनती हैं, पांव की उंगलियों में बिछिया पहनती हैं, और कोई एक ऐसी कहानी भी है कि सावित्री किस तरह सत्यवान को मौत के मुंह से निकाल लाई थी। 

हिन्दुस्तान के हिन्दू धर्म में तमाम कहानियां और रीति-रिवाज पति और पुत्र की भलाई के लिए हैं, और पत्नी या पुत्री की हिफाजत के लिए कोई उपवास नहीं है, कोई रीति-रिवाज नहीं है। और फिर मनुस्मृति में सैकड़ों-हजारों बरस से यह सिखाया हुआ भी है कि किस तरह एक महिला शादी के पहले पिता की आश्रित रहती हैं, शादी के बाद पति की, और पति के चले जाने के बाद पुत्र की आश्रित रहती हैं। एक महिला पर किस-किस तरह का जुल्म किया जा सकता है, इसकी सारी तकनीक मनुस्मृति में खुलासे से बताई गई है, और उपवास के नाम पर महिलाओं को दिन भर भूखा रखना, या निर्जला रखना, उसी पुरूषप्रधान सोच का एक सुबूत है। यह सिलसिला दुनिया की कई दूसरी संस्कृतियों के मुकाबले औरत और मर्द में अधिक बड़ा भेदभाव करने वाला है, और यह कन्या भ्रूण की हत्या से लेकर एक महिला के पति खोने पर उसे विधवा कहकर बाकी जिंदगी उसका तिरस्कार करने तक जारी रहता है। 

करवा चौथ के दिन यह भी समझने की जरूरत है कि घर को चलाने वाली, और बहुत से मामलों में बाहर कमाने वाली, अपने जन्म से परे के ससुराल के लोगों को अपनाने वाली महिला के लंबे जीवन के लिए, उसके कल्याण के लिए न पति कुछ करता, न पुत्र कुछ करता। हिन्दू धर्म में ऐसे कोई रीति-रिवाज नहीं बनाए गए हैं कि दस-बीस साल में एक बार पति भी अपनी पत्नी के लिए उपवास रख ले, या पुत्र मां को वृद्धाश्रम छोडऩे के पहले उसके स्वस्थ जीवन की कामना के लिए कुछ कर ले। पुत्र पर सिर्फ मां-बाप के गुजर जाने के बाद उनके श्राद्ध की जिम्मेदारी आती है जहां कौएं के मार्फत गुजरे हुए मां-बाप को खाना खिला दिया जाता है। इससे परे जीते-जी मां-बाप के लिए आल-औलाद का कोई रिवाज नहीं बनाया गया है। हालत यह है कि हिन्दुस्तान में परिवार के भीतर अंगदान करने वाली 90 फीसदी महिलाएं होती हैं, जो परिवार के पुरूषों को अंगदान करती हैं। अंग पाने वाले लोगों में 10 फीसदी ही महिलाएं होती हैं। और अंगदान करने वाले लोगों में 10 फीसदी ही पुरूष होते हैं। इसलिए धार्मिक रीति-रिवाजों से लेकर, सामाजिक प्रतीकों को ढोने तक का जिम्मा महिलाओं का रहता है, और परिवार के, मायके और ससुराल दोनों तरफ के लोगों को अंगदान का जिम्मा भी उसी का रहता है। घर में बाकी सबके खाना खा लेने के बाद ही खाने का जिम्मा भी उसका रहता है, और कुछ बहुत अधिक तकलीफजदा परिवारों में परिवार चलाने के लिए देह बेचने की मजबूरी भी उसी पर रहती है। 

अब 21वीं सदी भी तकरीबन एक चौथाई गुजर रही है, और ऐसे में लडक़े और लड़कियों में, औरत और मर्द में बराबरी सिर्फ कानून में नहीं, जमीन पर भी होनी चाहिए। जाति और धर्म के जो रीति-रिवाज गैरबराबरी बताते हैं, उनको भी खत्म करने की जरूरत है। मर्द जो चाहे करता रहे, और औरत उसके मंगल की कामना में दुबली होती रहे, यह मानवाधिकार के भी खिलाफ है। समाज में औरत को हक न तो सिर्फ कानून से मिल सकते, और न ही समाज सुधार से। इन दोनों का एक मिलाजुला असर ही महिलाओं की हालत सुधार सकता है। हिन्दुस्तान का इतिहास गवाह है कि सतीप्रथा इसी तरह बंद हो पाई थी, और बालविवाह के नाम पर छोटी-छोटी बच्चियों को ससुराल भेज देने की परंपरा भी ऐसी मिलीजुली कोशिश से काफी कम हुई हैं। करवा चौथ औरत और मद के बीच भेदभाव का एक बड़ा त्यौहार है, इसे खत्म करने की सलाह देना बहुत से लोगों को हिन्दू धर्म पर हमला लग सकता है क्योंकि अधिकतर मर्दों को इसमें कोई बुराई नहीं दिखती है, और अधिकतर औरतें इतना सामाजिक दबाव झेलती हैं कि वे किसी सुधारवादी आंदोलन के बजाय ऐसी परंपराओं को ढो लेना अधिक आसान समझती हैं। चाहे जिस किसी धर्म में हो, जहां कहीं महिलाओं से भेदभाव के रीति-रिवाज हों, उन्हें खत्म करना ही चाहिए। आज अगर परिवारों में बच्चे इस तरह की परंपरा को देखते हुए बड़े होते हैं, तो उनमें से लडक़े इसकी उम्मीद करेंगे, और लड़कियां ऐसा उपवास करने का एक नैतिक दबाव जिंदगी भर झेलेंगी। आज एक तरफ तो महिलाओं की बराबरी के लिए कई तरह की कोशिशें हो रही हैं लेकिन दूसरी तरफ ऐसे पुराने और भेदभाव वाले रीति-रिवाजों को खत्म करने के बारे में बात करना भी लोगों के हमलों को न्यौता देना हो जाएगा। फिलहाल किसी न किसी को तो बुराई मोल लेकर बराबरी की बात करनी ही होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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