संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नक्सलग्रस्त बस्तर दिखा रहा है शहरी छत्तीसगढ़ को राह..
09-Nov-2023 3:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  नक्सलग्रस्त बस्तर दिखा रहा  है शहरी छत्तीसगढ़ को राह..

छत्तीसगढ़ के चुनाव में अभी कुल 20 सीटों पर मतदान हुआ है, और 70 सीटों पर बाकी हैं। दो करोड़ से कुछ अधिक मतदाताओं में से 40 लाख की बारी अभी आई थी, और इन 20 सीटों पर मतदान पिछली बार के मुकाबले अधिक हुआ है, और खासकर बस्तर की 12 सीटों पर मतदान पिछले दो चुनावों से लगातार आगे बढ़ते हुए इस बार रिकॉर्ड वोटों तक पहुंचा है। बस्तर के नक्सल प्रभावित बीजापुर और कोंटा के दो सीटों को अगर छोड़ दें, जहां पर कि 40 और 50 फीसदी वोट डले हैं, तो बस्तर की बाकी सीटों पर तो बहुत अधिक वोट डाले गए हैं। पिछले चुनावों से इन पूरी 20 सीटों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि पिछली बार कवर्धा जिले के मतदान इनके साथ नहीं हुए थे, लेकिन कुल जमा आंकड़ों को देखें तो नक्सल प्रभावित बस्तर सबसे अधिक हौसला बंधाता है कि वहां पर राजनांदगांव और कवर्धा जैसे शहरों के मुकाबले भी खासा अधिक मतदान हुआ है। बस्तर के बाहर के दोनों जिलों से अधिक मतदान वाली सीटें बस्तर में हैं। 

हम आंकड़ों के अधिक जाल में अभी उलझना नहीं चाहते, लेकिन खबरें बताती हैं कि राज्य बनने के बाद से बस्तर में इस बार सबसे अधिक मतदान हुआ है। हमने इस इलाके को बारीकी से देखा है, और इस अखबार के संपादक ने कल कुछ टीवी चैनलों पर बस्तर के मतदान पर अपनी राय रखी भी है। हमारा मानना है कि बस्तर का अधिक मतदान पिछले पांच बरस में वहां नक्सल हिंसा की कमी की वजह से भी हुआ है, और सुरक्षाबलों के बेहतर काबू की वजह से भी। फिर इसके साथ-साथ एक बड़ी बात यह भी है कि प्रशासन और चुनाव आयोग ने करीब सवा सौ गांवों में नए मतदान केन्द्र शुरू किए, जहां कि लोग आजादी के बाद पहली बार अपने गांवों में वोट डाल सके। इसके साथ ही इन आरोपों की जांच भी होना चाहिए कि कुछ इलाकों में जहां पर सीपीआई के समर्थक माने जाते हैं, वहां से मतदान केन्द्र 15-20 किलोमीटर दूर फेंक दिए गए। कुछ गांवों के लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन करते भी दिखे हैं, और सरकार और चुनाव आयोग को अपनी साख को ध्यान में रखते हुए ऐसे आरोपों की जांच करानी चाहिए, और सच्चाई सामने रखनी चाहिए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मतदान के बीच ही यह आरोप लगाया था कि सीआरपीएफ के बंदूकधारी लोगों को वोट डालने जाने से रोक रहे थे, प्रदेश के मुख्यमंत्री की तरफ से इससे गंभीर आरोप भला क्या हो सकता है, और चुनाव आयोग और सीआरपीएफ दोनों को इस आरोप की जांच करनी चाहिए, और तथ्यों को पारदर्शी तरीके से जनता के सामने रखना चाहिए। चुनावों को लोकतंत्र में जितना पवित्र काम बताया जाता है, और मतदान केन्द्रों को लोकतंत्र का मंदिर बताया जाता है, तो लोकतंत्र को पूजने जाने वाले लोगों को अगर रास्ते में रोका गया है, तो यह उनकी लोकतांत्रिक भावना को ठेस पहुंचाने के बराबर बात है जिसे कि धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने से कम नहीं मानना चाहिए। चुनाव आयोग को अपनी कामयाबी के आंकड़ों के साथ-साथ ऐसे आरोपों की जांच करवानी चाहिए, ताकि प्रदेश के बाकी करीब तीन चौथाई वोटरों के मन में चुनाव प्रक्रिया को लेकर एक भरोसा कायम रहे। वैसे भी नक्सल हिंसा वाले बस्तर में जब आदिवासी खतरा उठाकर, जान पर खेलकर, और नक्सलियों के हाथों चुनावी स्याही वाली उंगली कटवाने का खतरा झेलकर वोट डालने जाते हैं, तो उनकी कोशिशों में आई किसी भी तरह की बाधा को खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए। यह बस्तर बाकी प्रदेश और पूरे देश के सामने एक मिसाल है कि वह हर चुनाव में न सिर्फ अधिक मतदान कर रहा है, बल्कि सरकार को बनाने और बिगाडऩे की अपनी ताकत भी साबित कर रहा है। अक्सर ही पूरे बस्तर का मिजाज किसी एक पार्टी के पक्ष में पूरी तरह से झुका हुआ दिखता है, जिससे साफ होता है कि दूर-दूर बसे हुए आदिवासी भी किस तरह एक बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक समझ से बंधे हुए हैं।

इस मौके पर मतदान करवाने वाले लोगों को बधाई भी दी जानी चाहिए जो कि कई जगहों पर तो बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर बैठे थे, और जान का खतरा झेलकर भी यह ड्यूटी कर रहे थे। जब शहरों में लोग चौराहों पर लालबत्ती पर रूकने को भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं, तब जंगलों में लोग लोकतंत्र के लिए जान खतरे पर डालकर एक दिन पहले से कहीं हेलीकॉप्टर से, तो कहीं पैदल गांवों तक पहुंचते हैं। जिम्मेदारी की इस भावना को कम नहीं आंकना चाहिए, और शहरियों को इससे सबक लेना चाहिए, शहरी कर्मचारियों को भी, और शहरी मतदाताओं को भी। शहरों में पोलिंग बूथ आधा-एक किलोमीटर से अधिक दूर नहीं रहते, और अधिकतर लोगों के पास गाडिय़ां रहती हैं, दुपहिए रहते हैं, और बेहतर सडक़ें रहती हैं, जिनमें से बस्तर जंगलों में कुछ भी नसीब नहीं रहता। इसके बाद भी अगर शहर, जंगलों के आदिवासियों से कम वोट डालेंगे, तो वे लोकतंत्र को कमजोर करने के गुनहगार भी रहेंगे। वोट जितने अधिक डलते हैं, पार्टियों और नेताओं के दिल उतने ही अधिक दहलते हैं, और लोकतंत्र उतना ही मजबूत होता है, क्योंकि वह अधिक से अधिक वोटरों का चुना हुआ रहता है। इस जिम्मेदारी और इस हक, दोनों का ही सम्मान तमाम लोगों को करना चाहिए। आज जितने फीसदी वोटों के फासले से कोई सरकार बन जाती है, या कोई पार्टी चूक जाती है, उससे कई गुना अधिक लोग घर बैठे रहते हैं। ऐसे ही आरामतलब और गैरजिम्मेदार लोगों की वजह से कई बार गलत उम्मीदवार और गलत पार्टियां जीत जाते हैं। हम छत्तीसगढ़ के ही 2013 के चुनाव याद दिलाना चाहेंगे जब कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फासला कुल पौन फीसदी था, और उस पौन फीसदी की वजह से भाजपा की दस सीटें बढ़ गई थीं, और उसकी सरकार बन गई थी। अब अगर घर बैठे दो-चार फीसदी लोग वोट डालने और निकल गए होते, और पौन फीसदी का यह फासला मिट गया होता, तो हो सकता है कि प्रदेश में सरकार कोई और बनी होती। इसलिए घर बैठे लोगों को याद रखना चाहिए कि सिर्फ वोट डालने वाले लोग ही सरकार नहीं बनाते और बिगाड़ते हैं, बल्कि घर बैठे लोग भी अनजाने और अनचाहे ऐसा करते हैं। यह हक पांच बरस में एक बार मिलता है, और यह बेहतर जनप्रतिनिधि, और बेहतर सरकार पाने के लिए एक जिम्मेदारी लेकर आता है। 

हम लगातार यह कोशिश करते हैं कि वोटर अधिक से अधिक वोट डालने आएं, और अब तो पार्टियों और उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद न आने पर नोटा का विकल्प भी लोगों के पास है कि वे अपनी नापसंदगी भी दर्ज कर सकते हैं, और पार्टियों और उम्मीदवारों को यह समझ पड़ सकता है कि उन्हें खारिज करने वाले कितने लोग हैं। हम अपने यूट्यूब चैनल पर भी लगातार वोटरों से अपील करते रहते हैं, और अखबार के इस संपादकीय कॉलम में तो लोगों की जागरूकता की जरूरत बताते रहते हैं। कम से कम छत्तीसगढ़ को तो अपने सबसे गरीब और सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बस्तर को देखकर सबक लेना चाहिए, और अधिक से अधिक वोट बाकी जगहों पर भी पडऩा चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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