विचार / लेख

आखिर क्या क्या देखे सर्वोच्च न्यायालय
10-Nov-2023 2:22 PM
आखिर क्या क्या देखे सर्वोच्च न्यायालय

 डॉ. आर.के. पालीवाल

संविधान के दो महत्त्वपूर्ण पायों विधायिका और कार्यपालिका की सडऩ इतनी बढ गई है कि आए दिन सर्वोच्च न्यायालय को उसे दुरुस्त करने के लिए कई कई याचिकाओं पर लंबी सुनवाई और तीखी टिप्पणी करनी पड़ रही हैं। जनता के लिए समर्पित हमारे लोकतांत्रिक संविधान के निर्माताओं ने ऐसी उम्मीद नहीं की होगी कि सर्व शक्ति संपन्न विधायिका और तमाम अधिकार प्राप्त कार्यपालिका के उच्च पदस्थ अपनी कार्यशैली का इतना ह्रास करेंगे कि सर्वोच्च न्यायालय को गवर्नरों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पुलिस प्रशासन और जांच एजेंसियों की हीलाहवाली, अकर्मण्यता और गंभीर अनियमितताओं की शिकायतों और जनहित याचिकाओं पर आए दिन कड़ी टिप्पणियां करनी पड़ेंगी। जिस तरह से आजकल राज्यों द्वारा केंद्र सरकार के प्रतिनिधि गवर्नरों, लेफ्टिनेंट गवर्नरों और केंद्रीय जांच एजेंसियों के खिलाफ राज्य सरकारों और प्रबुद्ध जनों एवम समाजसेवी संस्थाओं की हजारों याचिकाएं और जनहित याचिकाएं  सुप्रीम कोर्ट पहुंच रही हैं उससे सुप्रीम कोर्ट का काफी समय इन्हीं मुद्दों पर जाया हो रहा है।

जिस तरह से लोकतांत्रिक संस्थाओं में लगातार गिरावट हो रही है और सत्ता पक्ष और विपक्ष में सत्ता हासिल करने के लिए हद दर्जे की अनैतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है उसके दुष्परिणाम स्वरूप नौकरशाही को भी कुछ भयवश और कुछ स्वार्थवश, कहीं आकाओं को खुश करने के अति उत्साह में और कहीं मन मसोसकर राजनीतिक गिरावट में शामिल होना पड़ रहा है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक सिद्धांत और संविधान महज किताबों तक सिमट कर रह गए हैं।

 निष्पक्षता के साथ जनहित के कार्य करने के बजाय किसी खास वर्ग, समूह या संस्थाओं के हित या अनहित में काम करने से विगत कुछ वर्षों में कार्यपालिका की स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है। यदि गर्वनर और लेफ्टिनेंट गवर्नर की ही बात करें तो दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना , महाराष्ट्र और तमिलनाडु आदि राज्य सरकारों ने अपनें राज्यपालों पर गम्भीर आरोप लगाते हुए चुनी हुई राज्य सरकारों के कार्यों में बाधा उत्पन्न करने के आरोप लगाए हैं। इस तरह के आरोप उन्हीं राज्यपालो के खिलाफ लगते हैं जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दलों की सरकार हैं। महाराष्ट्र में सत्ता परिर्वतन के समय तत्कालीन गर्वनर की कार्यशैली पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकूल टिप्पणी की थी।

यदि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तिपाए का तीसरा पाया न्यायपालिका भी ऐसा ही हो जाए तब हमारे लोकतंत्र की रक्षा ईश्वर भी नहीं कर पाएगा। यदि सुप्रीम कोर्ट भी विधायिका और कार्यपालिका की तरह ऐसी ही हीलाहवाली करने वाला या पक्षपाती हो जाए तो क्या होगा ! इधर केंद्र सरकार ने न्यायपालिका के कार्य में भी हस्पक्षेप करने और न्यायधीशों की नियुक्तियों  में हीलाहवाली की नाकाम कोशिशें की थी। यदि नौकरशाही की तरह न्यायपालिका पर भी सरकारी हस्तक्षेप होगा तो सरकार की मनमानी पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहेगा, इसीलिए हर हाल में सरकारों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह नियंत्रित करने की कोशिश का कड़ा विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि इससे आम जनता का यह ब्रह्मास्त्र भी भोंथरा हो जाएगा।

भले ही सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले बड़े वकीलों की महंगी फीस और देश के सुदूर कोनों से दिल्ली की दूरी के कारण हर व्यक्ति की पहुंच सुप्रीम कोर्ट में संभव नहीं है फिर भी राष्ट्र और जनहित के महत्त्वपूर्ण मामलो में सर्वोच्च न्यायालय की दखल विधायिका और कार्यपालिका की लचरता पर नियंत्रण के लिए बहुत जरूरी है। दिल्ली के प्रदूषण  से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसियों की विपक्षी नेताओं पर कार्यवाही, दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारों की लड़ाई और राज्यपालों की भूमिका आदि तमाम ऐसे मामले हैं जिन्हें विधायिका और कार्यपालिका को सुलझाना था लेकिन इन सबमें भी सर्वोच्च न्यायालय को निर्देश देने पड़ रहे हैं। आखिर एक अकेला सर्वोच्च न्यायालय भी क्या क्या देख सकता है !

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news