संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को उनकी औकात समझाई
11-Nov-2023 3:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को उनकी औकात समझाई

भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों की सरकार अलग से चुनी जाती है, और वहां पर संवैधानिक मुखिया, यानी राज्यपाल केन्द्र सरकार की तरफ से भेजे जाते हैं। ऐसे में बहुत से मौके आते हैं जब राज्य सरकार की विचारधारा अलग रहती है, और एक अलग विचारधारा की केन्द्र सरकार अपने एजेंट की तरह काम करने वाले राज्यपाल भेजती है। नतीजा यह होता है कि कई राज्यों में निर्वाचित राज्य सरकार के साथ मनोनीत राज्यपाल के अंतहीन टकराव चलते रहते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट में दो राज्यों के ऐसे ही मामले सुने गए, और पंजाब के साथ-साथ तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ वहां की सरकारें गई थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के रूख और फैसलों पर भारी फिक्र भी जताई है, और भारी नाराजगी भी जताई है। उन्होंने राज्यपालों को, सडक़ की जुबान में कहें, तो उनकी औकात याद दिलाई, और कहा कि वे मनोनीत व्यक्ति हैं, और उन्हें निर्वाचित सरकारों से इस किस्म का टकराव नहीं लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के गवर्नर बनवारी लाल पुरोहित को कहा कि वे पंजाब विधानसभा से पारित विधेयकों को तत्काल मंजूर करें जिन्हें कि उन्होंने कई महीनों से अटका रखा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पंजाब और तमिलनाडु दोनों के राज्यपालों के बर्ताव पर कहा कि वे लोग आग से खेल रहे हैं, और अगर ऐसा ही रहा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी। अदालत ने इन्हें कहा कि वे निर्वाचित विधानसभा की ओर से मंजूर विधेयकों को दबाकर न बैठें, यह एक गंभीर मामला है, और इसे मंजूर करने में देर न करें। उन्होंने कहा कि पंजाब में जो हो रहा है उससे हम खुश नहीं हैं। पंजाब सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की थी, और कहा था कि गवर्नर जो कर रहे हैं वह असंवैधानिक है, और उसके चलते सारे प्रशासनिक काम अटक गए हैं। पंजाब सरकार की तरफ से खड़े हुए वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि शिक्षा और वित्तीय मामलों के सात विधेयकों को जुलाई में गवर्नर को भेजा गया था, और जो अब तक अटके हुए हैं। 

सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने जिस तरह से इन दो राज्यपालों की आलोचना की है, उसे पूरे देश के लिए देखा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा से पारित आरक्षण विधेयक को राज्यपाल ने महीनों से रोक रखा है, राजभवन करीब पौन साल से इस पर बैठा हुआ है, और ऐसे ही कई मामले देश भर में जगह-जगह हैं। राज्यपाल विधानसभा के पारित विधेयकों को अंतहीन रोके रखने को अपना हक मानते हैं। और वे केन्द्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह देखा हुआ है कि किस तरह राज्यपाल सत्तापलट में औजार बन जाते हैं, और कहीं राज्यपाल तो कहीं विधानसभा अध्यक्ष लोकतंत्र को पटरी से उतारने के लिए ओवरटाईम करने लगते हैं। पंजाब से परे तमिलनाडु में भी मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपाल ने 12 विधेयकों पर सहमति रोककर रखी हुई है, और विधेयकों के अलावा भी कई दूसरे फैसले राज्यपाल के पास मंजूरी या सहमति के लिए पड़े हुए हैं। 

हमारे पुराने पाठकों को याद होगा कि हम कई बार इस बात को उठा चुके हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजभवन नाम की संस्था पूरी तरह से गैरजरूरी हो गई है, और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। राज्यपाल लोकतंत्र में किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं रह गए हैं, और ये पूरी तरह से केन्द्र की सत्ता के हाथ के कभी औजार बने रहते हैं, तो कभी हथियार बने रहते हैं। बहुत से राज्यपालों की हालत लोहे के मोटे-मोटे टुकड़े लेकर राज्य सरकार की ट्रेन को पटरी से उतारने में लगी दिखती है। इनकी जरूरत ढेले भर की नहीं है, और ये अपने आपको निर्वाचित सरकार से ऊपर साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को याद होगा कि पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल ममता बैनर्जी की सरकार को नीचा दिखाने के लिए, उसकी फजीहत करने के लिए रात-रात जागकर काम करते थे, जबकि राज्यपाल को किसी तरह के ओवरटाईम की पात्रता नहीं रहती। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, क्योंकि राजभवन सरकार पर एक बोझ भी रहते हैं। राज्य सरकार एक तरफ तो अगर केन्द्र में विपक्षी सरकार है, तो उससे ही जूझते रहती है, और दूसरी तरफ प्रदेश की राजधानी में राजभवन में बैठे हुए राज्यपाल की साजिशों और हमलों को झेलते रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अच्छा किया है जो राज्यपालों को यह समझा दिया कि वे मनोनीत हैं और निर्वाचित सरकारें ही जनता की असली प्रतिनिधि रहती हैं। 

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