विचार / लेख
सनियारा खान
इलेक्शन का भी एक अलग ही मौसम
होता है। आपके गेट से लेकर आंगन
तक प्रत्याशियों के परचें यहां वहां जहां तहां पड़े दिखेंगे। कल दोपहर कॉल बैल की आवाज से गहरी नींद से जाग कर दरवाजा खोला तो गेट के सामने कार्यकर्ताओं का झुंड खड़ा था।
‘भैया निर्वाचन में खड़े है। तो एक सर्वे करना है। कुछ सवाल करेंगे आप से।’
झुंड की तरफ देख कर मैंने कहा-‘मतदान और कन्यादान करने से पहले बहुत गंभीरता पूर्वक सोचना चाहिए। अभी हम आधी अधूरी नींद से उठ कर कतई गंभीर नहीं हो पाएंगे। तो आप को कोई जवाब भी नहीं दे पाएंगे।’ गुस्से में पैर पटकते हुए हम अंदर चले आए। एक दिन तो हमारे मुहल्ले में माइक पर किसी एक नेताजी के चमचे ने इस कदर शोर मचा रखा था कि हो न हो आधे से ज्यादा कॉलोनी
वालों को पक्का सरदर्द हुआ होगा। तभी मेरे घर में काम करने वाली लडक़ी ने कहा- ‘आज मैं रैली में चली जाती तो दो तीन घंटे में ही 200 रुपए कमा लेती। आपको मालूम कि हमारे मुहल्ले में हर घर में चार चार हजार रुपए भी मिले?’
‘किसने दिया? ‘मेरा सवाल अनसुना करते हुए वह कहती गई’ सिर्फ पैसा ही नहीं, रोज रात को पूरे मोहल्ले में खाना होता है। कभी मुर्गा तो कभी बकरा कटता है। घरों में तो खाना बन ही नहीं रहा है। मजे चल रहे हैं सभी के। आदमियों को दारू और औरतों को कपड़े मिल रहे है सो अलग।’
खामोश हो कर सोचती रही कि ये जो पानी की तरह पैसे हर बार इलेक्शन के समय बहाया जाता है... ये आता कहां से और कोई पूछता क्यों नहीं? नेताओं की इलेक्शन में लुटाने और जीतने के बाद लूटने की जो आदत हो गई अब उसमें कोई भी शायद रोक नहीं लगा पाएगा। रोक लगाने के लिए सिस्टम में जैसे लोग होने चाहिए वैसे लोगों की सख्त कमी हो गई है। कुछ खटर पटर आवाज सुन कर बाहर आई तो देखा कि एक बंदा शान से गेट में एक पार्टी का झंडा रस्सी से बांध रहा था।
‘भैया, पूछने की आदत खत्म हो गई क्या?’ मेरी बात वह समझ नहीं पाया।
‘क्या पूछना दीदी?’
‘बिना पूछे ये जो बांध रहे हो?‘मेरी बात सुन कर उसने हंसते हुए कहा _अरे दीदी, पार्टी का झंडा है।’
‘लेकिन ये किसी का घर है। कोई पार्टी ऑफिस तो नहीं न? उतार दीजिए।’
बुरा सा मुंह बना कर झंडा उतार कर वह अगले घर चला गया। थोड़ी देर बाद एक और आदमी आ कर किसी दूसरी पार्टी का झंडा गेट में लगा रहा था। मैंने कहा-‘भैया, अभी कुछ देर पहले एक को भगाया। अब आप भी वही कर रहे है?’
‘अरे दीदी, लगाने दीजिए। एक झंडा लगाने का पांच रुपया मिलता है। हम भी इलेक्शन के बहाने थोड़ा बहुत कमा लेते है। आपको अगर किसी और पार्टी का झंडा चाहिए तो कल ले आयेंगे। हम को तो बस कमाना है।’ उस की बात सुन कर मैंने कहा- ‘भैया, बस यही एक समझौता हम नहीं कर सकते है। तिरंगा छोड़ कर कोई भी झंडा घर में लगाना हमे मंजूर नहीं।’ बड़बड़ाते हुए वह भी आगे बढ़ गया। मैं यही सोच रही थी कि कोई शरीफ लेकिन मामूली इंसान इस रबड़ी बटाई प्रतियोगिता में कैसे टिक पाएगा! ऊपर से तुर्रा ये है कि रबड़ी बाटने के लिए कहां कहां से पैसे मिलते हैं ये भी पूछना मना है!
आज अचानक चमचों के एक झुंड घर के सामने से हल्ला मचा कर जा रहे थे।
‘हमारे भैया के साथ ऐसा किया तो हम भी नहीं छोड़ेंगे’। ऐसा ही कुछ सुनाई दे रहा था। चलो, इलेक्शन का मौसम अब गुले गुलजार है। पूरी तरह शबाब पर है।