संपादकीय
तीन दिन बाद छत्तीसगढ़ में विधानसभा की बकाया 70 सीटों पर मतदान होने जा रहा है। देश के पांच राज्यों में अलग-अलग तारीखों पर मतदान हो रहा है, और हर राज्य के अपने अलग-अलग मुद्दे हैं। कहीं पर स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के राष्ट्रीय एजेंडा, और उनके राष्ट्रीय नेताओं के चेहरे भी वोटरों के सामने रखे गए हैं। कहीं किसी पार्टी के प्रादेशिक नेता का चेहरा भी सामने है, तो कहीं कोई पार्टी बेचेहरा या अपने राष्ट्रीय नेता के नाम पर लड़ रही है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पांच बरस से कांग्रेस की सरकार चल रही है, और मध्यप्रदेश में पिछले बीस बरस में तकरीबन तमाम वक्त भाजपा की खुद की सरकार रही, और थोड़े से वक्त कांग्रेस की सरकार थी जिसमें खरीद-फरोख्त करके भाजपा फिर वहां काबिज हो गई। इस तरह कहीं पांच बरस तो कहीं पन्द्रह-बीस बरस की सत्ता से नाराजगी या संतुष्टि, जो भी हो, वह भी हवा में है।
अगर हम इन तीन हिन्दी राज्यों की बात करें, तो छत्तीसगढ़, एमपी, और राजस्थान में पिछले चुनाव में कांग्रेस सत्ता पर आई थी, और एमपी में कुछ वक्त बाद ही जिस तरह कांग्रेस में दल-बदल करवाकर भाजपा फिर वहां काबिज हो गई, उससे यह बात साफ है कि मोदी और शाह के राज में मामूली बहुमत हिफाजत की गारंटी नहीं हो सकता। इन तीनों ही राज्यों में बाद में कांग्रेस पार्टी की घरेलू हालत एकदम अलग-अलग रही, और पिछले दो-चार महीनों से इन तीनों प्रदेशों में कांग्रेस की गुटबाजी किनारे धर दी गई दिखती है, और नेता मोटेतौर पर एकजुट दिख रहे हैं। लेकिन चुनाव में मुकाबला अपनी पार्टी से परे दूसरी पार्टियों से होता है, और इस मामले में कांग्रेस, और भाजपा दोनों ही घरेलू आग से नहीं झुलस रही हैं।
अब इन राज्यों की दो बड़ी पार्टियों का यह हाल देख लेने के बाद आगे सवाल यह उठता है कि वोटर चुनाव में किन मुद्दों पर विधायक चुनेंगे? क्योंकि भारत में मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को सीधे नहीं चुना जाता है, जनता सिर्फ विधायक या सांसद चुनती है, और उसके बाद वे बिना बिके या बिक कर किसी पीएम-सीएम को चुनते हैं। इसलिए वोटरों के सामने पहला चेहरा तो विधायक-उम्मीदवार का है, और उसके नाम के साथ-साथ किसी पार्टी का, या कोई निर्दलीय निशान भी ईवीएम मशीन पर दिखते रहेगा। इसलिए उम्मीदवार को किसी पार्टी या किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने का मौका नहीं रहेगा, उसे किसी पार्टी और उसके उम्मीदवार, इस जोड़ी के पक्ष में ही वोट डालने का मौका रहेगा। ऐसे में उसका फैसला हो सकता है कि कुछ मुश्किल हो। हो सकता है कि उसे उम्मीदवार नापसंद हो, पर पार्टी पसंद हो, और हो सकता है कि इसका उल्टा भी हो।
दूसरा सवाल यह उठता है कि जब पांच बरस की सत्ता, चाहे वह राज्य में हो, या केन्द्र में, जब उसके काम के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं, तो फिर वे काम काफी क्यों नहीं होते? क्यों मोदी और उनकी पार्टी को केन्द्र के कामों, या मध्यप्रदेश के कामों से परे जाकर भावनात्मक, धार्मिक, और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना पड़ रहा है? और क्यों प्रधानमंत्री को चुनावी सभा में पांच बरस बिना भुगतान राशन की घोषणा करनी पड़ रही है? फिर यह भी है कि इन तीनों ही प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टी को क्यों अंधाधुंध नए तोहफों, नए जनकल्याणकारी कार्यक्रमों, या नई योजनाओं की घोषणा करनी पड़ रही है? सत्ता के लिए तो उसके पांच बरस के काम ही काफी होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा लगता है कि यह चुनाव पांच बरस के कामकाज से एकदम परे जाकर बिल्कुल ही नए मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। पांच बरस पहले जो दिया वह मानो बेअसर पेनिसिलीन हो गया, और अब उसकी जगह एक नए जनरेशन के एंटीबॉयोटिक की जरूरत है जो कि गारंटी कार्ड, संकल्प पत्र, चुनावी घोषणापत्र जैसे किसी भी नाम से सामने रखा जा रहा है। तो क्या पांच बरस का सत्ता का काम चुनाव के लिए काफी नहीं होता, और नई मुनादियां करनी पड़ती हैं? और पिछले विधानसभा चुनावों के बाद इन तीन राज्यों ने दिखा दिया था कि तीनों जगह कांग्रेस की सरकार बनाने वाले वोटरों ने छह महीने बाद के लोकसभा चुनाव में 65 में से कुल 3 सीटें कांग्रेस को दी थीं, बाकी सारी सीटें मोदी को चली गई थीं। इसलिए कांग्रेस की सारी घोषणाएं विधानसभा चुनाव में ही उसके काम की रहीं, और लोकसभा में उनका असर खत्म हो गया था। अब सवाल यह उठता है कि लोकसभा के और छह महीने बाद जो पंचायत-म्युनिसिपिल चुनाव होने हैं, उसके लिए क्या फिर से कुछ घोषणाएं होंगी?
बहुत से लोगों को देश में एकमुश्त चुनाव नहीं जम रहे हैं, क्योंकि आज ऐसा होने पर उन्हें सब कुछ मोदी के चेहरे पर चले जाने का खतरा दिखता है। लेकिन उससे परे देखें तो क्या इन राज्यों में हर छह महीने में, कई दूसरे राज्यों में साल-साल भर में चुनावी घोषणापत्र का सिलसिला किसका भला करता है? जनता के पैसों का बेरहमी से अनुपातहीन और बेदिमाग खर्च करके वोट पाने का सिलसिला आखिर कहां तक ले जाएगा? और देश-प्रदेश के ढांचे को मजबूत किए बिना, मौजूदा ढांचे पर थमकर वोटरों को सीधे एक-एक करके प्रभावित करने का यह गलाकाट मुकाबला लोकतंत्र के शासन को सिर्फ एक चुनावी मशीन बनाकर छोड़ दे रहा है। ये चुनाव लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति हैं, या कि ये हितग्राहियों की जनगणना है, यह भी समझने की जरूरत है। फायदा पाने वाले लोग अगर केलकुलेटर पर हिसाब लगाते हैं कि किसी पार्टी की सरकार आने पर रूपए-पैसे का उनका भला कितना अधिक होगा, तो फिर किसी विचार, सिद्धांत, और नीतियों की जगह कहां रह जाती है, जरूरत कहां रह जाती है?
हमारी आज की यह बात किसी एक प्रदेश या किसी एक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था पर फिक्र करने की एक वकालत है कि क्या वोटरों को सीधे-सीधे फायदे देकर उनके वोट खरीदने का यह तरीका लोकतंत्र की सबसे अच्छी व्यवस्था है? इसमें चुनाव आयोग कोई रोक नहीं लगा सकता, और सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई ही किए चले जा रहा है, लेकिन देश के लंबे भविष्य की फिक्र अगर किसी को है, तो उन्हें तो यह सोचना चाहिए कि जनकल्याण के अलग-अलग तरीकों से वोट खरीदने के कार्यक्रमों का क्या इलाज निकाला जा सकता है? क्या चुनाव जीतने के हथियारों से देश के लोगों के मेहनत करने की संस्कृति खत्म होती चली जाएगी? क्या सबसे गरीब की भलाई के नाम पर गैरगरीबों तक भी मदद का एक बड़ा हिस्सा पहुंचना जायज है? इस बार के चुनाव का एजेंडा तो सेट हो चुका है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई अभी बाकी है, और जनता को स्टेडियम के दर्शक की तरह बैठे रहने के बजाय अपनी सोच सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर सामने रखनी चाहिए।