संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कुदरत से खतरनाक खेल, नतीजे तबाह करने वाले..
17-Nov-2023 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कुदरत से खतरनाक खेल, नतीजे तबाह करने वाले..

उत्तराखंड के उत्तर काशी में एक सुरंग ढह जाने से 6 दिनों से 40 मजदूर फंसे हुए हैं। उनको बचाने की कई तरह की कोशिश चल रही है जिनमें थाईलैंड और नार्वे की तजुर्बेकार टीमें भी शामिल हो गई हैं। सुरंग के मलबे में खुदाई करके बचाने की कोशिश जारी है, और तब तक के लिए खाना और ऑक्सीजन भेजने को कुछ पाईप लगाए गए हैं। उत्तराखंड में चारधाम परियोजना के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री के तीर्थों को जोडऩे के लिए बड़े पैमाने पर कंस्ट्रक्शन चल रहे हैं जिनमें सुरंगें भी शामिल हैं। दूसरी तरफ उत्तराखंड में ही दस बरस पहले केदारनाथ में ऐसी भयानक बाढ़ देखी थी कि जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, और बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। इसके साथ-साथ आगे-पीछे इन इलाकों में कभी भूकम्प आता है, कभी बादल फटते हैं, भूस्खलन तो चलते ही रहते हैं, और तमाम सरकारें इस पूरे इलाके में अधिक से अधिक निर्माण कर लेना चाहती हैं। नेता, अफसर, ठेकेदार, इन सबके लिए बड़े-बड़े निर्माण जिंदगी का मकसद होते हैं, और कमाई का मोटा जरिया भी। 

हिमालय पर्वतमाला और उसके आसपास के इलाकों को लेकर दुनिया भर के जानकार हमेशा से यह बतलाते आए हैं कि वहां की धरती बड़ी नाजुक (फ्रेजाइल) है, और वह बहुत बड़े पैमाने पर फेरबदल, प्रयोग, निर्माण, और आवाजाही के लायक नहीं हैं, लेकिन सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भीड़ के मुताबिक शहरों मेें अधिक बसाहट बनाने के लिए अंधाधुंध निर्माण चलते रहते हैं, अधिक मुसाफिरों की तेज रफ्तार आवाजाही के लिए हर पर्यटन केन्द्र और तीर्थस्थल तक चौड़े रास्तों को बनाना जारी है, इसके लिए कहीं पुल बन रहे हैं, तो कहीं सुरंगें। और फिर सस्ती बिजली के नाम पर जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे भी हिमाचल या उत्तराखंड जैसे प्रदेशों में धरती पर खतरनाक बोझ बढ़ रहा है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था के लिए पर्यटन और तीर्थयात्रा को एक बड़ा जरिया माना गया है, और सरकार और कारोबार दोनों मिलकर ऐसी हर संभावना को दुह लेना चाहते हैं, तब तक जब तक कि धरती के थन से खून न निकल जाए। 

अब सवाल यह उठता है कि इतनी नई सडक़ों, इतनी सुरंगों के साथ अगर इस इलाके को और अधिक खतरनाक बनाया जा रहा है तो अगली किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा होने पर उससे कैसे जूझा जा सकेगा? यह पूरी नौबत प्रकृति, पर्यावरण, और धरती को समझे बिना उससे एक खतरनाक छेड़छाड़ करने के अलावा कुछ नहीं है। अभी कुछ अरसा पहले ही ऐसे ही किसी भारतीय प्रदेश से एक वीडियो आया था कि किस तरह एक सुरंग के ठीक पहले की पूरी की पूरी सडक़ पानी में बह गई थी, और सुरंग तक पहुंचना मुमकिन ही नहीं रह गया था। जहां पर स्थानीय बसाहट की रोजाना की जरूरतों के लिए सुरंग और पुल जरूरी है, वहां तो ठीक हैं, लेकिन तीर्थ और पर्यटन को अंधाधुंध और अंतहीन बढ़ाते चलने के लिए जब ये प्रोजेक्ट बनाए और धरती पर उतारे जा रहे हैं, तो फिर वे आने वाले वक्त के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि भोपाल के एक पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस को लेकर अपनी रिपोर्ट में बहुत पहले से यह आशंका जताई थी कि किसी औद्योगिक हादसे की नौबत में बड़ा नुकसान हो सकता है, और बड़ी संख्या में जिंदगियां जा सकती हैं। आखिर हुआ वही था, कारखाने तक आबादी बस गई थी, और उस कारखाने में तो मिक नाम की ऐसी जहरीली गैस थी जिसने कि कई किलोमीटर दूर तक लोगों को मार डाला था, और लाखों लोगों की सेहत को बकाया जिंदगी के लिए खत्म कर दिया था। हिमालय पर्वतमाला के इलाकों के लिए ऐसी चेतावनियां बहुत से देसी-विदेशी प्रकृति वैज्ञानिक देते ही आए हैं, और सरकारों का हाल यह है कि इन सबको अनसुना और खारिज करने  की उसने आदत सी डाल रखी है। 

ऐसे में सरकारों को अपना दुस्साहस घटाना चाहिए। आज जंगल का मामला हो, नदी का, पहाड़ या समंदर का, केन्द्र और राज्य सरकारों की अधिक से अधिक दिलचस्पी इसमें रहती है कि किस तरह इन तमाम जगहों से खिलवाड़ की कीमत पर भी कमाऊ प्रोजेक्ट बनाए जाएं। कमाऊ का मतलब महज सरकार के लिए कमाऊ नहीं, सत्ता हांकने वाले लोगों के लिए निजी कमाई के भी। अभी सुरंग में फंसे 40 मजदूरों की जिंदगी बचाने की प्राथमिकता है, और जब यह काम हो जाए, उसके बाद भारत सरकार को देश-विदेश के जानकार लोगों से अपनी योजनाओं की एक समीक्षा करवानी चाहिए। जब सरकारें हर किस्म के विशेषज्ञ लोगों को अपने भीतर समाने लगती हैं, या अपने घरेलू विशेषज्ञों की राय को ही सब कुछ मानने लगती हैं, तब बाहरी और तटस्थ, ईमानदार राय मिलना मुमकिन नहीं रह जाता। अंग्रेज जिन्हें रायबहादुर बनाते थे, वे भला अंग्रेजों को कितनी अच्छी राय देते रहे होंगे? इसलिए बाहरी सलाहकारों का बड़ा महत्व रहता है, मामले चाहे पारिवारिक हों, या सरकारी। कुल मिलाकर हम अपनी बात इसी मुद्दे पर खत्म कर रहे हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों को कुदरत से छेडख़ानी और खिलवाड़ की अपनी हरकतों पर काबू पाना चाहिए क्योंकि सरकारों की जिंदगी पांच बरस की होती है, और धरती की जिंदगी अगले लाखों बरस तक ऐसी हरकतों से बिगड़ सकती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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