संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फलौदी सट्टाबाजार को ही लोकतंत्र तय करने दिया जाए
19-Nov-2023 3:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  फलौदी सट्टाबाजार को ही  लोकतंत्र तय करने दिया जाए

photo : twitter

हिन्दुस्तान का चुनावी माहौल इन दिनों राजस्थान के फलौदी नाम के शहर के किसी सट्टाबाजार कहे जाने वाले कारोबार के नाम से फैलाए जा रहे पोस्टरों से भरा हुआ है। हर पार्टी अपनी-अपनी सहूलियत से फलौदी सट्टाबाजार का रूझान गढ़ रही है, और उसे सोशल मीडिया पर लोगों को पहुंचाया जा रहा है। जिन लोगों ने न कभी सट्टा लगाया होगा, न ही फलौदी गए होंगे, वे लोग भी चुनावी नतीजों को ऐसे पोस्टरों से तय कर रहे हैं, और एक-दूसरे को बता रहे हैं कि आज तक कभी भी फलौदी का सट्टाबाजार गलत साबित नहीं हुआ है। जिन पोस्टरों पर ऐसा दावा किया जाता है, उन्हें 20 मिनट में कम्प्यूटर पर कोई नौसिखिए फोटोशॉप ऑपरेटर भी बना सकते हैं, उनमें जितना चाहे उतना आंकड़ा भर सकते हैं। आज 21वीं सदी में देश के लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता का हाल यह है कि बेनाम और गुमनाम गढ़े हुए सट्टाबाजार रूझान को वे देश का लोकतांत्रिक भविष्य बता रहे हैं। 

एक वक्त था जब हिन्दुस्तान में किसी अफवाह को फैलाने के लिए बीबीसी के नाम का सहारा लिया जाता था। उस वक्त टीवी चैनल नहीं हुआ करते थे, और रेडियो बीबीसी भरोसेमंद खबरों के लिए जाना जाता था। लेकिन उसके बुलेटिन दिन में शायद दो-तीन बार अलग-अलग समय पर आते थे, बहुत कम लोगों के पास रेडियो-ट्रांजिस्टर रहते थे, और ऐसे में किसी अफवाह को बीबीसी का नाम लेकर फैलाना इसलिए आसान रहता था कि उसके रेडियो-समाचार बुलेटिन छपे हुए अखबार की तरह तो सामने रहते नहीं थे। ऐसे में हिन्दुस्तान की अधिकतर बड़ी अफवाहें बीबीसी के हवाले से फैलाई जाती थीं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की दुर्गति इतनी हो गई है कि एक वक्त यहां बीबीसी के नाम पर अफवाहें फैलती थीं, और अब सट्टाबाजार के नाम पर। और तो और देश का एक सबसे बड़ा कारोबारी अखबार, इकानॉमिक टाईम्स भी फलौदी सट्टाबाजार के हवाले से खबरें बना रहा है कि बाजार किसकी कितनी जीत-हार पर कितना रेट दे रहा है। जो हिन्दुस्तान के कुछ अखबार चुनावी सर्वे नहीं छापते हैं क्योंकि बहुत से सर्वे फर्जी रहते हैं, गढ़े हुए रहते हैं, या माना जाता है कि वे खरीदे हुए रहते हैं, लेकिन ऐसे अखबार भी सट्टाबाजार के हवाले से जीत-हार पर लगने वाले रेट छापते हैं। अब सवाल यह उठता है कि सट्टाबाजार जो कि हिन्दुस्तान में जुर्म है, उसके हवाले से खबरें बनाना जुर्म क्यों नहीं होना चाहिए? क्या कोई ऐसी खबर भी कल के दिन बना सकते हैं कि हत्यारे ने कत्ल करने के तरीके के बारे में कौन सी तरकीबें सुझाई हैं, या एटीएम की मशीन को किस तरह से काटकर नोट निकाले जा सकते हैं? आज हालत यह हो गई है कि सट्टाबाजार के बेनाम और गुमनाम पोस्टर हवा में तैर रहे हैं, और अखबार और टीवी वाले उन्हें कटी पतंग की तरह लपककर पकड़ रहे हैं, और फिर अपना धागा बांधकर आसमान पर उड़ा रहे हैं। 

इस देश के लोगों की जागरूकता, उनकी वैज्ञानिक समझ, और उनकी सोच को इस हद तक बर्बाद कर दिया गया है कि कल तक क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा, अब लोकतंत्र के भविष्य को भी तय कर रहा है। अगर फलौदी के सट्टाबाजार को ही देश-प्रदेश की सरकारें बनानी हैं, तो फिर चुनाव नाम का यह पाखंड किया ही क्यों जाए? फलौदी वाले रेट खोलें, और देश की जनता उसमें से जिस पर सबसे अधिक दांव लगाए उसी को जीता हुआ मान लिया जाए। लोकतांत्रिक समझ आधी सदी से अधिक वक्त में किसी तरह विकसित हो पाई थी कि पिछले दस बरसों में उसको खत्म करने की तमाम कोशिशें हो गईं। नतीजा यह है कि आधी सदी पहले जो देश बीबीसी के नाम पर ही अफवाहों पर भरोसा करता था, अब वह सट्टाबाजार के नाम पर भरोसा करता है, लोकतंत्र में गिरावट का यह एक बड़ा सुबूत दिखता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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