विचार / लेख

-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए एक तरह से 2024 के आगामी लोकसभा चुनाव में दो दो हाथ करने का पूर्वाभ्यास बन गया है। यही कारण है कि इसे जीतने के लिए दोनों दलों के प्रमुख नेताओं ने धरती आसमान एक कर दिया है। दुर्भाग्य यही है कि दोनों राष्ट्रीय दल जन सरोकार से जुड़े बुनियादी मुद्दों के बजाय रेवड़ी कल्चर बढ़ाने वाली लोक लुभावन योजनाओं, धर्म और जाति आधारित राजनिति और एक दूसरे की कमीज के दाग बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की ओछी राजनीति कर रहे हैं। जहां भाजपा ने प्रत्याशियों की पहली सूची काफी पहले घोषित कर बढ़त लेने की कौशिश की थी वहीं वह घोषणा पत्र जारी करने में बहुत पिछड़ गई और चुनाव से ऐन कुछ दिन पहले ही मोदी की गारंटी शीर्षक से घोषणा पत्र प्रकाशित कर पाई है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस ज्यादा तैयार दिखी है। उसने प्रत्याशियों की घोषणा भी संयम के साथ की, घोषणा पत्र भी समय पर जारी किया और प्रदेश के मुखिया के चेहरे के रुप में कमलनाथ को बहुत पहले सामने लाकर पारदर्शिता बरती है। यही कारण है कि विभिन्न सर्वे में उसका पलड़ा भारी दिखाई दे रहा है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों राजनीतिक दल खुद को एक दूसरे से बड़े दानवीर कर्ण की भूमिका में प्रस्तुत कर रहे हैं और जनता को भिखारी बनाने पर तुले हैं। भारतीय जनता पार्टी ने तो अपना पूरा अस्तित्व प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के हवाले कर दिया है। वहां न भारतीय जनता पार्टी की तरफ से बयान आते हैं और न उसके अध्यक्ष की कोई हैसियत है। इनके बजाय घोषणापत्र को मोदी की गारंटी नाम देने से यह साफ जाहिर है कि उसे प्रदेश के किसी नेता या बड़े नेताओं के सामूहिक नेतृत्व पर विश्वास नहीं है। चुनाव पूरी तरह प्रधानमन्त्री का वन मैन शो है। इसके विपरीत कांग्रेस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की हाई कमान की जोड़ी और मध्य प्रदेश की कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी के चतुर्भुज को आगे कर चुनावी समर में उतरी है। इससे लगता है कि वह एक यूनिट की तरह काम कर रही है। संगठन और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की भूमिका वहां भी नगण्य ही है। इस अर्थ में लोकतंत्र वहां भी सतही हैं लेकिन भाजपा की तुलना में केंद्रीयकरण कुछ कम है। यह हकीकत है कि प्रदेश के चुनाव में लोग स्थानीय नेताओं को आगे देखना चाहते हैं न कि राष्ट्रीय नेताओं को। अधिकांश लोग तमाम वंदे भारत ट्रेन चलने के बावजूद दिल्ली को अभी भी दूर ही मानते हैं। भाजपा ने कर्नाटक में मोदी के चेहरे को आगे करके मिली हार से कोई सबक नहीं लिया । उसका यह दांव मध्य प्रदेश में भी उल्टा पड़ सकता है।
कोई भी चुनाव आखिरकार जनता पर ही निर्भर करता है। मध्य प्रदेश की गरीब जनता को दोनों दलों ने खूब लालच दिया है। स्थिति यह बन गई है कि जो लोग गरीबी की रेखा के ऊपर हैं वे भी इस मायावी रेखा के नीचे जाने के लिए तमाम साम दाम दण्ड भेद अपना रहे हैं और जिनके नाम इस रेखा के नीचे दर्ज हैं वे जन्म जन्मांतर तक इसी के नीचे दबे रहना चाहते हैं। यही हाल जातियों का है। कांग्रेस ने भाजपा के हिंदुत्व , राम मंदिर और धार्मिक लोक निर्माण के मुद्दों की काट के लिए जातियों की जनगणना का राग अलापकर पिछड़ी जातियों के बड़े वर्ग को भाजपा के हिंदुत्व वोट बैंक से छिटकाने का प्रयास किया है। बहुत सी जातियां वैसे ही पिछड़ेपन की दौड़ में एक दूसरे को पछाडऩे के लिए आमादा हैं। मणिपुर के मैतेई और राजस्थान में गुर्जर जनजाति के दर्जे के लिए आंदोलन करते रहे हैं। यही हाल पिछड़ी जातियों का भी है। उसमें भी कुछ प्रदेशों में जाट आदि जातियां पिछड़ी जाति वर्ग में आना चाहती हैं तो कुछ जातियां अति पिछड़े वर्ग के रुप में अलग उपवर्ग बनना चाहती हैं। यह दुखद है कि गांधी, अंबेडकर, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का नाम जपने वाले राजनीतिक दल इन विभूतियों की जाति विहीन और समरस समाज की कल्पना को धता बताकर सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।