संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी ने बाप को घर से दौड़ा दिया, तो किसी ने दौड़ाकर गोलियां मारीं..
20-Nov-2023 5:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी ने बाप को घर से  दौड़ा दिया, तो किसी ने  दौड़ाकर गोलियां मारीं..

फोटो : सोशल मीडिया

विधानसभा चुनावों के चलते हुए राजनीति को जीना और उस पर लिखना पिछले महीने भर में अनुपात से कुछ अधिक ही हुआ है। अभी भी पॉलीटिक्स के अलावा क्रिकेट ही खबरों में है, और लिखने के लिए कोई दूसरा मुद्दा ढूंढना कुछ मुश्किल होता है। लेकिन जिंदगी राजनीति और क्रिकेट तक सीमित नहीं है, उसके दूसरे छोटे-छोटे बहुत से ऐसे पहलू हैं जो कि बहुत मायने रखते हैं, फिर चाहे वे खबरों में उतने बड़े न दिखते हों। अब जैसे यूपी के बदायूं की खबर है कि कल वहां एक बेटा बाप पर जमीन अपने नाम कराने का दबाव डाल रहा था। वह 9 साल से बाप से अलग रह रहा था, और कल उसने अपने साथियों सहित बाप के खेत पहुंचकर उसे दौड़ा-दौड़ाकर गोलियां मारी, और कत्ल कर दिया। जिस वक्त यह हमला हुआ, आसपास और भी किसान थे, लेकिन कोई बचा नहीं पाए। इसी के साथ ही अभी चार दिन पहले की एक और खबर याद पड़ती है जिसमें देश के एक बड़े उद्योगपति रेमंड ब्रांड के मालिक गौतम सिंघानिया की बीवी उनके बंगले के फाटक के बाहर बैठी दिख रही है, और उसे भीतर घुसने नहीं दिया जा रहा है। इसके कुछ घंटे बाद गौतम सिंघानिया ने 32 साल के संबंधों और 24 साल की शादी के बाद अपनी बीवी नवाज मोदी से तलाक की घोषणा की है। बंगले की दीवाली पार्टी के दौरान बीवी को फाटक के बाहर ही रोक रखा गया था। लोगों को इस घटना से कुछ अरसा पहले का वह वाकया भी याद पड़ा जब इसी गौतम सिंघानिया ने पूरा कारोबार खड़ा करने वाले अपने बाप, विजयपथ सिंघानिया को कारोबार और घरबार, सबसे बेदखल कर दिया था। पद्मभूषण से सम्मानित देश के एक चर्चित उद्योगपति, और विमान और गुब्बारे उड़ाने के कुछ रिकॉर्ड बनाने वाले विजयपथ सिंघानिया को आखिरी वक्त बदहाली में गुजारना पड़ा था क्योंकि उन्होंने सब कुछ बेटे के हवाले कर दिया था। 

ऐसे मामलों से लोगों को कुछ सबक लेने चाहिए। वैसे तो अधिकतर आबादी गरीब रहती है, जो कि कर्ज के अलावा आल-औलाद पर कुछ छोड़ नहीं जाती। लेकिन जो लोग आल-औलाद को कुछ दौलत दे जाते हैं, उन्हें ऐसा करते हुए कुछ चीजों का ध्यान रखना चाहिए। पहली बात तो यह कि जायदाद मिलने के पहले औलाद का बर्ताव जितना अच्छा रहता है, जरूरी नहीं कि सब कुछ उनके नाम हो जाने के बाद भी वे उतने भले बने रहें। बहुत से मामलों में मालिकाना हक मिलते ही आल-औलाद का बर्ताव बदल जाता है। और एक बार सब कुछ दे देने के बाद बूढ़े मां-बाप सिर्फ एक गुजारे के इंतजाम के लिए अदालत तक जा सकते हैं जो कि अदालत की आम दिक्कतों के साथ ही उन्हें मिल पाता है। ऐसी नौबत से बचना ठीक है। लोगों को अपनी आगे की लंबी, पहाड़ सी, बीमार जिंदगी का ख्याल रखते हुए अपना इंतजाम पहले करना चाहिए, उसके लिए पर्याप्त जमीन-जायदाद रखनी चाहिए, और उसके बाद ही आल-औलाद की मदद करनी चाहिए। इसके बिना सरकारी या किसी समाजसेवी संस्थान के वृद्धाश्रम के अलावा दूसरी जगह बचती नहीं है। फिर पुराने लोगों ने समझदारी की एक बात की हुई है कि पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय। मतलब यह कि अगर औलाद काबिल है तो उसके लिए धन छोडक़र जाने की जरूरत नहीं है, और अगर औलाद नालायक है तो भी वह अपने लिए छोड़ी गई दौलत को बर्बाद कर ही देगी। मां-बाप को संतानमोह से बाहर निकलना चाहिए, और आल-औलाद को जिंदा रहने से अधिक मदद नहीं करनी चाहिए। खासकर यह मदद तो कभी नहीं करनी चाहिए कि अपने बुढ़ापे को दांव पर लगाकर वे सब कुछ बच्चों को दे दें। 

यह मां-बाप की भी जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चों को जिम्मेदार बने रहने दें। उनके सामने जिंदगी की चुनौतियां आने दें, और अगर उनकी कोई मदद करनी भी है, तो वह इतनी किस्तों में होनी चाहिए कि वह उन्हें निठल्ला बनने को न उकसाए। औलाद काबिल हो, या नालायक हो, मां-बाप की दौलत पाकर मां-बाप को लात मारने का खतरा तो हमेशा ही बने रहता है। इसलिए एक ऐसे दिखावे का झांसा बने रहने देना चाहिए कि दो पीढिय़ों के बीच परस्पर प्रेम और सम्मान के अच्छे संबंध हैं, और किसी भावनात्मक वसीयत से ऐसे संबंधों को खत्म नहीं करना चाहिए। हर परिवार को यह जानकारी भी रहनी चाहिए कि किस तरह आज बहुत से बैंक मकान या दूसरी जायदाद पर एक रिवर्स-लोन भी देते हैं। जिसमें लोग अपनी ही संपत्ति में रहते हुए भी हर महीने किस्तों में कर्ज पा सकते हंै, और उनके गुजर जाने के बाद बैंक ऐसी संपत्ति को बेचकर अपने दिए गए कर्ज की वसूली करके बची हुई रकम वसीयत के मुताबिक आल-औलाद को दे सकते हैं। हमारा ख्याल है कि सरकार और सामाजिक संगठनों को बुजुर्गों की जागरूकता के कुछ ऐसे कार्यक्रम चलाने चाहिए जिन्हें उन्हें उनकी अगली पीढ़ी तो घर तोडऩे वाले और घर में आग लगाने वाले मान सकती है, लेकिन जिनसे बुजुर्गों का बुढ़ापा और उनके अंतहीन आखिरी बरस धर्मों में बताए गए नर्क की तरह न गुजरें। लोगों में एक जागरूकता लानी चाहिए, और जरूरत हो तो सरकार भी ऐसा कानून बना सकती है कि मां-बाप चाहकर भी अपनी संपत्ति के एक अनुपात से अधिक आल-औलाद को न दे सकें, और उनके पूरे जीवन तक एक हिस्सा उनके इस्तेमाल के लायक बचा रहे। ऐसा कानून नई पीढ़ी को बूढ़े मां-बाप के भावनात्मक शोषण करने से रोकेगा। हम पहले भी एक बार सुझा चुके हैं कि वसीयत में संपत्ति पूरी की पूरी दे देने का प्रावधान नहीं होना चाहिए, और मां-बाप के मरने तक उनके काम चलाने लायक इंतजाम उनके नाम पर ही रहना चाहिए। इस बारे में कानून बनाने वाले लोग भी सोचें।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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