विचार / लेख

प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनहीन राजनीति
20-Nov-2023 8:47 PM
प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनहीन राजनीति

photo : twitter

-डॉ. आर.के. पालीवाल
दुनियां भर के वैज्ञानिकों की चेतावनियों और प्रकृति के विनाश, पर्यावरण असंतुलन, भयंकर वायु एवम जल प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम के कारण चारों तरफ घट रही दुर्घटनाओं की असंख्य चीखों के बावजूद हमारे देश के नीति नियंत्रक राजनीतिज्ञों और राजनितिक दलों में प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति जरा भी गंभीरता दिखाई नहीं देती। हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में जारी विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों और इन दलों के स्टार प्रचारकों के चुनावी भाषणों में इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कोई चर्चा तक नहीं है। यह तथ्य सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी मुख्य धारा की राजनीति ने आम आदमी और विशेष रूप से युवा पीढ़ी के लिए जीवन मरण के मुद्दे बन चुके प्रकृति और पर्यावरण के प्रति शुतुरमुर्ग जैसा रवैया अपना रखा है। सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न वर्गों के मतदाताओं के लिए तरह तरह के लोक लुभावन वादों की बौछार करने वाले दलों को इस बात की कतई चिंता नहीं दिखती कि चौतरफा प्रदूषण और जलवायू परिर्वतन हमारे करोड़ों नागरिकों के स्वास्थ्य और अर्थ व्यवस्था के लिए कितना बड़ा खतरा बनकर सामने खड़ा है।

जलवायु परिवर्तन भारत जैसे आबादी बहुल कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था को किस तरह बर्बाद कर सकता है इसके लिए चंद उदाहरण ही काफी हैं। मध्य प्रदेश में अक्टूबर और नवम्बर में सर्दी की जगह वसंत ऋतु जैसा मौसम है जिससे मुश्किल से एक महीने की सरसों पर समय से दो माह पहले फूल आने लगे हैं। इसी तरह आम के कुछ पौधों पर समय से दो महीने पहले बोर आने लगे हैं। वैज्ञानिक डॉ ओ पी सिंह के अनुसार इस तरह समय से पहले आए फूल और फल की फ़सल सामान्य से पचास प्रतिशत कम होती है। यह एक तरह से प्री मेच्योर डिलीवरी की तरह है। जलवायु के जरा से परिर्वतन से कृषि फसलों के उत्पादन पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इसकी सहज कल्पना इन दो हाल में घटित उदाहरणों से की जा सकती है।जल और वायु की गुणवत्ता लगातार नीचे गिरते गिरते खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है और शुद्ध जल और वायु की उपलब्धता आम आदमी के लिए असंभव होती जा रही है। मध्य प्रदेश में आम किसान भी यह जान रहा है कि इस बार रबी की फ़सल के लिए पानी की काफी किल्लत झेलनी पड़ेगी लेकिन राजनीतिज्ञ बेफिक्र हैं।

गोवा के गांधी विचारक और पर्यावरणविद कुमार कलानंद मणि बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन गोवा के उन निर्दोष किसानों को भी बहुत परेशान कर रहा है जिनका जलवायु परिवर्तन में कोई योगदान नहीं है। गोवा में काफी किसान आम की बागवानी करते हैं। इधर आम की फ़सल दो महीना विलंब से मार्च की जगह मई में आने लगी है और उसकी उपज भी घट रही है। आम की खेती घाटे का सौदा बन रही है। उनका कहना है कि यह केवल गोवा ही नही दक्षिण पश्चिम के कई प्रदेशों में फैले पश्चिम घाट में सब जगह हो रहा है। दिल्ली में प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने से सरकार को नवंबर में शिक्षण संस्थाओं को बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय को केंद्र और राज्य सरकार को समन्वय कर समस्या का त्वरित समाधान करने की नसीहत के साथ कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से भी यह प्रमाणित होता है कि सरकारों का रवैया प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील नहीं है। यह बेहद चिंता का विषय है कि पूरी राजनीति वोट बैंक के चक्कर में केवल लोक लुभावन योजनाओं तक सीमित हो गई है। इससे भी भयावह यह है कि अधिकांश जनता भी प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन है। यही रवैया रहा तो अभी कभी कभी होने वाली प्राकृतिक आपदाएं स्थाई हो जाएंगी, फिर उनके कहर से बचने का हमारे पास कोई उपाय नहीं होगा इसलिए इस मुद्दे पर हम सबको अविलंब चेतने की जरुरत है।

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