विचार / लेख

कपड़ा नहीं है साड़ी
24-Nov-2023 4:04 PM
कपड़ा नहीं है साड़ी

 सच्चिदानंद जोशी

दिवाली आते ही साफ सफाई का भूत सबके सिर पर सवार हो जाता है। हर बार घर का ज्यादा दिखने वाला सामान बाहर निकालने का संकल्प लिया जाता है। एक दो दिन उत्साह से काम भी किया जाता है और बाद में ये संकल्प अगली दिवाली तक के लिए मुल्तवी कर दिया जाता है। दो चार दिन लगातार छुट्टियां आ जाएं और पतिदेव घर पर मिल जाए तो फिर टांड ( जी हां आधुनिक भाषा में उसे द्यशद्घह्ल कहते हैं) या पलंग में बने बक्सों की सफाई का अतिरिक्त काम भी हाथ में लिया जाता है।

इस बार भी दो दिन की छुट्टियां साथ आ जाने से श्रीमती जी को पलंग के नीचे बक्से को खोलने का समय मिल गया। ये बक्से यानी पुरातत्व संरक्षण विभाग के गोदाम की तरह होते हैं। इन्हे खोलें तो ना जाने आपको क्या क्या मिल जाए। इन्हे खोलना यानी हड़प्पा , मोहन जो दारो की खुदाई करने जैसा है।

इनमे से एक बक्से में से दो बड़ी बड़ी गठरियां निकली। पुरानी साड़ी की गठरियाँ थी।

‘अरे ये मेरी साडिय़ां हैं। अब तो ये पहनी ही नहीं जाती। मैं तो ऊब चुकी हूं इन्हे पहन पहन कर। मै तो सब किसी किसी को दे देना चाहती हूं। ’ श्रीमती जी बोली। आगे का खतरा मैं भांप चुका था। यानी अब मेरी जिम्मेदारी सिर्फ बक्सा खोलने तक ही नहीं थी। मुझे गठरियां भी खोलनी थी।

मैने चुपचाप गठरियां खोली और आगे के आदेश का इंतजार करता रहा।

‘देखो हम इनमे से सॉर्ट आऊट कर लेते हैं कौन सी रखनी है और कौन सी देनी है। ‘आगे का फरमान आया। अब ‘ हम’ शब्द का तो कोई मतलब नहीं था। चयन उन्ही को करना था , अपन को तो सिर्फ हां में हां मिलानी थी। 

तभी घड़ी ने दस बजाए। घंटो का घनघनाना था कि श्रीमती जी को याद आया ‘अरे भगवान दस बज गए। अभी तो खाना बनना शुरू भी नहीं हुआ है। ‘श्रीमती जी हड़बड़ाकर बोली।  ‘ऐसा करो तुम साडिय़ां छांट लो। वैसे भी मैं तुमसे पूछकर ही साड़ी पहनती हूं। मैं तब तक दाल सब्जी छौंक कर आती हूं। ’

यानी अब सारी सफाई का दारोमदार हम पर ही था। दाल सब्जी छौंकने में श्रीमती जी को दो घंटे से कम तो लगने वाले नही थे। पूरे दो घंटे लगा कर साडिय़ां छांटी गई। जो साडिय़ां मेरी नजर में एकदम बेकार या देने लायक थी वे अलग रखी गईं और जो मुझे पसंद थी वे अलग रखी गई। कुछ साडिय़ों से मुझे विशेष प्रेम था वे अलग रखी गई।जो साडिय़ां देने के लिए रखी गई उनका ढेर बड़ा हो गया और दूसरा रखने वाली साडिय़ों का ढेर छोटा।

दो ढाई घंटे बाद श्रीमती जी लौटी तो काम की प्रगति देख खुश हुई। छोटा ढेर देख कर बोली ’ बस इतनी सी ही रिजेक्ट कर पाए। मैं होती तो एक दो को छोड़ कर पूरी रिजेक्ट कर देती।’ फिर उन्हें समझना पड़ा कि जिसे वह रिजेक्टेड माल समझ रहीं है दरअसल वही रखना है ,बाकी रिजेक्टेड वाला ढेर तो बड़ा है।

‘चलो ठीक है एक काम तो हुआ। मैं तो इनकी तरफ देखूंगी भी नही वर्ना मुझे इनमे से कुछ को रखने का मोह हो जाएगा। ‘श्रीमती जी ने कहा और मैने राहत की सांस ली कि चलो एक काम तो उनके हिसाब से संतोषजनक हुआ। इस संतोष के आनंद को महसूस ही कर रहा था कि श्रीमती जी एक साड़ी उठा कर बोली ’ अरे ये क्या किया , ये तो मेरी बहुत प्यारी साड़ी है, मां ने दी थी जब मेरी नौकरी लगी थी।  ‘उन्होंने वह साड़ी उस छोटे ढेर में रख दी जो वापिस बक्से में जानी थी। फिर उसके बाद दूसरी , तीसरी , चौथी वे साडिय़ां निकलती जा रही थी और हर साड़ी की कहानी सुनाती जा रही थी।पहली कमाई की साड़ी, मां की दी पहली साड़ी , दीदी की साड़ी, पहली बार मुंबई जाकर खरीदी साड़ी, पहली साड़ी नल्ली सिल्क की, पहली साड़ी कुमारन सिल्क की, मैने दी  हुई पहली साड़ी, पहली बार हम मिले वो साड़ी, मसूरी घूमने गए वो साड़ी , बुआ जी ने खुश होकर दी गई साड़ी , मौसी जी ने खीज कर दी हुई साड़ी। न जाने कितनी कहानियां।बड़े  ढेर से एक एक साड़ी निकाल कर छोटे ढेर में डाली जा रही थी और छोटा ढेर बड़ा होता जा रहा था।

तभी मेरी नजर एक साड़ी पर पड़ी जो एक पैकेट में पैक बंद पड़ी थी।

‘अरे ये पैक बंद है , इसे तो खोला भी नही कभी। ’ मैने कहा।

‘उसे वैसे ही रहने दो। ’ श्रीमती जी की आंखो में आंसू थे,। वो अपनी रो में बोले जा रही थीं, ’ स्कूल की फेयर वेल पार्टी थी। मां की साडिय़ां पुराने जमाने की थी इसलिए भाभी से उनकी नई साड़ी मांग ली। भाभी ने साफ मना कर दिया। कहने लगी बच्चों को नही दूंगी साड़ी खराब करने के लिए। मन बहुत खराब हो गया।

पड़ोस की पुष्पा भाभी से मेरी बहुत छनती थी

 उन्होंने मुझे मायूस देखा तो झट अपनी नई कोरी साड़ी निकाल कर दे दी।स्कूल में पहनी तो सबने बहुत तारीफ की। लेकिन वापिस आते समय एक हादसा हुआ । आपसी धक्का मुक्की में साड़ी टेबल में अटक कर फट गई। घर आई तो बहुत डर रही थी। डरते डरते पुष्पा भाभी को बताया। वो हंस कर बोली ‘अरे इतना परेशान क्यों होती हो , साड़ी तो मुझसे भी फट सकती थी।  ‘उन्होंने कहा और वह साड़ी मुझे ही दे दी। । मेरे मन पर बोझ था। मैने अपनी पॉकेट मनी और स्कॉलरशिप के पैसे बचा कर पुष्पा भाभी के लिए साड़ी खरीदी और उन्हें देने के लिए रखी। भाभी डिलिवरी के लिए अपने मायके आगरा गई थी। मैं उनका इंतजार करती रही लेकिन भाभी लौटी ही नहीं  । पता चला डिलिवरी के दौरान ही उनकी डेथ हो गई। तब से ये साड़ी ऐसे ही पैक बंद रखी है। ’

वातावरण थोड़ा भारी हो गया था। साडिय़ों के ढेर को व्यवस्थित करने के बहाने जब मैने एक और साड़ी को करीने से रखने की कोशिश की तो श्रीमती जी बोली ‘ये साड़ी याद है ना। इसी में विदा करा कर लाए थे आप। ’ उस साड़ी को मैं भला कैसे भूल सकता था। तभी उस ढेर में से एक  सूती चादर नुमा साड़ी भी निकली। जिसे देख कर हम दोनो ही हंस पड़े । ‘याद है न इस साड़ी को ओढ़ कर सोना पड़ा था आपको शादी की रात।  श्रीमती जी बोली।

‘कैसे भूल सकता हूं। अजीब रिवाज था तुम लोगो का। आज विदा नही होगी।दूल्हे को भी रुकना पड़ेगा। अरे भाई रोका तो बेचारे को ढंग से ओढऩे बिछाने को तो देते। उस हाल में बाकी सब तो अपना बिछा ओढ़ कर सो गए। दूल्हा बेचारा ठंड के मारे कुडकुड़ा रहा है। आखिर तारा बाई को दया आई और उसने ये साड़ी चौघडी करके मेरे बदन पर डाली। ’ शादी की रात के मेरे जख्म हरे हो गए।

बात बात में रिजेक्ट होने वाला पूरा ढेर अपना पाला बदल चुका था ।

‘अरे ये क्या हुआ । हम तो कोई भी साड़ी रिजेक्ट नही कर पाए। लेकिन क्या करें , हर साड़ी के साथ कोई न कोई यादगार जुड़ी है। फेंकने का मन ही नही होता।।’

मेरी दो ढाई घंटे की मेहनत पर पानी फिर रहा था। तभी एक कोने में पड़ी साडिय़ों को देखकर श्रीमती जी बोली  ‘अरे वो कौन से साडिय़ां हैं ये तो मैने देखी नही। किसी ने ऐसे ही दी होंगी। बहुत पुरानी भी हो गई हैं। इन्हे चाहें तो रिजेक्ट कर सकते हैं। ’

‘ये साडिय़ां मैने अलग रखी हैं। जहां इतनी साडिय़ां रखी हैं ये तीन और रख लो। ’  मैने कहा।

‘रख लेंगे , लेकिन ये हैं किसकी।’

‘ये मेरी दादी की साड़ी है। पिताजी इसे हमेशा अपने ट्रंक में सबसे नीचे तहा कर रखते थे। एक बार पूछने पर बताया था उन्होंने कि ये साड़ी रहती है तो दादी पास होने का अहसास बना रहता है।’

‘और ये दूसरी?’ श्रीमती जी ने पूछा ।

‘ये मेरी प्यारी ताई जी  की साड़ी है जो उन्होंने मेरे जनेऊ में पहनी थी। मेरा और दादा का जनेऊ साथ हुआ था न, तो मेरे संस्कार ताऊ जी ताई जी ने किए थे। ताई जी मजाक में बोली’ मैं आज से तेरी मां बन गई। ‘वो बहुत प्यार करती थी मुझे।  उसके कुछ दिन बाद मैं उनसे मांग कर ये साड़ी ले आया था।’

एक और साड़ी कोने में पड़ी थी उपेक्षित सी।

‘ये भी आपने ही सहेज कर रखी होगी। ये किसकी की है?’श्रीमती जी की पूछताछ जारी थी।

‘जहां ये सारी साडिय़ां रखी हैं , इसे भी पड़ी रहने दो।’ मैने उस साड़ी को भी उसी ढेर में मिला दिया और खोली गठरियों को फिर से बांधने लगा। श्रीमती जी भी उन गठरियों को बांधने में मदद कर रही थीं।

‘आपने बताया नही वो आखरी साड़ी किसकी थी।’ गठरी की गांठ बांधते हुए उन्होंने पूछा। मैने उनकी बात को अनसुना कर दिया। क्या बताता , जिसके लिए खरीदी थी वह तो हजारों मील दूर ह्यूस्टन में अपने परिवार के साथ अपनी दुनिया में रम चुकी थी।

‘ दो बज गया , चलो खाना खाते हैं। ’

मैने कहा और गठरी की गठान कस कर बांध दी।

सफाई के उत्साह में तो हम भूल ही गए थे कि साड़ी यानी सिर्फ साढ़े पांच  मीटर का कपड़ा नहीं है । वह तो यादों का , परंपराओं का ,इतिहास का संस्कारों का बहुत बड़ा भंडार है।

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