विचार / लेख
-प्रमोद जोशी
आज़ादी का आंदोलन बीस के दशक से सन 47 तक सबसे जोरदार तरीके से चला था। उस दौरान ही हमने अपनी भावी व्यवस्था के बारे में विचार किया। आधारभूत संवैधानिक उपबंध आजादी के एक दशक पहले से तैयार थे। उसके काफी तत्व अंग्रेजों ने हमें बनाकर दिए थे। पच्चीसेक साल के उस दौर में हमारी कोशिश थी कि सत्ता हाथ में आ जाए, बाकी काम हम कर लेंगे। सत्ता हासिल करने के 76 साल बाद भी सुराज की परिभाषाएं गढ़ी जा रहीं हैं।
भ्रष्टाचार सिर्फ वित्तीय अनियमितता का नाम नहीं है। वह हमारे संस्कारों में बसा है। इसकी वजह शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराएं और वे स्थितियाँ हैं जो हमें स्वार्थी बनाती हैं। असमानता और भेदभाव का अपने किस्म का सबसे बड़ा उदाहरण हमारा देश है। ज़रूरत इस बात की है कि हमारा लोकतंत्र और नीचे तक जाए। जनता को छुए। उससे मशवरा करे। लोकतंत्र अब सिर्फ उन्ही प्रतिनिधि संस्थाओं तक सीमित नहीं है, जिनकी रचना सौ साल या उससे भी पहले हुई थी। अब डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात फिर से होने लगी है। इसे कंसेंसस डेमोक्रेसी, डेलीबरेट डेमोक्रेसी, सोशियोक्रेसी, ओपन सोर्स गवर्नेंस, इनक्ल्यूसिव डेमोक्रेसी, ई-पार्टिसिपेशन जैसे तमाम नए नाम मिल रहे हैं। टेक्नॉलजी ने सोशल नेटवर्किंग के जो टूल दिए हैं, वे आज नहीं तो कल इस भागीदारी को कोई शक्ल देंगे।
इसका अर्थ संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं। नए ढंग से परिभाषित करना है। संवैधानिक संस्थाएं ही इस नई परिस्थिति की रचना करेंगी। हमने आर्थिक उदारीकरण और पंचायत राज कानून के तीन दशक पूरे कर लिए हैं। दोनों में तादात्म्य की ज़रूरत है। यह व्यवस्था का खोट है कि देश के सौ से ज्यादा जिले नक्सली हिंसा की चपेट में हैं। यह विदेशी साजिश नहीं है। मुख्यधारा-राजनीति की पराजय है। जो काम हम फौज से कराना चाहते हैं, वह राजनीति आसानी से कर सकती थी। इसके लिए हमें उन लोगों को इस विमर्श में शामिल करना था, जो आज बंदूक लेकर खड़े हैं। दुर्भाग्य है कि मुख्यधारा की राजनीति कई राज्यों में नक्सलियों का इस्तेमाल अपने हित में करती है।