संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : छुट्टियों की राजनीति से किसका फायदा होता है?
28-Nov-2023 4:46 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : छुट्टियों की राजनीति से  किसका फायदा होता है?

बिहार में स्कूल-छुट्टियों की अगले बरस की जो लिस्ट आई है उसमें मकर संक्रांति, रक्षाबंधन, भाईदूज, और (हरतालिका) तीज की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं। सरकार का कहना है कि साल में कम से कम 220 दिन स्कूल खुलें इस हिसाब से छुट्टियां घटाई गई हैं। बिहार से केन्द्र सरकार में मंत्री गिरिराज सिंह ने इसे एक तुगलकी फरमान ठहराया है, और कहा है कि हिन्दुओं के महापर्व शिवरात्रि, जन्माष्टमी पर छुट्टियां काट दी गई हैं, और ईद और बकरीद जैसे मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। अपने मिजाज और अपनी सोच के मुताबिक गिरिराज सिंह का कहना है कि बिहार सरकार इस्लामिक आधार पर काम कर रही है, इसी वजह से अररिया, पूर्णिया और कटिहार की स्कूलों में शुक्रवार की छुट्टी दी जा रही है। उन्होंने कहा कि ये सरकार शुक्रवार को इस्लामिक छुट्टी बनाने की योजना बना रही है। यही आरोप बिहार के एक दूसरे बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने लगाया है कि हिन्दुओं के पर्वों पर छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, और मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। बिहार बीजेपी ने इसे इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ बिहार बताकर ट्विटर पर पोस्ट किया है। बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू का कहना है कि शिवरात्रि की छुट्टी रद्द नहीं हुई है, यह आरोप गलता है, बल्कि दशहरे की छुट्टी एक दिन बढ़ा दी गई है। उन्होंने कहा कि यह भी सही है कि अल्पसंख्यकों की छुट्टी बढ़ा दी गई है, हालांकि एक मुस्लिम छुट्टी घटा दी गई है। बिहार में पिछले बरस भी छुट्टियों में बदलाव को लेकर विवाद हुआ था।

हम सिर्फ बिहार के मुद्दे पर अधिक खुलासे में जाना नहीं चाहते, किस धर्म की कितनी छुट्टियां रहें, और किस त्यौहार पर कितने दिन रहें, कितनी छुट्टियां सबके लिए रहें, और कितनी छुट्टियां मर्जी से लेने की रहें, इसे लेकर कई तरह की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। लेकिन हमारा सबसे ऊपर यह मानना है कि चाहे सरकारी दफ्तर रहें, चाहे स्कूल-कॉलेज रहें, सबसे पहले तो कामकाज और पढ़ाई-लिखाई के न्यूनतम दिन तय होने चाहिए। उसके बाद ही किसी तरह की छुट्टी के बारे में सोचा जाना चाहिए। आज हिन्दुस्तान की संस्कृति कामकाज से ऊपर उठ गई है, और अब महज छुट्टियों की बात होती है। काम या पढ़ाई की जिम्मेदारी की बात नहीं रहती, सिर्फ अधिकारों की बात होती है। यह सिलसिला देश को गड्ढे में ले जा रहा है क्योंकि लोगों की जिंदगी के दिन सीमित रहते हैं, उनके पढ़ाई के दिन और कामकाजी दिनों की भी सीमा रहती है, और सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्हें पुरानी पेंशन योजना के तहत अधिक भुगतान होना चाहिए, यह देश में आज एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। 

हम इन तमाम मुद्दों को एक साथ लेकर इसे सुलझाए न जा सकने वाले ऊन के उलझे हुए गोले जैसा नहीं बनाना चाहते। इसलिए एक सीधी सरल बात यह है कि छुट्टियां कितनी हों, और कब-कब हों, इन्हें तय करते हुए यह भी देखना चाहिए कि छुट्टियों से परे कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं का जो बुनियादी काम है उसके लिए कितना वक्त तय किया जा रहा है? कहने के लिए दर्जनों धार्मिक त्यौहारों पर, और दर्जनों जयंती या पुण्यतिथि पर लोगों को छुट्टियां मिलती हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनमें से बहुत कम से उनका ऐसा लेना-देना रहता है कि उन्हें अपने बुनियादी काम से परे इस छुट्टी से जुड़ी बातों को पूरा करना पड़े। किसी महान व्यक्ति की जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर मिली छुट्टी उनके प्रति सम्मान के प्रदर्शन के अलावा क्या होती है? क्यों गांधी जयंती पर, या नेहरू के जन्मदिन पर छुट्टी होनी चाहिए? क्यों किसी शहादत के दिन छुट्टी होनी चाहिए? लोगों को अगर सचमुच किसी का सम्मान करना है, तो उस दिन लोग एक-दो घंटे अधिक काम कर लें, छात्र-छात्राएं दो-चार घंटे अधिक पढ़ लें। और अगर इतने से भी सम्मान पूरा नहीं होता है तो फिर लोग अपने दफ्तर या स्कूल-कॉलेज के बाद कुछ घंटे की समाजसेवा कर लें, गांधी या नेहरू या किसी और की स्मृति के लिए यह बेहतर तरीका होगा। लोग सफाई कर लें, पेड़ लगा लें, अस्पताल जाकर गरीब मरीजों की मदद कर दें, खुद सेहतमंद हों तो रक्तदान कर दें, सडक़ किनारे कोई बीमार और भूखे दिखें, तो उन्हें कुछ खिला दें, फुटपाथी बच्चों को कोई कपड़े दिलवा दें। किसी त्यौहार या खास दिन को मनाने के हजार ऐसे तरीके हो सकते हैं जो कि छुट्टियों से परे के हों। और इसके बाद सरकार चाहे तो हर किसी को यह छूट दे सकती है कि वे साल में कितने दिन छुट्टी ले सकते हैं, ताकि वे अपनी मर्जी से, अपनी जरूरत के मुताबिक छुट्टी लें, और उसका इस्तेमाल भी कर सकें। वैसे भी छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, और पूरी की पूरी केन्द्र सरकार में पांच दिन का ही हफ्ता होता है, और लोग साल में 104 दिन तो सप्ताहांत की छुट्टी ही मनाते हैं। इससे परे बहुत से और त्यौहार हैं, दिवस हैं, और बीच में पडऩे वाले इक्का-दुक्का कामकाजी-दिनों पर लोग और छुट्टियां ले लेते हैं ताकि उन्हें एक साथ कई दिन की छुट्टी मिल जाए। ऐसा लगता है कि छुट्टियों का इंतजाम करना, और बाकी वक्त उनका इंतजार करना ही हिन्दुस्तान का वर्क-कल्चर हो गया है। देश-प्रदेश में कहीं भी लोग कामकाज या पढ़ाई के लिए आंदोलन करते नहीं दिखते। जिन छात्र-छात्राओं की आगे की जिंदगी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पर है, वे भी पढ़ाई की मांग नहीं करते। कुछ गिने-चुने मामलों में स्कूली बच्चे जरूर हड़ताल पर दिखते हैं, जहां उन्हें पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं हैं, या 6-8 कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक ही शिक्षक है। इन बच्चों को छोडक़र कहीं कोई पढ़ाई के लिए हड़ताल करते नहीं दिखते। फिर चाहे आगे जाकर उनकी बाकी जिंदगी पढ़ाई की कमी से बर्बाद ही क्यों न हो जाए। ठीक ऐसा ही हाल सरकारी कर्मचारियों का रहता है जो कि काम की जवाबदेही की बात भी करना नहीं चाहते, और महज छुट्टियों और सहूलियतों को लेकर हंगामा करते हैं। 

हम बिहार के इस हिन्दू-मुस्लिम छुट्टी-विवाद में पड़े बिना सिर्फ यह कह रहे हैं कि देश में सभी तरह की छुट्टियां खत्म कर देना चाहिए, और एक गिनती जारी कर देनी चाहिए कि कौन लोग कितने दिन की छुट्टियां ले सकते हैं, एक साथ अधिकतम कितने दिन की ले सकते हैं ताकि पढ़ाई और काम बर्बाद न हों। 15 अगस्त और 26 जनवरी की छुट्टी भी कौन लोगों में देश के लिए कोई परवाह पैदा कर पाती हैं। अगर परवाह ही पैदा हुई रहती तो लोग देश के लिए अधिक काम करने की बात करते, अधिक छुट्टियां जुटाने के लिए संघर्ष नहीं करते। महान व्यक्तियों के स्मृति दिवसों पर, या त्यौहारों पर छुट्टी को लोगों की मर्जी पर छोडऩा चाहिए, जिनका उनसे लेना-देना न हो, वे क्यों काम या पढ़ाई न करें? छुट्टियों का जिंदगी में राजनीति से अधिक इस्तेमाल होना चाहिए। देश या प्रदेश के स्तर पर कोई भी छुट्टी तय नहीं होनी चाहिए, और गिनी-चुनी छुट्टियां जिला या शहर स्तर पर तय हों, और बाकी छुट्टियां लोगों को मर्जी से लेने दी जाएं। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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