संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ओपिनियन से लेकर एक्जिट पोल तक का क्या किया जाए
01-Dec-2023 4:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ओपिनियन से लेकर एक्जिट पोल तक का क्या किया जाए

Photo: IANS

जब दो दिन बाद ही पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आने जा रहे हैं, तब कल आए हुए एक्जिट पोल के नतीजों के आधार पर अधिक अटकल लगाना ठीक नहीं है। जिस सर्वे एजेंसी या जिस मीडिया-संस्थान के सर्वे सही निकलेंगे, वे भी चुनावी इतिहास में ठीक से दर्ज हो जाएंगे, जिनके गलत निकलेंगे, उनको भी अगले किसी चुनाव में उनके सर्वे-नतीजों पर चर्चा के दौरान याद रखा जाएगा। आज भी किसी एजेंसी या संस्था के निष्कर्ष पर विचार करते हुए समझदार लोग उनके पहले के अनुमानों की कामयाबी को भी देख लेते हैं। कुछ के अनुमान सचमुच ही सही निकले हुए हैं, और कुछ के तीर निशाने से इतने परे जाकर गिरे थे कि उन्हें कायदे से तो अगले कुछ  चुनावों के लिए अपने आपको सर्वे से दूर कर लेना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। नाकामयाबी के बाद भी लोग अपने पापी पेट के लिए धंधे में तो बने ही रहते हैं। कई उम्मीदवार चुनाव दो-तीन बार हारने के बाद भी चौथी बार लडऩे की हिम्मत भी रखते हैं, और पार्टी की टिकट भी जुटा लेते हैं। 

लेकिन हम एक्जिट पोल की बात पर लौटें, तो ऐसे तमाम चुनावी सर्वे पारदर्शी होने चाहिए। उनमें सैम्पल साईज का साफ-साफ जिक्र होना चाहिए, और अगर वे मतदान के पहले के ओपिनियन पोल हैं, तो यह भी जिक्र होना चाहिए कि वे किन तारीखों के बीच किए गए हैं। यह भी जिक्र होना चाहिए कि किसी पार्टी की किसी बड़ी घोषणा के पहले किए गए हैं, या बाद में। हमारा यह भी ख्याल है कि किसी अध्ययन संस्थान को हर बड़े चुनाव के बाद उस पर किए गए ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल की कामयाबी या नाकामयाबी पर भी विश्लेषण करना चाहिए, और उसे लोगों के सामने रखना चाहिए। देश में आज कुछ ऐसे जनसंस्थान हैं जो कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों का विश्लेषण करके आंकड़े सामने रखते हैं कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार किस-किस किस्म के जुर्म में फंसे हुए हैं, किसकी कितनी दौलत है, किसकी कितनी पढ़ाई-लिखाई है, उन पर कर्ज कितना है। ऐसी एक संस्था चुनाव के बाद यह विश्लेषण भी लोगों के सामने रखती है कि नई बनी संसद या विधानसभा के कितने सदस्य किस उम्र-वर्ग के हैं, कितनों की दौलत कितनी है, महिला और पुरूष का अनुपात क्या है। 

हमारा ख्याल है कि मीडिया संस्थानों और सर्वे एजेंसियों के दावों की एक साफ-सुथरी पड़ताल होनी चाहिए कि बीते कई चुनावों में उनके अनुमानों में कितने सही निकले कितने गलत। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि वोटरों को प्रभावित करने के लिए कई किस्म के प्रायोजित ओपिनियन पोल भी होते हैं, कई मीडिया संस्थान अपने पेशे से बिल्कुल परे जाकर राज्यों और मुख्यमंत्रियों की कई तरह की तथाकथित रैंकिंग भी करते हैं, और उन्हें झूठी शोहरत हासिल करने के मौके बेचते हैं। यह सारा सिलसिला उजागर होना चाहिए। सत्ता के हाथों में खेल रहे मीडिया संस्थानों से परे जनता को हकीकत पता लगना चाहिए। और इसके लिए एक स्वतंत्र जनसंगठन की जरूरत है, या किसी प्रतिष्ठित अध्ययन और शोध संस्थान की, जो कि न मीडिया के कारोबार में हो, और न ही सर्वे के कारोबार में। 

अगर जनता का रूझान जानने का कोई जरिया हो सकता है, तो उसका इस्तेमाल एक लोकतांत्रिक औजार की तरह तो ठीक है, लेकिन भाड़े के हत्यारे किराए पर लेने की ताकत रखने वाले उम्मीदवार, या ऐसी ताकतवर पार्टी के लिए हथियार की तरह अगर इनका इस्तेमाल होने लगेगा, लंबे समय से हो भी रहा है, तो फिर इन धंधों की साजिशों का भांडाफोड़ होना भी जरूरी है। आज भी जब हम ओपिनियन पोल या एक्जिट पोल को एक नजर में देखते हैं तो कम से कम कुछ मीडिया संस्थानों के पेश किए गए आंकड़े साफ-साफ उस संस्थान के पूर्वाग्रहों से दबे-कुचले दिखते हैं। कुछ ऐसे टीवी चैनल या प्रकाशन समूह हैं जो कि जिस राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ रोज जहर उगलते हैं, उसी प्रतिबद्धता के साथ उनके सर्वे के आंकड़े भी सामने आते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि सर्वे एजेंसी भी अपने साथ काम करने वाले मीडिया संस्थान के प्रति प्रतिबद्धता अधिक दिखाती हैं, सच के प्रति कम। इसलिए इस पूरे धंधे की जवाबदेही तय होनी चाहिए। एक ऐसा अध्ययन हर चुनाव के पहले सामने आना चाहिए कि उस प्रदेश या पूरे देश के पिछले कई चुनावों में किसके सर्वे के आंकड़े निशाने पर थे, या निशाने से कितने दूर थे। जब लोगों के सामने इस धंधे की शोहरत की हकीकत उजागर होगी, तो फिर लोग विश्वसनीयता का अपना पैमाना बनाकर ही किसी के आंकड़े देखेंगे। 

इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ओपिनियन पोल, और एक्जिट पोल को नतीजों के साथ जोडक़र उसका एक विश्लेषण करने की कोशिश हम भी करेंगे, लेकिन इसके लिए एक बड़ी रिसर्च टीम की जरूरत होगी जो कि कोई बड़ा जनसंगठन, या कोई शोध संस्थान आसानी से जुटा सकते हैं। हमारा तो यह भी मानना है कि आईआईएम जैसे देश के प्रतिष्ठित मैनेजमेंट शिक्षण संस्थान को लोकतंत्र के चुनाव, जनमत, और तरह-तरह के पोल का प्रबंधन भी पढ़ाना चाहिए, और इन संस्थानों को इन पर लगातार शोध करके अपनी रिपोर्ट लोगों के सामने रखना चाहिए। जब देश में इतने काबिल संस्थान हैं जहां से निकले हुए लोग पूरी दुनिया के कारोबार-जगत पर राज करते हैं, तो क्षमता का इस्तेमाल भारत के लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए भी करना चाहिए। हम तो यह भी चाहेंगे कि अलग-अलग पार्टियों के चुनावी वायदों और उनके आर्थिक पहलुओं पर भी मैनेजमेंट संस्थानों को रिसर्च-रिपोर्ट बनानी चाहिए। और इस पर भी रिसर्च करना चाहिए कि चुनाव जीतने की राजनीतिक लागत से परे सरकारी लागत कितनी आती है ताकि यह साफ हो कि महज चुनाव जीतने के लिए विकास की संभावनाओं को किस हद तक गिरवी रख दिया जाता है, या बेच दिया जाता है। लोकतंत्र में चुनाव और शासन, संसद-विधानसभा, मीडिया, जनमत, इन सारे पहलुओं पर अधिक विस्तार से, अधिक गहराई से, गंभीर पारदर्शी रिसर्च होनी चाहिए, और उसके नतीजों को जनता के सामने रखना चाहिए। ऐसे राजनीतिक शिक्षण से ही लोगों की लोकतांत्रिक-चेतना बेहतर हो सकती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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