विचार / लेख

छत्तीसगढ़ : भूपेश बघेल और कांग्रेस क्यों नहीं समझ पाए हवा का रुख, बीजेपी ने कैसे मारी बाजी
04-Dec-2023 10:34 PM
छत्तीसगढ़ : भूपेश बघेल और कांग्रेस क्यों नहीं समझ पाए हवा का रुख, बीजेपी ने कैसे मारी बाजी

-आलोक प्रकाश पुतुल
यह 2003 का किस्सा है। छत्तीसगढ़ में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से मैंने पूछा था कि ताज़ा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से कितनी सीटें मिलेंगी?

48 विधायकों के साथ सत्ता की कमान संभालने वाले अजीत जोगी ने भाजपा विधायकों को तोड़ कर, कांग्रेस विधायकों की संख्या को 62 तक पहुंचा दिया था।

अजीत जोगी ने जवाब दिया, ‘अभी से ज़्यादा!’

लेकिन विधानसभा चुनाव में 62 सीटों वाली कांग्रेस, 37 सीटों पर सिमट कर रह गई और भाजपा ने 50 सीटें हासिल कर के राज्य में अपनी सरकार बना ली थी।
बीस साल बाद, इतिहास ने फिर से अपने को दुहरा दिया है।

2018 के चुनाव में 68 सीटें हासिल कर के सरकार बनाने वाली कांग्रेस पार्टी ने, ताज़ा चुनाव में 75 पार का नारा दिया था। लेकिन हालत 2003 जैसी हो गई।

‘बघेल के अहंकार को जवाब’
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं, ‘जनता ने भूपेश बघेल के अहंकार को जवाब दिया है। पांच सालों तक कांग्रेस के भ्रष्टाचार को जनता ने जवाब दिया है। यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में लड़ा गया था, उनकी गारंटी पर जनता ने भरोसा जताया और भूपेश बघेल की सरकार और उनके अधिकांश मंत्रियों को नकार दिया।’

ताज़ा चुनाव में कांग्रेस के अधिकांश दिग्गज़ नेता हार गए हैं।

ताज़ा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने अपनी उपस्थिति ज़रूर दजऱ् कराई लेकिन दूसरी पार्टियों का बड़ा असर होने की संभावना धरी रह गई। इसके उलट अधिकांश सीटों पर भाजपा ने बड़े अंतर से चुनाव जीतने में सफलता पाई है और भारी अंतर से हार के कई रिकॉर्ड भी बने हैं।

हालत ये है कि पिछले चुनाव में पूरे राज्य में सर्वाधिक 59284 वोटों के अंतर से कवर्धा से जीत हासिल करने वाले मंत्री और सरकार के प्रवक्ता मोहम्मद अक़बर भी 39,592 वोटें के अंतर से चुनाव हार गए हैं। कवर्धा में पिछले दो सालों से सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बना हुआ था।

उप-मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव अंबिकापुर से चुनाव हार गए हैं।

इसी तरह कवर्धा के पड़ोस की साजा सीट से, राज्य के दूसरे कद्दावर मंत्री और सरकार के दूसरे प्रवक्ता रवींद्र चौबे भी चुनाव हार गए हैं। इसी साल अप्रेल में, साजा के बीरनपुर गांव में हुए सांप्रदायिक दंगे में एक युवक भुवनेश्वर साहू की हत्या कर दी गई थी। दो दिन बाद इसी गांव में दो मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। राज्य सरकार ने हिंदू युवक के परिजनों को 10 लाख रुपये और नौकरी देने की घोषणा की थी लेकिन मुसलमानों के लिए सरकार ने कोई मुआवज़ा घोषित नहीं किया और परिजनों को हाइकोर्ट जाना पड़ा।

भारतीय जनता पार्टी ने इस साजा सीट पर भुवनेश्वर साहू के मज़दूर पिता ईश्वर साहू को अपना उम्मीदवार बनाया था।

हिंदुओं के साथ खड़ी दिखने की कोशिश करने वाली कांग्रेस सरकार, अपनी इस पारंपरिक सीट साजा को भी नहीं बचा पाई और रवींद्र चौबे हार गए।

हिंदुत्व काम न आया
2018 में सत्ता में आने से पहले ही ‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी, नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ का नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आते ही, नदी नालों, गौवंश, जैविक खाद और सब्जी उगाने वाली बाड़ी को प्रोत्साहित करने की योजना पर काम शुरू किया लेकिन सरकार ने मूल रूप से गोबर खऱीदने की अपनी योजना को ही सर्वाधिक प्रचारित किया। धीरे से सरकार ने गोमूत्र की भी खऱीदी शुरू कर दी।

इस बीच सरकार, राज्य भर में राम रथ यात्रा में भी जुटी रही।

कांग्रेस सरकार उस राम वन गमन पथ का निर्माण करने में जुटी रही, जो मूलत: आरएसएस और भाजपा का एजेंडा था। भगवान राम की माता कौशल्या के नाम पर बनाए गए मंदिर के सौंदर्यीकरण और उसे प्रचारित करने का कोई अवसर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने हाथ से जाने नहीं दिया। जगह-जगह भगवान राम की विशालकाय मूर्तियों की स्थापना तो जैसे सरकार की प्राथमिकता में शामिल रही।

एक तरफ़ आदिवासी आस्था के प्रतीकों को हिंदू देवी-देवताओं से जोडऩे का काम कांग्रेस पार्टी की सरकार करती रही, वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के विरोध के बाद भी, अंतरराष्ट्रीय रामायण महोत्सव और गांवों में मानस प्रतियोगिता जैसे आयोजनों का सिलसिला राज्य भर में जारी रहा।

कांग्रेस नेताओं के संरक्षण में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए आयोजित गोष्ठियों की चर्चा तो देश भर में हुई।

इसी तरह, ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों पर हमले, उनके शवों को उखाड़ कर फेंकने और प्रार्थना स्थलों पर तोडफ़ोड़ के जितने मामले रमन सिंह की सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुए थे, उससे कई गुना अधिक मामले कांग्रेस की पांच साल के कार्यकाल में सामने आए।

सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वाले हिंदुओं को मुआवजा और नौकरी और इसके ठीक उलट ऐसी ही हिंसा में मारे जाने वाले मुसलमानों की उपेक्षा के बाद, राज्य में मान लिया गया था कि छत्तीसगढ़ की लगभग चार फ़ीसद की अल्पसंख्यक आबादी की परवाह कम से कम कांग्रेस पार्टी को तो नहीं ही है।

लेकिन हिंदुत्व का जो मैदान कांग्रेस पार्टी ने तैयार किया, विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उसी मैदान पर कब्ज़ा कर के अपनी जीत दजऱ् की।

छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संवाद प्रमुख कनीराम नंदेश्वर ने बीबीसी से कहा, ‘कांग्रेस सरकार ने हिंदुत्व के मुद्दों को स्पर्श करने की कोशिश तो की लेकिन उसमें ईमानदारी नहीं थी। इसकी आड़ में तुष्टिकरण किया गया। इसी तरह राज्य भर में धर्मांतरण की घटनाएं बढ़ीं और रही-सही कसर बेमेतरा में हुए उस दंगे ने पूरी कर दी, जिसमें एक हिंदू युवा को दिन-दहाड़े मार डाला गया।’

हालांकि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला इससे सहमत नहीं हैं।

सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ‘हमारे लिए हिंदुत्व वोट का कभी मुद्दा था ही नहीं। वह छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सहेजने की प्रक्रिया थी। हालांकि हमने जनविकास के लिए लगातार पांच साल काम किया। जनता के लिए ताज़ा चुनाव में भी कांग्रेस ने कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की थी, लेकिन जनता को भाजपा ने झूठ बोल कर भरमाया और जीत हासिल की।’

कहां पिछड़ गई कांग्रेस?
सुशील आनंद शुक्ला जिन महत्वपूर्ण घोषणाओं की याद दिलाते हैं, उनमें देश में सर्वाधिक 3200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी, किसानों की कजऱ् माफ़ी, स्व-सहायता समूह की कज़ऱ् माफ़ी, केजी से पीजी तक मुफ़्त पढ़ाई, 200 यूनिट तक मुफ़्त बिजली बिल, महिलाओं को हर साल 15 हज़ार रुपये जैसे वादे शामिल थे।
इसके मुक़ाबले भाजपा ने विवाहित महिलाओं को हर साल 12 हज़ार देने और 31 सौ रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी का वादा किया था। भाजपा ने महिलाओं को 12 हज़ार की रक़म देने को लेकर महिलाओं से बड़ी संख्या में फॉर्म भी भरवाए। इसका भी बड़ा असर माना जा रहा है।

लेकिन पिछले चुनाव में कांग्रेस ने शराबबंदी, नक्सल मुद्दों पर शांति वार्ता, हसदेव में खदानों को बंद करने, बेरोजग़ारों और महिलाओं को नक़द रक़म देने जैसे वादे भले पूरा न किया हो लेकिन कज़ऱ् माफ़ी और धान खऱीदी ने किसानों के बीच सरकार की लोकप्रियता बढ़ा दी थी। इसके अलावा 200 यूनिट तक बिजली बिल आधा करने का वादा भी कांग्रेस ने पूरा किया था।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखऱि ताज़ा चुनाव में, इतनी लाभकारी योजनाओं की घोषणा के बाद भी जनता ने कांग्रेस पार्टी को क्यों नकार दिया?

राजधानी रायपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘सरकार का अहंकार और अतिआत्मविश्वास उसे ले डूबा। कांग्रेस ने 75 पार की घोषणा की और कार्यकर्ता कमज़ोर पड़ गए कि अब इतनी सीटें तो जीत ही रहे हैं। इसके अलावा भूपेश बघेल ने पांच साल मुख्यमंत्री रहने के चक्कर में पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया था। मंत्रियों के पर कतर दिए गए थे। विधायकों के काम नहीं हो पा रहे थे। विधायकों के ख़िलाफ़ अलोकप्रियता थी। यही कारण है कि पार्टी ने 71 में से 20 विधायकों की टिकट ताज़ा चुनाव में काट दी थी। लेकिन यह भी काम नहीं आया। आईएएस, आईपीएस अफ़सरों का हर चार-पांच महीने में तबादला इस तरह हो रहा था, जैसे तबादला यहां उद्योग हो।’

‘जनता से कटे नेता’
राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि पांच साल में एक के बाद एक कोयला घोटाला, शराब घोटाला, डीएमएफ़ घोटाला जैसे आरोप, ईडी और आईटी की छापामारी, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों के इन आरोपों में जेल भेजे जाने जैसे मुद्दों ने भी असर डाला। सरकार के अधिकांश विभागों में भ्रष्टाचार के मामले आम रहे।

यहां तक कि पीएससी में भी पीएससी अध्यक्ष के परिजनों, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों-नेताओं के बच्चों के शीर्ष पदों पर चयन को लेकर भी युवाओं में आक्रोश था। लेकिन सरकार इसकी जांच से भी बचने की कोशिश करती रही। उलटे इस मामले में अभियुक्तों का बचाव किया गया।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘बस्तर की सभी 12 और सरगुजा की सभी 14 सीटें कांग्रेस के पास थी। लेकिन इन पांच सालों में हसदेव से लेकर सिलगेर तक दो दर्जन से अधिक जगहों पर आदिवासियों के आंदोलन चलते रहे और साल-साल भर तक चलने वाले इन आंदोलनों की सरकार ने न केवल अनदेखी की, कुछ इलाकों में तो इन आंदोलनों का दमन भी किया गया। बस्तर में हुए फजऱ्ी मुठभेड़ों की न्यायिक जांच पर भी कार्रवाई करने के बजाय सरकार ने उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया।’

आलोक शुक्ला का कहना है कि सत्ता में आने के बाद से ही ‘मुख्यमंत्री ज़मीन से दूर होते चले गए। जन आंदोलनों से सरकार और कांग्रेस पार्टी ने न केवल दूरी बना ली थी, बल्कि मुख्यमंत्री ने जन आंदोलन के नेताओं के खिलाफ, सार्वजनिक तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करने का कोई अवसर नहीं जाने दिया। इसी तरह कांग्रेस के ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भी हाशिए पर डाल दिया गया।’

कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला हालांकि इससे इनकार करते हैं। उनका कहना है कि एक बार कांग्रेसजन बैठेंगे, चिंतन-मनन करेंगे।

वे राजनीति का एक स्थाई वाक्य ज़रूर दुहरा रहे हैं, ‘जनता का निर्णय शिरोधार्य है।’ (bbc.com/hindi)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news