संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेटे को मार बैग में लाश लेकर सफर करती हुई मां की हिंसा से उठे कई सवाल
09-Jan-2024 3:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बेटे को मार बैग में लाश लेकर सफर करती हुई मां की हिंसा से उठे कई सवाल

हिन्दी फिल्मों की मेहरबानी से लोगों के मन में एक बात बड़ी गहरी बैठी रहती है कि खून के रिश्ते से बढक़र और कुछ नहीं होता। लोग यह मान लेते हैं कि अपना खून तो अपना ही होता है, और यही अंतिम सत्य मानकर लोग अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। हो सकता है कि यह बात सौ में से नब्बे मामलों में सही हो, लेकिन कुछ ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें यह बात पूरी तरह से गलत साबित होती हों। अब अभी भारत में ही एक महिला अपने चार बरस के बेटे के साथ गोवा पहुंची, और वहां से जब निकली, तो साथ में बेटा नहीं था। जिस जगह वह ठहरी थी वहां खून का निशान मिला, और लोगों ने कैमरों की रिकॉर्डिंग से यह पाया कि जाते समय उसका बेटा साथ नहीं था। ऐसे में पुलिस और टैक्सी के रास्ते से होते हुए यह महिला पकड़ाई तो उसके बैग में उसके बच्चे की लाश थी। अब कौन कल्पना कर सकते थे कि एक मां अपने चार बरस के बच्चे का कत्ल करेगी, और उसकी लाश को बैग में लेकर सफर करेगी? इस तरह के अलग-अलग पारिवारिक हिंसा के बहुत से मामले सामने आते हैं जिनमें बाप के बेटी से बलात्कार के भी कई मामले रहते हैं। कौन कल्पना कर सकते हैं कि जिन बेटियों को बाप के लिए बहुत खास माना जाता है, उनसे भी बाप बलात्कार कर सकते हैं? आए दिन कहीं न कहीं की खबर रहती है कि शराबी बेटे ने मां-बाप से पीने के लिए पैसे मांगे, और न मिलने पर उनका कत्ल कर दिया। 

हम किसी भी कोने से परिवार व्यवस्था के प्रति भरोसा खत्म करना नहीं चाहते, क्योंकि ऐसे कुछ अपवादों के बावजूद पारिवारिक ढांचा हिन्दुस्तान जैसे समाज में सबसे मजबूत व्यवस्था है, और इससे लोगों की जिंदगी सहूलियत से चलने, मुसीबत में मदद मिलने, और भावनात्मक साथ मिलने का काम होता है। इसलिए समाज व्यवस्था के भीतर कहीं-कहीं होने वाली ऐसी हिंसा को देखकर परिवार पर से भरोसा नहीं छोडऩा चाहिए। हमारे लिखने का मकसद यही है कि परिवार व्यवस्था को सौ फीसदी महफूज मानकर उस पर अंधविश्वास करना भी ठीक नहीं है। अभी-अभी देश के एक बड़े औद्योगिक घराने, रेमंड के मालिक सिंघानिया परिवार में बेटे ने पहले तो बाप को घर से निकाल दिया था, और अब अपनी बीवी को भी घर से निकाल दिया है। आज आम हिन्दुस्तानी परिवारों में मां-बाप अपने बेटों के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं, और उनकी पढ़ाई-लिखाई, या कामकाज के लिए अपनी जमीन-जायदाद भी देते हैं, अपने गहने भी दे देते हैं। ऐसा करते हुए उनके मन में एक अनकहा भरोसा रहता होगा कि बुढ़ापे में तो आल-औलाद ही ख्याल रखेंगे, और हर मामले में ऐसा होता नहीं है। हम पहले भी इस जगह पर यह बात लिख चुके हैं कि सरकार को ही एक ऐसा कानून बनाना चाहिए कि मां-बाप अपने बच्चों के नाम जब अपनी संपत्ति करें, तो उसका इतना बड़ा एक हिस्सा उनके नाम पर बचा रहे जो कि उनके अपने जिंदा रहने के लिए जरूरी हो। लोग अपनी पूरी संपत्ति बच्चों को अपने जीते-जी न दे सकें, और अपनी जिंदगी पूरी होने के बाद ही आखिरी का हिस्सा वसीयत से बच्चों या किसी और को दे सकें। बहुत से परिवारों में हमने देखा है कि मां-बाप आल-औलाद को सब कुछ देने के बाद उनके रहमोकरम के मोहताज हो जाते हैं।

हमने बात शुरू तो की थी मां के हाथों छोटे से बेटे के कत्ल से, और साथ में हमने परिवार के भीतर होने वाले बलात्कार का जिक्र किया, बेटे के हाथ मां-बाप के कत्ल के मामले याद किए। इन सब बातों को देखते हुए लोगों को परिवार के ढांचे को अहिंसक और सुरक्षित बनाए रखने के तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के कोई भी रिश्ते एक सावधान और चौकन्ने रखरखाव के बिना ठीक से नहीं चल पाते। हर रिश्ते को जिंदा रखने के लिए उस पर कुछ मेहनत भी करनी होती है, और उस रिश्ते का कोई नाजायज फायदा न उठा ले, इसके लिए कुछ किस्म की सावधानी भी बरतनी पड़ती है। और यह बात सिर्फ परिवारों के सिलसिले में हम नहीं कह रहे, लोगों के प्रेमसंबंध, दोस्ती, या कि कामकाज के रिश्ते भी तभी निभते हैं जब उनको सावधानी से सींचा जाता है, और उन्हें खतरे की सीमा में दाखिल होने के पहले काबू कर लिया जाता है। कोई अगर यह सोचें कि रिश्ते स्थाई रहते हैं, तो यह बात गलत रहती है। रिश्ते किसी पौधे या बेल को जिंदा रखने की तरह, उसे बढ़ाने की तरह की मेहनत मांगते हैं। न सिर्फ परिवार के भीतर बल्कि आसपास के दायरे में भी लोग अगर ऐसी तकलीफ से गुजर रहे हैं कि वे करीबी लोगों को मारने की सोच लें, या उनमें आत्मघाती विचार आने लगें, तो उनकी भी समय रहते मदद करना आसपास के लोगों की जिम्मेदारी रहती है। जो लोग हिंसा की ऊंचाई तक पहुंचते हैं, उनके स्वभाव में, बातचीत में, बर्ताव से ऐसे कई संकेत मिलते हैं कि उनके साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। ऐसे में आसपास के लोग लोगों को हिंसा तक पहुंचने से रोक सकते हैं। 

हर किस्म के जुर्म पुलिस नहीं रोक पाती है। बहुत से जुर्म समाज और परिवार के रोके रूक सकते हैं, अब भला एक महिला जहां ठहरी है, वहां बंद कमरे में अपने ही चार बरस के बच्चे का कत्ल कर दे, और लाश बैग में लेकर आगे सफर पर रवाना हो जाए, तो उसकी इस हिंसा को आसपास के लोग तो पहचान सकते थे, दुनिया की कोई भी पुलिस ऐसे जुर्म को नहीं रोक सकती। इसलिए जो परिवार व्यवस्था समाज को मजबूती से चलाती है, उस परिवार व्यवस्था को महफूज बनाए रखने की जिम्मेदारी भी समाज के हर सदस्य की है। आज लोग जुर्म को महज पुलिस और अदालत का मामला मानने लगे हैं। जबकि अधिकतर जुर्म परिवार और समाज की किसी न किसी किस्म की नाकामयाबी का सुबूत भी रहते हैं, और यही वह मोर्चा है जो कि समाज को अधिक सुरक्षित बनाने में सबसे अधिक कारगर हो सकता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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