संपादकीय
राम जन्मभूमि ट्रस्ट की तरफ से भेजे गए न्यौते को नामंजूर करते हुए कांग्रेस पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल नहीं होगी। इसके पहले जब कांग्रेस को यह न्यौता देने की बात हुई थी तब पार्टी के एक सबसे बड़े नेता के.सी.वेणुगोपाल ने कहा था कि पार्टी 22 जनवरी को अपना फैसला बताएगी, लेकिन 10-12 दिन पहले ही कांग्रेस ने अपना रूख साफ कर दिया है। अपने अधिकृत बयान में कांग्रेस ने कहा है- भगवान राम की पूजा-अर्चना करोड़ों भारतीय करते हैं। धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत विषय होता आया है, लेकिन भाजपा और आरएसएस ने वर्षों से अयोध्या में राम मंदिर को एक राजनीतिक परियोजना बना दिया है। स्पष्ट है कि एक अर्धनिर्मित मंदिर का उद्घाटन केवल चुनावी लाभ उठाने के लिए ही किया जा रहा है। 2019 के अदालत के फैसले को मंजूर करते हुए, और लोगों की आस्था के सम्मान में, मल्लिकार्जुन खडग़े, सोनिया गांधी, एवं अधीररंजन चौधरी भाजपा और आरएसएस के इस आयोजन के निमंत्रण को ससम्मान अस्वीकार करते हैं।
कांग्रेस पार्टी का यह रूख पार्टी के ही बहुत से लोगों को निराश करेगा, और गुजरात कांग्रेस के एक बड़े नेता अर्जुन मोडवाडिया ने इस फैसले की आलोचना की है, और कहा है कि राम मंदिर आस्था और विश्वास का मामला है, इसमें कांग्रेस को राजनीतिक निर्णय नहीं लेना चाहिए। एक दूसरे कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णन ने कहा है कि राम मंदिर के निमंत्रण को ठुकराना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और आत्मघाती फैसला है, आज दिल टूट गया। भाजपा में यह जाहिर ही है कि इस फैसले की आलोचना में जो-जो कहा जा सकता था, कहा है। देश के दूसरे राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी इस कार्यक्रम को लेकर अलग-अलग है, भाजपा-एनडीए से परे की कई पार्टियों ने वहां न जाना तय किया है, और कई बड़े नेताओं, और उनकी पार्टियों को प्राण-प्रतिष्ठा का न्यौता भी नहीं मिला है। सीपीएम ने पहले ही एक औपचारिक बयान जारी करके इसे भाजपा का राजनीतिक कार्यक्रम बताया था, और इसमें न जाने की घोषणा की थी। अब सवाल यह उठता है कि राम मंदिर को लेकर विश्व हिन्दू परिषद, आरएसएस, और भाजपा की जो रणनीति है, उसमें भारतीय-चुनावी लोकतंत्र में शामिल और पार्टियों को क्या करना चाहिए था, क्या करना चाहिए?
अयोध्या का मंदिर दशकों से देश का एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा रहते आया है। भाजपा के दूसरे नंबर के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण अडवानी ने बाबरी मस्जिद के खिलाफ, और उस जगह पर राम मंदिर बनाने के लिए एक बड़ा आंदोलन छेड़ा था जिसमें 1990 के दशक में एक अपरिचित चेहरा लिए हुए नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए थे, और बाद में उनके गुजरात के मुख्यमंत्री बनने पर पुरानी तस्वीरों में उनका चेहरा पहचाना गया। अडवानी की रथयात्रा ने बाबरी मस्जिद को गिराने का रास्ता साफ किया था, और उसके दाम भाजपा ने अपनी कुछ राज्य सरकारें गंवाकर चुकाए थे। यह बात कोई लुकी-छिपी नहीं है कि भाजपा शुरू से ही राम मंदिर के मुद्दे को लेकर चल रही थी, बाबरी मस्जिद के खिलाफ उससे जो कुछ हो सकता था, उसने किया था, और उस वक्त की उसकी भागीदार शिवसेना भी बाबरी मस्जिद गिराने में जोर-शोर से शामिल थी। यह एक अलग बात है कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के परिवार वाली शिवसेना को आज अयोध्या का न्यौता भी नहीं मिला है, जबकि कम्युनिस्टों को यह न्यौता पहुंचा है। इसलिए राम जन्म भूमि ट्रस्ट गैरराजनीतिक आधार पर काम कर रहा हो, ऐसा भी नहीं है। एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति को जिस प्राण-प्रतिष्ठा में बुलाया भी नहीं गया है, उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तमाम धार्मिक अनुष्ठान के मुखिया रहने वाले हैं। इसलिए अगर देश के राजनीतिक दल प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को राजनीतिक करार देते हुए उस पर राजनीतिक फैसला ले रहे हैं, तो यह बात तर्कसंगत है। अब यह बात लोकतांत्रिक-चुनावसंगत है या नहीं, यह एक अलग बात है।
कांग्रेस का आज का फैसला देश की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी का फैसला है, और कुछ महीने बाद के लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए चुनौती देने का काम कांग्रेस की अगुवाई वाला गठबंधन ही करते दिखता है, फिर चाहे उस चुनौती का नतीजा जो भी हो। ऐसे में चुनाव एक हकीकत है, और चाहे देश के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण का कितना ही ध्रुवीकरण क्यों न हो गया हो, कांग्रेस और उसके साथीदल इसी के बीच तो चुनाव लडऩे जा रहे हैं। ऐसे में यह समझने की जरूरत है कि प्राण-प्रतिष्ठा के न्यौते को नामंजूर करना सैद्धांतिक ईमानदारी तो हो सकती है, क्या वह चुनावी-समझदारी भी है? हम कांग्रेस के ही शब्दों पर जा रहे हैं, और कांग्रेस जब धर्म को मनुष्य का व्यक्तिगत विषय बता रही है, तो क्या उस पार्टी के लिए यह बेहतर नहीं होता कि वह अपने नेताओं को व्यक्तिगत फैसला लेने की छूट देती? हालांकि कांग्रेस ने इसे अस्वीकार करते हुए तीन नेताओं का ही जिक्र किया है, और हो सकता है कि इन्हीं तीनों को न्यौता मिला हो, लेकिन हम यह सोचकर हैरान हैं कि क्या एक समझदार पार्टी को मंजूर और नामंजूर करने के खेल में पडऩे के बजाय एक सैद्धांतिक बात कहकर इसे खत्म नहीं करना चाहिए था कि पार्टी के नेता-कार्यकर्ता इस पर खुद फैसला लें कि उन्हें क्या करना है? क्या एक राजनीतिक दल को लोगों की निजी आस्था कहते हुए भी उस पर एक पार्टी के रूप में फैसला लेकर उसकी घोषणा करनी चाहिए थी? क्या सार्वजनिक रूप से इस समारोह का बहिष्कार करना जरूरी था, या कि एक विनम्र चतुराई से इस बात को सुलझाया जा सकता था? हमारी सीमित राजनीतिक समझ यह कहती है कि कांग्रेस का यह बयान उसके एक ऐसे फैसले की घोषणा करता है जिसे कि लेने के बाद भी घोषित करने की कोई जरूरत नहीं थी। ऐसा लगता है कि पार्टी चुनाव तो लडऩा चाहती है, लेकिन उसे अपनी सैद्धांतिक ईमानदारी को उजागर करते हुए मतदाताओं के एक बड़े तबके की भावनाओं की परवाह नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में आज चुनाव लडऩा वामपंथियों सरीखी सैद्धांतिक साफगोई का काम नहीं रह गया है। कांग्रेस पार्टी को इससे बेहतर कोई तरीका निकालना था। इस आयोजन को कांग्रेस और भाजपा का आयोजन करार देने से कांग्रेस पार्टी ने इसकी किसी भी तरह की संभावित कामयाबी का सेहरा खुद ही भाजपा के सिर बांध दिया है।
हम किसी भी तरह की सैद्धांतिक बेईमानी नहीं सुझा रहे, लेकिन सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में, और लोकतांत्रिक-चुनावी राजनीति में सामान्य समझबूझ और चतुराई से दुश्मनी रखना जरूरी नहीं होता। कांग्रेस पार्टी के बयान में कुछ अंतरविरोध भी हैं, जो कि धर्म को निजी आस्था बता रहे हैं, और साथ-साथ पार्टी के तमाम नेताओं की तरफ से प्राण-प्रतिष्ठा के इस न्यौते को नामंजूर भी कर रहे हैं। किसी बहुत अनुभवी पार्टी को इस असुविधाजनक फैसले की नौबत में इससे बेहतर शब्द तलाशने चाहिए थे। मंदिर के मुद्दे पर भाजपा से किसी भी तरह यह मुकाबला जीता नहीं जा सकता था, लेकिन अपनी लाठी को पटक-पटककर इस तरह तोडऩे से तो बचा तो जा ही सकता था। पता नहीं कांग्रेस इस जनधारणा के नुकसान से कैसे उबर पाएगी। राम मंदिर, जो कि देश की कई अदालतों से होते हुए, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधानपीठ के सर्वसम्मत फैसले के बाद लाखों-करोड़ों दानदाताओं के पैसों से बन रहा है, उसे पूरी तरह आरएसएस और भाजपा का काम बताना, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को एक अनावश्यक श्रेय देने सरीखा भी है। इस मुद्दे पर कांग्रेस का नुकसान छोड़ कुछ भी नहीं होना था, चाहे वह कोई भी फैसला लेती, लेकिन उस नुकसान को कम करने की जो संभावना थी, कांग्रेस ने उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है, ऐसा लगता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)