संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी की खरोंच पर भी हमदर्दी, और किसी के जख्मों पर भी पूरी बेरुखी
17-Jan-2024 12:06 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : किसी की खरोंच पर भी हमदर्दी, और किसी के जख्मों पर भी पूरी बेरुखी

कार्टूनिस्ट कमल किशोर

अभी भारत में खबरों और सोशल मीडिया का एक हिस्सा एक ऐसे विमान में मुसाफिर के बनाए गए वीडियो पर है जिसमें करीब 12 घंटे लेट हो चुकी उड़ान के थके हुए मुसाफिरों में से एक ने और अधिक देर की घोषणा करते हुए पायलट पर हमला कर दिया था। कुछ लोगों का कहना है कि मुसाफिर इस असाधारण देरी से थके हुए थे जिसमें उन्हें घंटों विमान के भीतर बैठना पड़ा था। देश के लोग इस वीडियो के साथ तरह-तरह की बातें लिख रहे हैं जिनमें विमान सेवाओं के खराब होने की बात भी है। जिस विमान कंपनी की उड़ान में यह घटना हुई है वह कंपनी आमतौर पर अपनी उड़ानों के समय पर चलने के लिए जानी जाती है। लेकिन इन दिनों मौसम की वजह से पूरे देश में सैकड़ों उड़ानें देर से चल रही हैं, कई लोग प्लेन छोडक़र ट्रेन से जाना चाह रहे हैं, तो रेलगाडिय़ां रद्द हैं, और सडक़ के रास्ते जा रहे हैं तो धुंध और कोहरे में बहुत से एक्सीडेंट भी हो रहे हैं। कुछ लोगों ने यह सलाह भी सोशल मीडिया पर दी है कि जब तक टालना मुमकिन हो, इस मौसम में सफर न किया जाए। लोग पूरे-पूरे दिन एयरपोर्ट पर फंसे हैं, रवाना किसी शहर के लिए होते हैं, विमान को किसी दूसरे शहर पर उतरना पड़ता है, और यह सलाह सचमुच मायने रखती है कि अगर टाला जा सके तो सफर न करें, लोग घर से निकलते तो उर्दू के सफर (यात्रा) पर हैं, लेकिन उन्हें अंग्रेजी का सफर (यातना झेलना) करना पड़ता है। 

अब उड़ानों में देर तो ठीक है, लेकिन हिन्दुस्तान में पिछले कुछ बरसों में देश भर में हर दिन दर्जनों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और यह बात कोहरे के मौसम की वजह से नहीं है, यह पिछले कुछ बरसों से लगातार चल रहा है। हमारे पास अभी आंकड़े नहीं हैं, लेकिन हजारों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और मजे की बात यह है कि जो चल रही हैं, वे भी घंटों देर से चल रही हैं, दिन की गाड़ी रात में आती है, और रात की गाड़ी दिन में। फिर हर मुसाफिर से अधिक से अधिक उगाही कीसरकारी और निजी साजिश के चलते स्टेशन पर लेट ट्रेन के मुसाफिरों को वेटिंग हॉल में बैठने का हर घंटे भुगतान करना पड़ता है, उन्हें छोडऩे आए लोगों को अतिरिक्त प्लेटफॉर्म टिकट लेनी पड़ती है। अब अगर ट्रेन के कोई मुसाफिर बौखलाकर ट्रेन के ड्राइवर या गार्ड पर हमला करने लगें, तो क्या होगा? एयरपोर्ट के मुकाबले स्टेशनों की हालत अधिक तकलीफदेह रहती है, और मौसम की सबसे बुरी मार प्लेटफॉर्म पर सीधे पड़ती है। ऐसे में एक प्लेन के मुकाबले एक ट्रेन में कई गुना अधिक मुसाफिर रहते हैं, और हमले के ऐसे खतरे और अधिक हो सकते हैं, लेकिन होते नहीं हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि हवाई मुसाफिरों की संपन्नता उन्हें रेलगाड़ी के मुसाफिरों के मुकाबले अधिक आक्रामक बना देती हैं, उनकी ताकत भी अधिक रहती है, और मुसीबत पर बचने की उनकी क्षमता भी अधिक रहती है। इस वजह से हवाई जहाजों में ऐसी घटनाएं अधिक दिखाई और सुनाई पड़ती हैं, और ट्रेन के गरीब मुसाफिर जानते हैं कि किसी मुसीबत की नौबत में उनके लिए बचना मुश्किल रहेगा।

दूसरी तरफ हवाई मुसाफिरों में गिनती कम रहने पर भी उसके लोग अधिक बड़े ओहदों पर बैठे हुए रहते हैं, वे अधिक ताकतवर रहते हैं, और उन्हें आम जुबान में अधिक महत्वपूर्ण भी कहा जाता है। इसलिए दर्जनों ट्रेनें रद्द होने की खबर जितनी बड़ी नहीं बनती, उतनी बड़ी खबर एक उड़ान के रद्द होने से बन जाती है, वहां एयरपोर्ट से वीडियो और तस्वीरें भेजने वाले लोग मीडिया में असर रखने वाले रहते हैं, और उनकी तकलीफ मीडिया के सिर चढक़र बोलती है। एक उड़ान की गड़बड़ी से ऐसा माहौल बनने लगता है कि पूरा देश गड़बड़ा गया है, दूसरी तरफ ट्रेनों में डिब्बे घटते जा रहे हैं, ट्रेनें रद्द होती जा रही हैं, उनका कोई वक्त नहीं रह गया है, टिकटों सहित और किस्म की चीजों के रेट बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन मीडिया के लिए एयरपोर्ट और उड़ान अधिक बड़ी खबरें रहती हैं। यह दुनिया का रिवाज ही है कि ताकतवर का दर्द अधिक बड़ा रहता है, और बहुत अधिक ताकतवर के मां-बाप गुजरें, तो भी चापलूस लोग अपना सिर मुंडाने लगते हैं। अब मीडिया के कई लोगों को चापलूस शब्द बुरा लग सकता है, लेकिन जब वर्गहित की बात देखें, तो यह समझ आता है कि मीडिया का वर्ग देश के दलित, शोषित, और गरीब तबके के लोग नहीं हैं, उसका वर्ग विज्ञापनदाता तबका है, और उसी के हितों के लिए मीडिया अधिक फिक्रमंद रहता है। 

देश के तमाम सांसदों, और विधायकों को जिस तरह मुफ्त में हवाई सफर का हक हासिल है, उसका भी नतीजा है कि देश और प्रदेश की पंचायतों में जिन मुद्दों को उठना चाहिए, उनमें रेलगाडिय़ों के बारे में अधिक बात नहीं होती है। सत्ता पटरियों पर नहीं चलती, सत्ता महज उड़ती है। न निर्वाचित नेता, और न ही बड़े अफसर, इनमें से कोई ट्रेन का सफर नहीं करते, यही वजह है कि हजारों रेलगाडिय़ां रद्द होने पर भी देश में यह मुद्दा नहीं है, क्योंकि जिस मीडिया को मुद्दे तय करना होता है, वह खुद भी ट्रेन से नहीं चलता, उसके नामी-गिरामी से लेकर आम लोगों तक, तमाम लोग प्लेन से चलते हैं, और उनके लिए वहां का सुख सुख है, और वहां का दुख दुख। इस नौबत को एक दूसरे तरीके से भी देखने की जरूरत है कि देश की संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे करके जिस तरह करोड़पति और अरबपति भरते चले गए हैं, उसकी वजह से भी अब गरीबों और मध्यमवर्ग के लोगों की दिक्कतों की समझ सदन और विधानसभा में घटती चली गई है। लोकतंत्र का अब यही तौर-तरीका बच गया है, क्योंकि कम संपन्न उम्मीदवारों का टिकट पाना कम हो गया है, जीत पाना तो और भी कम हो गया है। इस हाल में आम लोगों की दिक्कतें कहां तक पहुंचेंगीं, और क्या वे कभी सुलझ भी पाएंगी, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल है। फिलहाल उडऩे वाले लोग हवा में धूल होने की शिकायत करते रहें, और पटरियों पर रेंगने वाले बेजुबान लोग चुपचाप मीडिया की बेरुखी देखते रहें। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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