संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दो दुपहियों की टक्कर में पांच मौतों से उठे सवाल
20-Jan-2024 3:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : दो दुपहियों की टक्कर में पांच मौतों से उठे सवाल

फोटो : सोशल मीडिया

ओडिशा की एक खबर है कि वहां गंजाम में एक स्कूटर और मोटरसाइकिल की आमने-सामने टक्कर हो गई, दोनों पर तीन-तीन लोग सवार थे, चार लोग मौके पर मारे गए, एक की मौत अस्पताल के रास्ते पर हुई, और बचे एक व्यक्ति की हालत गंभीर है। ये सारे लोग 30 से 43 बरस उम्र के बताए जाते हैं। आज ही छत्तीसगढ़ के जांजगीर की एक खबर है कि आमने-सामने दो मोटरसाइकिलों की टक्कर हो गई, एक की मौत हुई है, और दो गंभीर हैं। ओडिशा के इस सडक़ हादसे को हादसा कहना पता नहीं कितना जायज होगा क्योंकि जब दुपहिया पर तीन बड़े लोग चल रहे हैं, और रात के धुंध में सफर कर रहे हैं, और टक्कर इतनी जोरों की हुई है कि चार लोग मौके पर ही मर जा रहे हैं, तो इसे हादसे के बजाय लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से हुई मौत कहना बेहतर होगा। इनमें से कई मौतें तो टाली जा सकने वाली रही होंगी, और अगर दुपहिए पर दो-दो लोग ही चलते, और चारों लोग हेलमेट लगाए रहते, रफ्तार काबू में रहती, तो हो सकता है कि मौतें कम हुई होतीं, या नहीं हुई होतीं। हम अपने अखबार में सडक़ दुर्घटनाओं को कम करने के लिए लगातार जनजागरण अभियान चलाते हैं, और लोगों को दुपहिए पर चलते हुए हेलमेट लगाने को कहते हैं, अपने यूट्यूब चैनल पर भी हर एक दिन की आड़ से इसकी अपील करते हैं। और सडक़ों पर दुपहिए वालों की जितनी मौतें हम देखते हैं, उनमें से शायद ही किसी में हेलमेट दिखता हो, और सिर दिमाग का सबसे नाजुक हिस्सा रहता है, और उसमें लगी गंभीर चोट के बाद बचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। 

अभी सडक़ सुरक्षा का राष्ट्रीय सप्ताह मनाया जा रहा है, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री ने हेलमेट के साथ एक आयोजन में इस सप्ताह की शुरूआत की। वैसे भी बीच-बीच में कुछ जिलों के एसपी ने लोगों को हेलमेट भेंट भी किए, लेकिन कुल मिलाकर हमारा देखा हुआ है कि किसी मुहिम की तरह हेलमेट को लागू किया जाता है, और शायद दो-चार हफ्तों के भीतर ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है। जनता का एक बड़ा हिस्सा गैरजिम्मेदार रहता है, या सस्ती राजनीति करने वाले लोग उसे गैरजिम्मेदार बनाए रखने का काम करते हैं, ऐसे लोग हेलमेट को लागू करने का अभियान जब भी चलता है, उसके खिलाफ आवाज उठाने लगते हैं, और गैरजिम्मेदार जनता को उकसाने भी लगते हैं। इस राज्य में हमने पिछली चौथाई सदी में बार-बार देखा है कि जो पार्टी सत्ता पर रहती है वह तो हेलमेट का विरोध कुछ कम करती है, लेकिन जो पार्टी विपक्ष में रहती है, वह हेलमेट का विरोध इस अंदाज में करने लगती है कि जनता के सिर और दिमाग को बचाने की तानाशाही सरकार कैसे कर सकती है, वे जनता को उकसाने लगते हैं कि हेलमेट की जरूरत नहीं है, और वे अफसरों को मजबूर देंगे कि वे ऐसा अभियान बंद करें। और ऐसा होता भी है। आमतौर पर ऐसे गैरजिम्मेदार अभियान वे नेता चलाते हैं, जो खुद तो सुरक्षित बड़ी-बड़ी कारों में चलते हैं, और लोगों पर हेलमेट का नियम लागू करने का विरोध करते हैं। किसी अफसर ने अपने जिले या शहर में ऐसा अभियान शुरू किया, तो उसके तबादले की बात भी होने लगती है। कई बार सत्तारूढ़ पार्टी को लगता है कि हेलमेट से नाराज जनता अगले चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को हरा देगी। 

अब ट्रैफिक का यह नियम सरकार की कमाई करने के लिए नहीं बना है, न ही यह पुलिस महकमे की जिंदगी बचाने के लिए बना है, बल्कि यह आम लोगों को जागरूक करके उनके अपने सिर को बचाने के लिए बना है, और मानो यह सुरक्षा राजनीतिक दलों को खटकने लगती है, और वे सिरों को खतरे में डालने पर आमादा हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही कारों में सीट बेल्ट लगाने को लेकर, गाड़ी चलाते मोबाइल पर बात न करने को लेकर भी होता है जिसमें स्थानीय नेता अपनी ताकत दिखाने के लिए पुलिस के अभियान के खिलाफ उठकर खड़े हो जाते हैं, और जनता की अराजकता को बचाने वाले बनने लगते हैं। जहां लोगों की जिंदगी बचानी चाहिए, वहां ऐसे नेता लोगों की अराजकता को बचाना शोहरत पाने का एक जरिया बना लेते हैं। हमारा तो यह मानना है कि ट्रैफिक सुरक्षा के लिए साल में कोई एक हफ्ता मनाना कुछ वैसा ही है जैसा साल में एक हफ्ता साफ हवा का मनाना होगा, मानो बाकी 360 दिन प्रदूषित में कोई बुराई नहीं है। जब सडक़ों पर ट्रैफिक 365 दिन रहता है, तो उसकी सुरक्षा का कोई हफ्ता कैसे हो सकता है? दूसरी बात यह भी है कि अगर सडक़ों पर नियम किसी एक गाड़ी के लोग तोड़ते हैं, तो उससे दूसरे लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, और ऐसा खतरा खड़ा करने की आजादी पुलिस किसी को भी कैसे दे सकती है? पुलिस के पास ऐसा अधिकार कैसे आ सकता है कि नियम तोडऩे वाले लोगों पर कार्रवाई न करे? किसी नियम को लागू न करने से अगर बाकी लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, तो कुछ चुनिंदा लोगों की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

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लेकिन आमतौर पर देखने में यही आता है कि सडक़ों पर लापरवाही रोकने के काम को एक मुहिम या अभियान की तरह चलाया जाता है, और बाकी वक्त अराजकता को आजादी दे दी जाती है। अब पता नहीं बात-बात पर लोगों को अदालत तक जाने की सलाह देना कितना जायज है या नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि जिस तरह लाउडस्पीकरों पर रोक के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ती है, उसी तरह ट्रैफिक की हिफाजत लागू करने के लिए भी अदालत लगेगी। सरकारें अपने हिस्से का काम करना तब तक जरूरी नहीं मानतीं जब तक हाईकोर्ट या उससे बड़ी अदालत लाठी लेकर उसे लागू करवाने पर उतारू न हो जाएं। यह नौबत ठीक नहीं है, अदालतों को इसलिए नहीं बनाया गया है कि वे सरकारों से उनकी न्यूनतम जिम्मेदारी पूरी करवाने के लिए उन्हें कटघरे में खड़ा करवाएं। छत्तीसगढ़ सहित चार और राज्यों में अभी नई सरकारों ने काम संभाला है, अभी कई किस्म की नई बातें यहां लागू हो सकती हैं, और हमारी सलाह यह है कि हेलमेट, सीट बेल्ट लागू करवाने, और वाहन चलाते मोबाइल पर रोक जैसे एकदम बुनियादी नियमों को तुरंत पूरी कड़ाई से लागू करना चाहिए, और हिन्दुस्तान के ही जिन शहरों में ये नियम एक बार ठीक से लागू हो गए हैं, तो वहां पर उन पर अमल चलते ही रहता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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