संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी कार्यक्रम की भीड़ बढ़ाने स्कूली बच्चों को झोंकना गलत
23-Jan-2024 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  किसी कार्यक्रम की भीड़ बढ़ाने स्कूली बच्चों को झोंकना गलत

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आज शहर के बीच जयस्तंभ चौक पर सरकारी स्कूलों के छात्र-छात्राओं को सुबह 8 बजे पहुंचने का आदेश दिया गया था, और वहां पहुंचे सैकड़ों ऐसे बच्चों को बताया गया था कि नेताजी सुभाष जयंती का आयोजन होने जा रहा है। लेकिन आज की भीगी हुई सुबह में ठंड में जब बच्चे यहां पहुंचे, तो आयोजक संस्था छत्तीसगढ़ युवा संगठन, और नगर निगम के कोई लोग वहां नहीं थे। बच्चे चौराहे पर खड़े हुए थे, और उनके साथ के शिक्षकों ने घंटे भर बाद जब आयोजकों को फोन लगाया तो उन्होंने कुछ देर में आने की बात कही। अब यहां आए हुए बच्चे कई किलोमीटर दूर से पहुंचे थे, और जिला शिक्षा अधिकारी के लिखित आदेश की वजह से स्कूलों के प्राचार्य ने गंभीरता से समय पर बच्चों के वहां पहुंचने की ड्यूटी शिक्षक-शिक्षिकाओं की लगाई थी। घंटे भर बाद जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ तो बच्चों को रेलवे स्टेशन की सुभाष प्रतिमा पर ले जाया गया। 

पहले स्कूली बच्चों को मंत्रियों के स्वागत में कतार बनाकर खड़ा कर दिया जाता था, और देश भर से खबरें आती थीं कि धूप में या खड़े-खड़े थकान में बच्चे चक्कर खाकर गिर जाते थे। बाद में बड़ी अदालतों के हुक्म से यह सिलसिला तकरीबन थम गया है, लेकिन अभी भी कहीं-कहीं घोषित और अघोषित रूप से बच्चों का ऐसा इस्तेमाल कर लिया जाता है। एक तरफ स्कूलों के शिक्षकों से जनगणना से लेकर चुनावी काम तक, दर्जनों किस्म के सरकारी काम करवाए जाते हैं, और सरकार के आयोजनों में चाहे मंत्री के स्वागत के लिए न सही, लेकिन इस किस्म की किसी रैली के लिए, किसी आयोजन के लिए स्कूली बच्चों की भीड़ इसी तरह की चिट्ठी से भेज दी जाती है कि हर स्कूल से सौ बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए, फिर चाहे आयोजक खुद ही गायब रहें। 

यह मामला बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन राज्य शासन और नगर निगम दोनों को अपने संबंधित विभागों के कामकाज को परखने का एक मौका इससे मिल रहा है। कैसे किसी सामाजिक संगठन के साथ मिलकर नगर निगम ऐसा कार्यक्रम कर रहा है जिसमें सैकड़ों बच्चों को सुबह-सुबह जुटा लिया गया है, और आयोजक ही नदारद हैं। राज्य शासन के शिक्षा विभाग को भी देखना चाहिए कि उसके अफसरों ने ऐसे गैरजिम्मेदार आयोजकों के कार्यक्रम में बच्चों को क्यों भेजा? अगर नेताजी सुभाष जयंती ही मनानी थी, तो स्कूली बच्चे अपने स्कूल में मना सकते थे, सडक़ों पर उन्हें रैली में भेजना, घंटों इंतजार करवाना, कई किलोमीटर पैदल चलवाना, और घर से आने-जाने का निजी इंतजाम करना, यह सब मध्यमवर्गीय या गरीब छात्र-छात्राओं पर भारी पडऩे वाला काम है। हमारा ख्याल है कि स्कूली बच्चों को सिर्फ ऐसे आयोजन में शामिल करना चाहिए जो कि किसी सुरक्षित और सुविधाजनक मैदान में पर्याप्त इंतजाम के साथ हो रहे हों, या किसी सभागृह या स्कूल के अहाते में। इस बात की कल्पना आसान है कि कई घंटों के इस इंतजार और कार्यक्रम में, और कई किलोमीटर आने-जाने, और पैदल चलने में स्कूली छात्राओं को अगर किसी शौचालय की जरूरत पड़ेगी, तो उसका तो कोई इंतजाम इस शहर में नहीं है। अभी दो दिन पहले ही एक अखबार ने यह रिपोर्ट छापी है कि किस तरह शहर के सार्वजनिक शौचालय बंद या खराब पड़े हैं, या बहुत बुरी तरह गंदे पड़े हैं। ऐसे में छात्राओं को चौराहे पर जुटाना, और सडक़ों पर घुमाना ठीक बात नहीं है। 

प्रदेश के शिक्षामंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने अभी-अभी इन्हीं स्कूलों में से एक स्कूल की छात्राओं के आने-जाने का बंद किया हुआ एक रास्ता खुलवाया है, और वे खुद इसी शहर की आम स्कूलों में पढ़े हुए हैं। उन्हें व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर बच्चों का ऐसा इस्तेमाल बंद करना चाहिए जो कि किसी प्रतिमा पर होने वाले समारोह में भीड़ बढ़ाने की नीयत से किया गया है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के बारे में किसी भी स्कूल के शिक्षक और बच्चे अपने स्कूल में ही आधे-एक घंटे में पर्याप्त बोल-सुन सकते थे, उन्हें अगर महापुरूषों की प्रतिमाओं पर इस तरह ले जाना चलते रहा, तो साल में उनके दस-बीस दिन इसी में निकल जाएंगे। किसी महान व्यक्ति के सम्मान का यह तरीका ठीक नहीं है कि भीड़ बढ़ाने के लिए बच्चों के घंटों बर्बाद किए जाएं, और उनकी असुविधा के बारे में सोचा भी नहीं जाए। दिखने में छोटी लगने वाली यह बात अफसरों का बच्चों के प्रति रूख बताती है, और यह बात तो सार्वजनिक रूप से दिखने पर हमारे ध्यान में आई है, लेकिन अफसरों की सोच अगर ऐसी ही है, तो वह बच्चों से जुड़े हुए दूसरे मामलों में भी सामने आती होगी। स्कूल शिक्षा मंत्री को पूरे प्रदेश के स्कूलों, खासकर कन्या विद्यालयों की जांच करवानी चाहिए कि वहां लड़कियों के लिए शौचालय का पर्याप्त और ठीक-ठाक इंतजाम है या नहीं, लड़कियों की खास जरूरतों के लिए पानी का इंतजाम है या नहीं। 

राजधानी के नगर निगम को भी अपने अफसरों के फैसले और कामकाज को जांचना चाहिए कि जब स्कूली बच्चों को कई किलोमीटर दूर से सुबह-सुबह बुला लिया गया, तो उस वक्त के पहले वहां पर म्युनिसिपल के अफसर, और आयोजक संस्था के लोग मौजूद क्यों नहीं थे, और खासकर छात्राओं के लिए जरूरत के क्या इंतजाम इन लोगों ने किए थे? स्कूली बच्चों को किसी भी कार्यक्रम में झोंकने के पहले यह देखने की जरूरत है कि इससे उनके पढ़ाई के कितने घंटे खराब होने जा रहे हैं, और ऐसे आयोजन में शामिल होना उन बच्चों के हित में है, या महज आयोजकों को भीड़ बढ़ाकर दी जा रही है? राज्य में बच्चों के कल्याण के लिए प्रदेश स्तर की एक परिषद बनी हुई है, और उसे भी न सिर्फ इस घटना को लेकर, बल्कि ऐसे तमाम कार्यक्रमों को लेकर एक अध्ययन करना चाहिए कि कौन से आयोजन स्कूली बच्चों के हित में हैं, और बाकी तमाम किस्म के कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। वैसे भी इस प्रदेश में छुट्टियां बहुत हैं, पढ़ाई कम होती है, पूरे देश में ही स्कूल शिक्षा का स्तर बहुत ही खराब है, अभी चार-छह दिन पहले की इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बतलाती है कि किस तरह बड़े-बड़े हो चुके स्कूली बच्चे भी बुनियादी बातें भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। स्कूली बच्चों को सिर्फ संख्या की तरह गिनना और इस्तेमाल करना ठीक नहीं है, और देश-प्रदेश की सरकारों को इन बच्चों के समय का इस्तेमाल करते हुए बहुत ही सावधान रहना चाहिए, और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरे के बिना बच्चों पर कुछ भी नहीं लादना चाहिए। एक अफसर जिस तरह चिट्ठी लिखकर सरकारी स्कूलों के प्राचार्यों से सौ-सौ बच्चों को तय समय पर किसी जगह भेजने को सुनिश्चित करने को कह रहा है, वह अपने आपमें फिक्र की बात है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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