संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : टूटी चप्पलें, फटा कुर्ता, यह है अगला भारतरत्न
24-Jan-2024 3:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : टूटी चप्पलें, फटा कुर्ता, यह है अगला भारतरत्न

बिहार के एक महान जनकल्याणकारी नेता कर्पूरी ठाकुर को उनकी 100वीं जयंती के मौके पर भारतरत्न देने की घोषणा ने मोदी सरकार को देश के पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक वाहवाही तो दिलवा ही दी है, एक और बात उभरकर सामने आई है कि भारतीय राजनीति में ईमानदारी की एक अनोखी मिसाल का भी ऐसा सम्मान हो रहा है। बिहार में दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर वहां दशकों तक विधायक भी थे, और नाई समाज से आकर वे इतने बड़े नेता बने थे कि वैसी महानता बिहार की राजनीति में किसी और को हासिल नहीं हो पाई। जातिवाद से लदी हुई बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर की जाति की आबादी दो फीसदी से भी कम है, और ऐसे में वे बिहार के एक सर्वाधिक मान्य, और सर्वाधिक सम्मानित मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने सबसे कमजोर तबकों और गरीबों के लिए जनकल्याण की ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जो कि न उनके पहले सुनाई पड़ी थी, न उनके बाद। मोदी सरकार का यह फैसला चुनावी नफे-नुकसान से परे उसे खुद एक सम्मान दिलाने वाला फैसला है क्योंकि 1988 में उनके गुजरने के बाद से आज तक इन 35 बरसों में किसी केन्द्र सरकार ने यह जहमत नहीं उठाई थी। इसके पीछे मोदी सरकार की चाहे जो राजनीतिक और चुनावी नीयत हो, इस फैसले से शायद ही कोई असहमति जाहिर कर सके। 

कर्पूरी ठाकुर के पिता बाल काटने का काम करते थे, और वे खुद मैट्रिक के बाद से स्वतंत्रता संग्राम में उतरे, 26 महीने जेल भुगती, और 1948 से वे राजनीति में आए, और 1970 में मुख्यमंत्री बने। सबसे कमजोर और सबसे गरीब लोगों की भलाई की उनकी सोच अद्भुत थी। उनका एक नारा अक्सर लिखा जाता है- सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है, धन, धरती, और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। उन्होंने बिहार में पिछड़ों और अतिपिछड़ों को आरक्षण दिया, सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ावा दिया, और यह मिसाल सामने रखी कि बिना कुनबापरस्ती के ईमानदार राजनीति कैसे की जा सकती है। उनके करीबी बताते हैं कि जब वे सीएम थे, और उनके रिश्ते के बहनोई जाकर किसी नौकरी की मांग करने लगे तो कर्पूरी ठाकुर ने जेब से 50 रूपए निकालकर उन्हें दिए, कहा कि उस्तरा वगैरह खरीद लीजिए, और अपना पुश्तैनी धंधा शुरू कीजिए। उनके सीएम रहते कुछ जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिए बुलाया, और बीमार होने की वजह से वे नहीं जा पाए तो जमींदार के लठैतों ने जाकर उनके पिता को प्रताडि़त किया, लेकिन जब उन लठैतों को पकड़ा गया, तो कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें यह कहकर छुड़वा दिया कि यह तो पूरे प्रदेश में कमजोर तबकों के साथ हो रहा है, और सभी जगह ऐसी ज्यादती के खिलाफ अभियान चलाना चाहिए, सिर्फ सीएम के पिता के खिलाफ जुर्म रोकने से क्या होगा। बिहार के लोग बताते हैं कि दो बार सीएम रहने के बाद भी कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से चलते थे क्योंकि कार खरीदने, और चलाने का खर्च उनकी सीमा के बाहर था। वे शायद देश के गिने-चुने ऐसे नेताओं में से होंगे जिन्होंने दशकों की विधायकी, और प्रदेश के मुखिया रहने के बाद भी मरते वक्त अपने परिवार के लिए न एक घर छोड़ा था, न पिता के घर में एक इंच जमीन जोड़ी थी। 

समता और सामाजिक न्याय की सोच के उनके बहुत से उदाहरण बिहार में याद रखे जाते हैं, और देश के राजनीतिक इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। शायद यही वजह रही कि 1952 में पहली बार विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद वे कभी चुनाव नहीं हारे। उनकी पहल से बिहार में मिशनरी स्कूलों ने हिन्दी में पढ़ाना शुरू किया, और उन्होंने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई का इंतजाम किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट जानकारी देती है कि उन्होंने बिना मुनाफे वाली जमीन पर किसानों से मालगुजारी लेना बंद करवाया। और मुख्यमंत्री सचिवालय की लिफ्ट में चतुर्थ वर्ग कर्मचारियों को चढऩे की मनाही थी, कर्पूरी ठाकुर ने उसे शुरू करवाया। वे एक सच्चे समाजवादी की तरह अंतरजातीय विवाह के हिमायती थे, और जहां खबर लगती थी उसमें शामिल होते थे। राज्य कर्मचारियों के लिए समान वेतन आयोग को उन्होंने लागू किया था, और जनकल्याण के, सबसे कमजोर तबके की भलाई के बहुत से कार्यक्रम उन्होंने लागू किए, या उसके लिए विपक्ष से आंदोलन करते रहे। 

उनकी सादगी और गरीबी का हाल यह था कि एक प्रतिनिधि मंडल ने उन्हें ऑस्ट्रिया जाना था तो उनके पास कोट ही नहीं था, एक दोस्त से लिया तो वह फटा हुआ था। यह किताबों में दर्ज है कि वहां से भारतीय दल यूगोस्लाविया गया तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा है, तो उन्हें एक कोट भेंट किया। एक दूसरा लेख यह भी बताता है कि कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देखकर रो पड़े थे। दशकों की सत्ता और विधायकी के बाद भी उन्होंने एक घर तक नहीं बनवाया था, जब सरकार ने विधायकों और पूर्व विधायकों को रियायती जमीन दी, तो भी उन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया। बेटी की शादी में उन्होंने किसी मंत्री को नहीं बुलाया था, और आने से सबको मना भी कर दिया था। उनके बारे में एक घटना लिखने लायक है कि 1977 में वे जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर अपनी आम टूटी चप्पल, और फटे कुर्ते में ही पहुंच गए थे, तो चन्द्रशेखर ने अपना कुर्ता फैलाकर सभी नेताओं से कर्पूरी ठाकुर के कुर्ते के लिए दान मांगा, उसे देते हुए चन्द्रशेखर ने सीएम को कहा कि इससे धोती-कुर्ता खरीद लीजिए, तो उन्होंने वह रकम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दी। 

हम अपने विचारों वाले इस कॉलम, संपादकीय में अपनी किसी राय के बिना सिर्फ कर्पूरी ठाकुर की जीवनगाथा के कुछ हिस्से सामने रखकर उसे ही अपने विचार मान रहे हैं। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अपने आसपास भी सरकार के नेताओं और अफसरों से जिस तरह की सादगी और किफायत की अपील बार-बार करते हैं, उसकी एक बहुत बड़ी मिसाल कर्पूरी ठाकुर की जिंदगी की कहानी में दिख रही है। उनके लिए भारतरत्न की घोषणा के इस मौके पर उनकी जिंदगी को याद करना चाहिए, और जो लोग भी उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, उन्हें सादगी, किफायत, और ईमानदारी की उनकी मिसाल पर भी सोचना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news