संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जानलेवा कोचिंग इंडस्ट्री में एक मौत और, कब तक?
30-Jan-2024 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  जानलेवा कोचिंग इंडस्ट्री में एक मौत और, कब तक?

देश में स्कूल-कॉलेज के इम्तिहान शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इम्तिहान के तनाव से बचाने के लिए टीवी प्रसारण में मां-बाप को सुझाया कि वे अपने बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड न बनाएं। उनका कहना था कि जो मां-बाप अपनी जिंदगी में बहुत सफल नहीं हो पाते, वे अपने बच्चों को कामयाबी की मिसाल बनाना चाहते हैं ताकि वे औरों के बीच उसकी चर्चा कर सकें। उन्होंने यह बात ठीक कही कि मां-बाप बच्चों पर एक गैरजरूरी तनाव खड़ा कर देते हैं। हम भी बरसों से यह लिखते आए हैं कि मां-बाप अपने अपूरित सपनों और हसरतों को बच्चों में पूरे होते देखना चाहते हैं, और इससे बच्चों के अपने रूझान के खिलाफ जाकर भी किसी विषय को पढऩे, या किसी कॉलेज में दाखिला पाने का एक निहायत गैरजरूरी और नाजायज दबाव पैदा होता है। कल जब प्रधानमंत्री देश भर के चुनिंदा बच्चों से टीवी पर बात भी कर रहे थे, और अपने सुझाव भी रख रहे थे, ऐन उसी समय राजस्थान में कोचिंग इंडस्ट्री कहे जाने वाले कोटा में एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली, और मां-बाप के लिए यह लिखकर छोड़ा कि वह जेईई नहीं कर सकतीं, इसलिए वह खुदकुशी कर रही है, वह असफल है, और उसके लिए यही आखिरी विकल्प है। अब इस कोचिंग इंडस्ट्री में हफ्ते भर में यह दूसरी खुदकुशी है, और पिछले एक बरस में यहां दो दर्जन से अधिक छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की थी। पिछली अशोक गहलोत सरकार ऐसी मौतों पर हड़बड़ा गई थी, और सरकारें आमतौर पर दिखावे के लिए जो करती हैं, वैसा ही गहलोत सरकार ने भी किया था, कोचिंग इंडस्ट्री चलाने वाले लोगों के साथ बैठकें की थीं, और बच्चों का तनाव कम करने का रास्ता ढूंढने का नाटक भी किया था। यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि कोटा में तनाव का हाल यह है कि वहां छात्र-छात्राओं की रहने की जगहों पर छत के पंखे नहीं लगाए जाते क्योंकि बच्चे उनसे लटककर आसानी से जान दे सकते हैं। अभी कल जिस लडक़ी ने खुदकुशी की है, वह तीन बहनों में सबसे बड़ी थी, उसके पिता बैंक में गार्ड हैं, और मां घरेलू महिला है, ऐसे परिवार ने इंजीनियरिंग दाखिले की कोशिश और तनाव में अपनी एक बच्ची खो दी।  लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी हमने जब ऐसी ही आत्महत्याओं के मुद्दे पर इसी जगह लिखा था, तो उसमें देश में एक जगह खुदकुशी करने वाले छात्र के पिता ने भी अंतिम संस्कार के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली थी। 

हिन्दुस्तान में सरकारी और निजी, बड़े-बड़े कॉलेज तो खुल गए हैं, बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान भी फैक्ट्रियों की तरह चल रहे हैं, लेकिन किसी विषय को पढऩे, या किसी दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने की बच्चों की क्षमता का अंदाज लगाना हिन्दुस्तान में चलन में नहीं है। मां-बाप अपने सपने पूरे करने के लिए बच्चों पर नाजायज बोझ डाल देते हैं, और जितने बच्चे खुदकुशी करते हैं, उससे हजारों गुना बच्चे हीनभावना का शिकार भी होते ही होंगे कि वे मां-बाप के कर्ज से कोचिंग लेते हुए, पढ़ते हुए भी उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था एक ऐसी भेड़ चाल में फंसी हुई दिखती है कि गिने-चुने कुछ प्रचलित, लोकप्रिय, और महत्वाकांक्षी कोर्स में जाने के लिए कुछ बच्चे खुद भी आमादा रहते हैं, और अधिकतर के मां-बाप उस पर जिद पर अड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चों की पसंद, उनका रूझान, और उनकी क्षमता कहीं प्राथमिकता नहीं रखतीं। हमारा तो यह मानना है कि स्कूल के दौरान ही इन बातों का लगातार आंकलन होते रहना चाहिए, और ऊंची पढ़ाई के लिए उन्हीं बच्चों की बारी आनी चाहिए जो कि वैसे पाठ्यक्रम पढऩे के लायक हैं। दरअसल किताबी पढ़ाई को ही इस देश में सब कुछ मान लिया गया है, और स्कूल-कॉलेज की कम पढ़ाई के बाद कमाई का कोई रोजगार करने वाले लोगों का भी सम्मान नहीं रहता है, बल्कि पढ़े-लिखे बेरोजगार जो कि मां-बाप की छाती पर मूंग दलते रहते हैं, उन्हें बेहतर समझा जाता है। समाज की इस सोच को भी बदलना होगा क्योंकि औसत दर्जे की पढ़ाई करके लोग कोई उत्पादक काम नहीं पा सकते, और ऐसे शिक्षित-बेरोजगार देश की उत्पादकता में कुछ जोड़ नहीं सकते। 

केन्द्र और राज्य सरकारें अलग-अलग किस्म की अधकचरी कोशिशें करती रहती हैं, जिनमें कोचिंग को लेकर भी पिछले दिनों कुछ नियम खबरों में आए थे। सरकारों को स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई, और इम्तिहान खिलवाड़ के सबसे ही आसान सामान लगते हैं, और जब जिस सरकार को जैसा ठीक लगे, वैसा फेरबदल इनमें होते चलता है। आज दुनिया, और इस देश में भी, बदलती जरूरतों के मुताबिक न शिक्षा नीति बदल रही है, और न परीक्षा नीति। फिर देश में संपन्न और विपन्न तबकों के बीच साधनों का जो बहुत बड़ा फर्क खड़ा हो गया है, वह भी आगे की जिंदगी के मौकों पर असर डालता है। जो लोग महंगी कोचिंग से तैयारी करते हैं, वे कई बड़े दाखिला इम्तिहानोंं में कामयाबी की अधिक गुंजाइश रखते हैं। आज इन्हीं सब वजहों से देश में समान अवसर की बात कागजों पर भी नहीं रह गई है, असल जिंदगी में तो यह दूर-दूर तक कहीं नहीं हैं। ऐसे में गरीब तबके से निकलकर आए हुए इक्का-दुक्का कामयाब लोगों की मिसालें देकर लोग साबित करने की कोशिश करते हैं कि संपन्नता ही सब कुछ नहीं होती, लेकिन जब व्यापक नतीजों को देखें, तो यह समझ आता है कि संपन्नता ही बहुत मायने रखती है।

लेकिन बाकी तमाम बातों से परे सबसे जरूरी बात यह है कि बच्चों पर उनकी मर्जी और उनके रूझान के खिलाफ कोई दबाव नहीं डालना चाहिए क्योंकि आत्महत्या की एक-एक खबर तनाव के कगार पर खड़े बहुत से और बच्चों के लिए एक असर लेकर आती है। यह नौबत किसी भी कीमत पर टालनी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news