संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जागरूकता और सरोकार बस डिक्शनरी के शब्द हैं, असल दुनिया में कहीं नहीं
31-Jan-2024 3:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  जागरूकता और सरोकार बस डिक्शनरी के शब्द हैं, असल दुनिया में कहीं नहीं

पाकिस्तान के एक मशहूर गायक राहत फतेह अली खां का एक वीडियो अभी चारों ओर फैल रहा है जिसमें वे अपनी एक बोतल को लेकर एक घरेलू कामगार को बुरी तरह पीट रहे हैं, अपने जूते-चप्पल से उसे मारे जा रहे हैं कि उसने उसकी बोतल कहां रख दी? सोशल मीडिया पर उनके घर के भीतर के इस वीडियो के साथ लोगों ने लिखा है कि वे नशे में धुत्त भी दिख रहे थे, और शराब की बोतल मांग रहे थे जो कि नौकर से कहीं इधर-उधर हो गई थी। इस पर इस गायक ने यह सफाई दी है कि वह बोतल किसी पीर साहब का पानी था, और वे उसके न मिलने पर अपने ही एक शागिर्द को पीट रहे थे। उन्होंने उस शागिर्द और उसके पिता से माफी मांगने का वीडियो भी पोस्ट किया है, और जिसे वो शागिर्द कह रहे हैं वह उनकी बात में हामी भर रहा है। लोगों का कहना है कि यह सफाई पूरी तरह फर्जी और झूठी है, और वे राहत फतेह अली खां के एक पुराने वीडियो को भी पोस्ट किया है जिसमें वे नशे में टुन्न बकवास करते दिख रहे हैं। 

उनका घरेलू नौकर या शागिर्द, जो भी हो, उसकी ऐसी बेरहमी से हिंसक पिटाई किसी धार्मिक पानी के लिए तो होते नहीं दिख रही है, बाकी मालिक या गुरू की बात में हामी भरना गरीब और कमजोर की मजबूरी सभी जगह रहती है। इसे देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने लिखा है कि इस मशहूर गायक की गायकी के लिए मन में इज्जत अब खत्म हो गई है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले भारतीय फिल्मों के एक गायक और संगीतकार अनु मलिक का एक वीडियो सामने आया था जिसमें वे दुबई में दाऊद इब्राहिम की एक दावत में दाऊद की तारीफ में गाने गाते दिख रहे थे। यह वीडियो उस वक्त का था जब दाऊद भारत में मुम्बई बम विस्फोट में सैकड़ों लोगों की जान लेने के बाद भारत छोडक़र बाहर जा बसा था, और उसके बाद जिस अंदाज में वह वहां ऑलीशान दावतें करता था, उसमें मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री के लोग जाते थे, वह बात हिन्दुस्तानी जनता को समझकर ऐसे कलाकारों का बहिष्कार करना था, लेकिन अनु मलिक नाम का यह आदमी आज भी टीवी रियलिटी शो में जज बना दिखता है, और लोग कोई बहिष्कार नहीं करते। दरअसल सामूहिक जनचेतना एक किस्म की मृगतृष्णा है जो असल में होती नहीं है, उसकी बस चर्चा होती है, उसकी बस कल्पना होती है। लोग यह मानकर चलते हैं कि जनता के बीच कोई जागरूकता आ सकती है। अब अभी राहत फतेह अली खां के बहिष्कार की बातें चार लोग लिख रहे हैं, लेकिन चार हजार लोग उनके नाम की चर्चा होने पर उनके पुराने गाने ढूंढकर देखने-सुनने लगेंगे। शायद इसीलिए मनोरंजन की दुनिया, और सार्वजनिक किस्म के कारोबार के बारे में कहा जाता है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ? 

लोगों ने देखा हुआ है कि सलमान खान की गाड़ी ने मुम्बई मेें रात फुटपाथ पर सोने वाले लोगों को कुचला था, और फिर जैसा कि बड़े लोगों के हर मामले में साबित हो जाता है कि गाड़ी वे खुद नहीं चला रहे थे। इसी तरह बरसों गुजर गए हैं सलमान पर काले हिरण के शिकार का मुकदमा चल रहा है, लेकिन इससे फिल्म दर्शकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मशहूर लोग कुछ भी कर सकते हैं, और उनकी शोहरत की चकाचौंध में लोग बंधे रह जाते हैं। बहुत से सांसद और विधायक, मंत्री और दूसरे नेता सार्वजनिक हिंसा करते दिखते हैं, हिंसक फतवे देते दिखते हैं, बलात्कार जैसे जुर्म में फंसते हैं, लेकिन उनके इलाके के वोटर हैं जो कि उन्हें बार-बार चुनते चले जाते हैं। देश में कई ऐसे दबंग और मवाली नेता हैं जो कि पार्टी के भीतर और मतदाताओं के बीच बराबरी से महत्व पाते हैं, और अतिआत्मविश्वास से भरे हुए जुर्म भी किए चले जाते हैं।

पूरी दुनिया का यही हाल है, पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन जैसे देश बहुत से बेकसूर देशों पर बमबारी करते हैं, हजारों लोगों को मार डालते हैं, लेकिन उनके सामानों के बहिष्कार की कोई बात नहीं हो पाती। और तो और इन देशों से आने वाले कोका कोला जैसे गैरजरूरी सामान की बिक्री पर भी किसी मुस्लिम देश में भी फर्क नहीं पड़ता, जबकि ये देश इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, और न जाने कितने दूसरे मुस्लिम देशों पर हमला करते रहते हैं, और वहां के मुस्लिम हैं कि इनका कोका कोला तक पीते रहते हैं, जो कि कम्प्यूटर या मोबाइल फोन सरीखी टेक्नॉलॉजी नहीं है, जिंदा रहने के लिए जरूरी नहीं है। तकरीबन तमाम दुनिया में लोग इतने आत्मकेन्द्रित और मतलबपरस्त रहते हैं कि किसी का मुजरिम होना उन्हें बहिष्कार के लायक नहीं बनाता। दुनिया के बड़े-बड़े जंगखोर मुल्क भी घुटनों पर आ जाएं अगर बाकी दुनिया उनका आर्थिक बहिष्कार करने लगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। और तो और जिस हिटलर की फौज के लिए फौजीवर्दियां सिलने वाला उसका कारोबारी दोस्त ह्यूगो बॉस नाजी सेना का काम करते हुए संपन्नता के आसमान पर पहुंचा, आज भी उसका फैशन ब्रांड पूरी दुनिया में चलता है, और किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह कंपनी हिटलर की सेवा करती थी। हिन्दुस्तान के गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़ के दुर्ग तक हिटलर नाम की दुकानें खुली हुई हैं, और इनसे बात करके भी हमने देखी, इनकी सेहत पर इसका फर्क नहीं पड़ता कि हिटलर ने दुनिया में लाखों बेकसूरों का नस्लवादी कत्ल किया था। उन्हें एक चर्चित नाम से अपनी दुकान मशहूर करने की संभावना अधिक प्यारी है, और वे हिटलर जैसे मुजरिम के नाम से भी परहेज नहीं करते। 

दुनिया में अच्छे और बुरे के बीच फर्क करने के लिए जिस राजनीतिक चेतना और सामाजिक सरोकार की जरूरत रहती है, वह गिने-चुने लोगों में ही दिखते हैं। आबादी का बाकी तकरीबन तमाम हिस्सा जिम्मेदारी के ऐसे बोझ से आजाद रहता है, और उसे न कातिलों से परहेज रहता, न बलात्कारियों से। दहेज हत्या की तोहमत जिन परिवारों पर लगती है, उनके साथ भी जात-पात के रिश्ते तोडऩे को लोग तैयार नहीं होते, और उनके घर भी रोटी-बेटी के रिश्ते कायम रखते हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया में इंसानियत नाम का जो शब्द है, उसकी काल्पनिक खूबियों पर गर्व करते हुए लोग उसकी इज्जत जरूरत से हजार गुना अधिक करते हैं, जबकि इसी इंसानियत के भीतर हिंसानियत भी छुपी रहती है, जिसकी तोहमत लोग इंसान से परे हैवान नाम के किसी काल्पनिक पिशाच पर मढ़ते रहते हैं। अगर कोई राहत फतेह अली खां के गानों के दर्शकों की गिनती में फर्क ढूंढ पाए, तो यही दिखेगा कि बदनाम हुए तो क्या नाम नहीं हुआ? उनके दर्शक हिंसक वीडियो सामने आने के बाद बढ़े ही होंगे, घटे नहीं होंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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