संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह वक्त धार्मिक मजाक करने का बिल्कुल नहीं है
04-Feb-2024 4:30 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : यह वक्त धार्मिक मजाक करने का बिल्कुल नहीं है

पुणे विश्वविद्यालय में बैठे-ठाले एक बखेड़ा खड़ा हो गया है। वहां पर रामलीला पर आधारित एक नाटक के मंचन के दौरान जब कुछ हिन्दू छात्रों ने यह पाया कि सीता की भूमिका कर रहा एक नौजवान सीता बने हुए सिगरेट पी रहा है, और गंदी जुबान बोल रहा है, तो उन्होंने आपत्ति की। उनकी लिखाई रिपोर्ट पर 5 छात्रों सहित विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार किया गया। धार्मिक भावनाएं आहत करने के इस मामले में इन्हें जमानत भी मिल गई, लेकिन विश्वविद्यालय में इससे एक गैरजरूरी तनाव उठ खड़ा हुआ है। राम और सीता के किरदार वाले इस नाटक, जब वी मेट, में कथानक ही यही था कि रामलीला करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री जब मंच के पीछे रहते हैं, तो वे किस तरह बातें करते हैं। ऐसी ही अनौपचारिक बातचीत पर आधारित इस नाटक ने हिन्दू संगठनों के छात्र नेताओं को नाराज किया। इस मंचन को रोकने वाले छात्रों के साथ स्टेज कलाकारों का कुछ झगड़ा भी हुआ। यह नाटक रामलीला की पोशाक में राम-सीता, लक्ष्मण और रावण बने हुए कलाकारों की पर्दे के पीछे चल रही अनौपचारिक बातचीत को ही स्टेज पर नाटक की तरह दिखाने का काम था। लेकिन जब ऐसी अनौपचारिक बातचीत को मंच पर औपचारिक नाटक की तरह पेश किया गया तो दर्शकों में से भी लोग भडक़कर उठे, और स्टेज पर आकर झगड़ा करने लगे। विश्वविद्यालय का कहना है कि उसे अभी यही साफ नहीं है कि यह औपचारिक मंचन था, या रिहर्सल चल रहा था। 

हिन्दुस्तान में धार्मिक मुद्दों को लेकर कई तरह के विवाद होते ही रहते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाएं, और लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साथ-साथ नहीं चलती हैं। यह बात सिर्फ हिन्दू भावनाओं को लेकर नहीं है, कई अलग-अलग धर्मों के लोग अपने धर्म से जुड़े प्रतीकों, रिवाजों, और मुद्दों को लेकर तेजी से भडक़ जाते हैं। कुछ दशक पहले तक इस तरह के बहुत से मजाक फिल्मों में दिखाए जाते थे, कुछ फिल्मों में शंकर बना हुआ कोई अभिनेता कहीं पेशाब घर से निकलते दिखता था, तो कहीं दौड़-भाग करते हुए। रामायण और महाभारत के किरदारों को लेकर सैकड़ों किस्म के मजाक चलते थे, और इन पर कोई बखेड़ा नहीं होता था। लेकिन आज हालात बिल्कुल अलग हैं, अब लोगों की धार्मिक भावनाएं मन के भीतर नहीं है, उनकी चमड़ी के ऊपर बसी हुई हैं, और जरा सी हवा की सरसराहट होते ही वे भडक़ने लगती हैं, हवा से भडक़ने वाली आग की लपटों की तरह। लोगों को याद होगा कि जब विश्वविख्यात लेखक सलमान रुश्दी ने सेटेनिक वर्सेज नाम की एक विवादास्पद किताब लिखी थी, तो दुनिया के मुस्लिम और इस्लामिक देशों से भी पहले भारत ने उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। हर देश की अपनी संवेदनाएं होती हैं, सहनशीलता के अलग-अलग पैमाने होते हैं, और धार्मिक मान्यताएं भी समय के साथ-साथ कम या अधिक नाजुक होती रहती हैं। ऐसे में सरकार को अपने देश-प्रदेश में अधिक तनाव होने के पहले ही चीजों पर रोक-टोक लगानी पड़ती है। बहुत किस्म के साम्प्रदायिक तनाव ऐसे रहते हैं जिनको बढऩे के पहले ही रोका जा सकता है। एक बार साम्प्रदायिक तनाव या धार्मिक उन्माद फैल गया तो उसके बाद फिर काबू करना बड़ा मुश्किल रहता है। और अभी पुणे के इस मामले में तो एक बात यह अच्छी है कि इसमें महज धार्मिक भावनाएं आहत होने की शिकायत है, और सभी लोग एक ही धर्म के हैं, अगर इनमें कोई गैरहिन्दू होते तो यह बवाल अधिक बड़ा हो गया रहता।

भारत में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म के भी अनगिनत सम्प्रदाय हैं, और हर सम्प्रदाय की प्रचलित कहानियां भी कई-कई किस्म की हैं। हिन्दुओं के बीच भी कहीं रामचरित मानस को लेकर, तो कहीं किसी और कहानी को लेकर मतभेद चलते रहते हैं। तुलसीदास और उनके रामचरितमानस को लेकर कितने ही तरह के विवाद बिहार से लेकर तमिलनाडु तक चलते रहते हैं, और हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई जिस सनातनी संस्कृति, या उसकी मान्यताओं को आज सबसे ऊपर मान लिया गया है, वे भी हिन्दुओं के बीच एक तबके की मान्यताएं हैं, और हिन्दुओं के बहुत से दूसरे तबके उनसे सहमत नहीं हैं। ऐसे में कोई भी एक तबका अगर राम-सीता जैसे किरदार को लेकर कोई प्रयोग करता है, तो उसे ऐसे खतरे झेलने के लिए तो तैयार रहना ही पड़ेगा। लोगों को याद होगा कि एक वक्त देश के एक सबसे बड़े कलाकार मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवियों की जो तस्वीरें बनाई थीं, उनके खिलाफ इतने मुकदमे दायर हुए थे कि वे अपने आखिरी के कई बरस देश के बाहर रहने को, और वहीं मरने को मजबूर हो गए थे। 

हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में आज धार्मिक भावनाएं बारूद के ढेर पर बैठी हुई हैं, और ऐसे में समझदारी तो यही है कि अभिव्यक्ति की किसी स्वतंत्रता के तहत धार्मिक मुद्दों को न छुआ जाए। धर्म को लेकर एक गंभीर और ईमानदार लेखन भी आज भारी पडऩे लगा है, ऐसे में धर्म से मसखरे अंदाज में कोई प्रयोग करना एक बहुत ही अनावश्यक तनाव खड़ा करेगा, जिसके लिए मसखरों को देश के अलग-अलग कई प्रदेशों में मुकदमे झेलने पड़ सकते हैं, और उसके बाद किसी बड़ी अदालत से जमानत पाकर चुपचाप घर बैठना पड़ सकता है। आज कला की आजादी का दावा करने का वक्त नहीं है। आज धर्म पर किसी गंभीर व्याख्या और विश्लेषण का भी वक्त नहीं है, और खतरा झेलकर ही वैसा किया जा सकता है। अदालतों का रूख भी धार्मिक भावनाओं का हिमायती दिख रहा है। ऐसे में हर किसी को अपनी खाल बचाकर चलना चाहिए। दस-बीस बरस पहले तक जितने हास्य और व्यंग्य धार्मिक किरदारों को लेकर खप जाते थे, अब उसका वक्त नहीं रह गया है। और ऐसा करने पर कट्टर धर्मान्धता को तो स्टेज पर पहुंचने का मौका मिलता ही है, ऐसी धार्मिक एकजुटता साम्प्रदायिक होने का खतरा भी खड़ा करती है। इसलिए अभिव्यक्ति की ऐसी किसी स्वतंत्रता को बढ़ाने की कोशिश नहीं करना चाहिए जिसे लोग कट्टरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकें। धर्म के नाम पर बोलने, लिखने, और कलात्मक आजादी लेने वाले लोग किसी मासूमियत का दावा नहीं कर सकते क्योंकि देश में आज हवा का रूख दिखाने वाला कपड़ा सारे वक्त फडफ़ड़ाते रहता है, सबको मालूम है कि कौन सी बातों को लेकर एक गैरजरूरी उपद्रव हो सकता है, इसलिए अपनी कलात्मक रचनात्मकता को दूसरे विषयों पर खर्च करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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