संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : उत्तराखंड का यूसीसी बाकी देश के लिए भी हवा का रूख दिखाता है
06-Feb-2024 3:18 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   उत्तराखंड का यूसीसी बाकी देश के लिए भी हवा का रूख दिखाता है

उत्तराखंड विधानसभा इस वक्त राज्य का अपना यूनिफॉर्म सिविल कोड पास करने जा रही है। यह देश में आजादी के बाद किसी राज्य का पहला ही  यूनिफॉर्म सिविल कोड होगा। आजादी के बहुत पहले गोवा पर काबिज पुर्तगालियों ने 1867 में वहां यूसीसी लागू किया था जो कि अभी तक चल रहा था। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उत्तराखंड में भाजपा ने इस बात को लेकर वायदा किया था, और इसके बाद बनी कमेटी ने 20 महीने काम करके 740 पेज का एक मसौदा तैयार किया है जो कि उत्तराखंड में लडक़े और लडक़ी के बीच विरासत में फर्क खत्म करता है, वैध और अवैध कही जाने वाली संतानों के बीच हक का फर्क खत्म करता है, जो तलाक के मामले में महिला को मौजूदा मुस्लिम विवाह कानून के कई तरह के प्रतिबंधों से मुक्त करता है। उत्तराखंड के इस प्रस्तावित विधेयक में सभी धर्मों की लड़कियों के विवाह की उम्र एक समान रखी गई है, इससे कुछ समुदायों में होने वाले बाल विवाह खत्म होंगे, और मुस्लिम धर्म में किशोरावस्था पहुंचते ही नाबालिग लडक़ी की शादी की छूट भी खत्म होगी। इसमें एक से अधिक जीवन-साथी बनाने पर भी रोक लगाई गई है, और साथ रहने वाले अविवाहित जोड़ों, लिव-इन-रिलेशनशिप, की घोषणा करना जरूरी किया गया है, जिसका रजिस्ट्रेशन भी होगा। फिलहाल हम उसके प्रावधानों पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि उत्तराखंड में पास होते ही यह विधेयक भाजपा शासन के दो और राज्यों, गुजरात और असम जाएगा, और वहां की सरकारें भी तकरीबन इसी किस्म का विधेयक बनाकर अपनी विधानसभाओं में रखेंगी। अभी की खबरें बताती हैं कि उत्तराखंड की करीब तीन फीसदी आदिवासी आबादी पर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं किया जाएगा। 

फिलहाल हम यह भी मानकर चल रहे हैं कि इस विधेयक के पास हो जाने के बाद राज्यपाल से अनुमति की जो औपचारिकता है वह भी तुरंत पूरी हो जाएगी, और यह विधेयक राज्य में एक कानून बन जाएगा, लेकिन मुस्लिम विवाह कानून जैसे कुछ राष्ट्रीय स्तर के कानून हैं, और हो सकता है कि उनके प्रावधानों में उत्तराखंड के इस यूसीसी में छेडख़ानी के खिलाफ लोग सुप्रीम कोर्ट जाएं, और वहां पर फैसला कुछ अलग हो। ऐसे विवाह कानून से परे भी एक दूसरी बात जो हमें अटपटी लगती है वह लिव-इन-रिलेशनशिप वाले जोड़ों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन करना है, जो कि दोनों साथियों के परिवारों में बखेड़े की एक बड़ी वजह रहेगी, और विधेयक का यह प्रावधान हमारी समझ से परे है कि प्रशासन ऐसे आवेदनों की जानकारी दोनों जोड़ीदारों के परिवारों को देगा। अगर दोनों साथी बालिग नहीं हैं, तो वे वैसे भी साथ नहीं रह सकते, और अगर वे बालिग हैं तो उनके परिवारों को इसकी सूचना देना बालिगों की निजता का हनन होगा, और हमारा ख्याल है कि यह प्रावधान अदालत की कसौटी पर खड़ा नहीं रह पाएगा। दूसरी तरफ उत्तराखंड में विपक्ष की इस बात की गंभीरता को भी समझने की जरूरत है कि अब तक 740 पेज के इस मसौदे को सार्वजनिक नहीं किया गया है, विपक्ष के पास इसकी कॉपी भी नहीं है, और भाजपा सरकार इसे विधानसभा से आनन-फानन पास करवाना चाहती है। यह सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक है क्योंकि जन्म, मृत्यु, विरासत, विवाह, और बच्चों को गोद लेने जैसे बुनियादी और महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर जब इतने बड़े फेरबदल होने वाले हैं, तो उन पर ठंडे दिल से लंबी चर्चा होनी चाहिए, ताकि इससे जुड़े हुए तमाम नजरिए विधानसभा की कार्रवाई में दर्ज हो सकें, और कल के दिन सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के आने पर यह बात साफ रहे कि किस पार्टी या नेता ने इस पर क्या कहा था। सदनों में सत्ता के बहुमत से बिना चर्चा के भी ध्वनिमत से नया कानून बना देना एक फैशन सा हो गया है, लेकिन यह न सिर्फ लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ हैं, बल्कि यह अलोकतांत्रिक भी है। लोकतंत्र महज सत्ता बल का नाम नहीं होता है, लोकतंत्र सभी विचारों के बीच विचार-विमर्श और बहस का मंच होता है, और देश की संसद या राज्यों की विधानसभाओं को ऐसा ही रहने भी देना चाहिए। 

एक बार फिर हम इस प्रस्तावित विधेयक के कुछ प्रावधानों पर लौटें जो कि खबरों में आए हैं, और हम यह नहीं कहते कि इनके बारीक खुलासे में कुछ दबी-छुपी बातें नहीं होंगी। लेकिन चूंकि आज पूरे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा छिड़ते रहती है, और कई राज्य इसकी तरफ बढ़ रहे हैं, इसलिए हम उत्तराखंड के इस विधेयक के प्रावधानों को मुद्दे मानकर उन पर चर्चा कर रहे हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड के भाजपा के बहुत पुराने चुनावी एजेंडे का हमला मोटेतौर पर मुस्लिम समुदाय पर माना जाता है, और इसका एक हिस्सा देशभर में तीन-तलाक पर लगी रोक की शक्ल में मोदी सरकार कानून बनाकर लागू भी कर चुकी है। देश भर में हजारों मामले इस कानून के आने के बाद उन मुस्लिम मर्दों के खिलाफ दर्ज हुए हैं जिन्होंने अपने बीवियों को एक साथ तीन बार तलाक कहकर उन्हें छोड़ दिया था। हमारा ऐसा मानना है कि यह कानून, और समान नागरिक संहिता के मुस्लिमों से संबंधित कई प्रावधान पहली नजर में मुस्लिमों के खिलाफ लग सकते हैं, लेकिन जब हम मुस्लिम समाज में महिलाओं के बारे में सोचेंगे, तो ये प्रावधान मुस्लिम महिला के हक के दिखते हैं। ट्रिपल तलाक का कानून बनते ही हमने उसकी तारीफ की थी कि इससे मुस्लिम मर्द की मनमानी खत्म होती है, और मुस्लिम महिला को न्यूनतम मानव अधिकार मिलते हैं। इस समान नागरिक संहिता से भी नाबालिग मुस्लिम लड़कियों की शादी गैरकानूनी हो जाएगी, जो कि एक सही फैसला होगा। इसके अलावा तलाक की प्रक्रिया के दौरान सिर्फ मुस्लिम महिला पर लादी गई कई किस्म की शर्तें भी इससे खत्म हो जाएंगी, वह भी औरत और मर्द की बराबरी का एक इंसाफ होगा। जहां तक बहुविवाह पर रोक की बात है, तो यह मुस्लिमों से परे हिन्दुओं और दूसरे धर्मों में भी प्रचलित है, और इस पर पूरी रोक भी मोटेतौर पर भारतीय महिला की बदहाली को कम करेगी जो कि आमतौर पर बहुविवाह का शिकार होती है। इसके प्रावधानों में लडक़े और लडक़ी, औरत और मर्द इन सबका संपत्ति में बराबरी का हक रखना, वैध, और कथित अवैध संतान का बराबरी का हक रखना भी एक सही फैसला है, जो कि एक किस्म से सुप्रीम कोर्ट अलग-अलग फैसलों में लागू कर ही चुका है। सभी के लिए शादी का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी किया जा रहा है, जो कि वैसे भी पूरे देश में लागू है, और किसी भी सरकारी कामकाज में ऐसे रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता सामने आती ही रहती है, इसे उत्तराखंड ने अपने यूनिफॉर्म सिविल कोड में जोडक़र शायद उन समुदायों पर दबाव बनाया है जो परंपरागत रूप से सरकारी विवाह-पंजीकरण नहीं करवाते हैं, इस प्रावधान में भी कोई खामी नहीं है। 

देश में कई राजनीतिक दल मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक रिवाजों का सम्मान करने के लिए उन तमाम प्रथाओं का सम्मान करते आए हैं, जो कि उनके भीतर महिलाओं के साथ बहुत बुरी बेइंसाफी करते थे। किसी समुदाय के हक बचाने के नाम पर उसके भीतर के बेइंसाफ को पूरी तरह से औरत पर ही लाद दिया जाता है। ऐसे में ट्रिपल तलाक का कानून, या कि बालिग होने के पहले किसी भी धर्म की लडक़ी की शादी पर रोक, तलाक के मामले में महिला के साथ धार्मिक रिवाजों के नाम पर भेदभाव को खत्म करना कुछ लोगों को उस धर्म पर हमला लग सकता है, लेकिन उन धर्मों के भीतर की महिलाओं के नजरिए से देखें तो शायद पहली बार ऐसी महिलाओं को बराबरी के इंसान होने का दर्जा मिल रहा है। 

अभी हमारी यह टिप्पणी किसी भी तरह से उत्तराखंड के इस प्रस्तावित कानून पर एक समग्र बात नहीं है, क्योंकि अभी इसके पूरे पहलू ही सामने नहीं हैं, लेकिन हम अब तक खबरों में आए पहलुओं पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि इन पर देश के तमाम सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि एक-एक करके कई भाजपा-राज्यों में यह स्थिति आएगी, इसलिए इससे सहमत और असहमत लोग अपने तर्कों और अपनी सोच के साथ तैयार रहें।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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