संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आरक्षण और क्रीमीलेयर सुप्रीम कोर्ट संविधानपीठ के सामने एक बड़ी चुनौती
07-Feb-2024 2:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : आरक्षण और क्रीमीलेयर सुप्रीम कोर्ट संविधानपीठ के सामने एक बड़ी चुनौती

सुप्रीम कोर्ट में सात जजों की एक संविधानपीठ ने इस बात पर विचार करना शुरू किया है कि क्या संपन्न पिछड़ी जातियों को आरक्षण के बाहर नहीं कर देना चाहिए? मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस पीठ में शामिल एक जज, जस्टिस विक्रमनाथ ने सामने खड़े वकीलों से सवाल किया कि जब ओबीसी की कुछ उपजातियों की संपन्नता बढ़ी है, वे बेहतर स्थिति में आई हैं, तो उन्हें आरक्षण से बाहर क्यों नहीं आना चाहिए? उन्होंने कहा कि ये संपन्न उपजातियां बाहर आकर आरक्षण के भीतर उन उपजातियों के लिए अधिक जगह बना सकती हैं जो कि अधिक हाशिए पर हैं, या बेहद पिछड़ी हुई हैं। एक दूसरे जज जस्टिस बी.आर.गवई ने कहा कि जब कोई आईएएस या आईपीएस बन जाते हैं, तो उनके बच्चे गांव में उन्हीं के बिरादरी के दूसरे लोगों की तरह दिक्कत नहीं झेलते, लेकिन ऐसे अफसर के परिवार को भी पीढिय़ों तक आरक्षण का लाभ मिलते रहता है। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट की ही एक पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति या जनजाति जैसे आरक्षित वर्ग एक जाति के हैं, और उन्हें उपजातियों में बांटना समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा। यह मामला ओबीसी के साथ-साथ अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षित तबकों की स्थिति पर भी विचार कर रहा है, और यह बहस केन्द्र के वकील के साथ-साथ राज्यों के वकीलों के बीच भी चलेगी। 

सात जजों की संविधानपीठ एक बहुत बड़ा मामला होता है, ऐसा बहुत कम मामलों में होता है, और हम इसकी सुनवाई की शुरूआत में ही जजों के रूख सहित केन्द्र और राज्यों के तर्कों पर अधिक टिप्पणी करना नहीं चाहते, लेकिन इस मामले में हम बरसों से अपनी लिखी जा रही कुछ बातों को फिर से याद दिलाना जरूर चाहते हैं जो कि सामाजिक न्याय की नीयत से की गई आरक्षण की व्यवस्था में सुधार के लिए बहुत जरूरी हैं। आज देश में ओबीसी तबके के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू है जिसके तहत एक सीमा से अधिक कमाई या सामाजिक स्थिति वाले ओबीसी परिवार इस आरक्षण के लाभ से बाहर हो जाते हैं। लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति तबकों को इस क्रीमीलेयर से मुक्त रखा गया है, तर्क यह है कि ये तबके आर्थिक हैसियत से परे छुआछूत जैसी जाति व्यवस्था के भी शिकार हैं, और उसकी भरपाई संपन्न एसटी-एससी हो जाने से भी नहीं हो पाती। 

हम इसी बात के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं कि एसटी-एससी तबकों में भी जो पीढ़ी आरक्षण का एक सीमा से ऊपर का फायदा पा चुकी है, उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए क्योंकि ताकत की जगह पर पहुंच चुके लोग अपनी संपन्नता से अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के मुकाबले तैयार करने की हालत में रहते हैं। लेकिन भारत में सरकारें इसके खिलाफ रही हैं, और 2019 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह अपील दाखिल की थी कि एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू नहीं करनी चाहिए। यह मामला इन तबकों को मिलने वाले बुनियादी आरक्षण को लेकर नहीं था बल्कि पदोन्नति के मामलों में अदालत का यह कहना था कि पदोन्नति के समय एसटी-एससी के भीतर भी क्रीमीलेयर का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट के इतने किस्म के फैसले हैं कि हम पूरी जटिलता में यहां जाना नहीं चाहते, लेकिन अभी चूंकि यह मामला फिर से उठा है, और सात जजों की संविधानपीठ इस पर सुनवाई कर रही है, इसलिए इस पर हमारे तर्क रखना जरूरी है। 

हमारा ख्याल है कि क्रीमीलेयर के मामले में एसटी-एससी पर भी ओबीसी की तरह की शर्तें लागू होनी चाहिए, और एक सीमा से अधिक की संपन्नता, या सामाजिक ताकत की स्थिति को पैमाना बनाना चाहिए, ताकि आरक्षित वर्ग के भीतर एक शोषक वर्ग तैयार न हो सके। जब ताकतवर ओहदों तक पहुंचे हुए, और एक सीमा से अधिक संपन्न हो चुके आरक्षित लोगों की अगली पीढ़ी भी आरक्षण की पात्र मानी जाती है, तो यह बात साफ रहती है कि उस आरक्षित वर्ग के कमजोर लोग कभी भी इस मलाईदार तबके का मुकाबला नहीं कर सकते, और वे समान अवसर से उसी तरह वंचित रहते जाएंगे जिस तरह आरक्षित वर्ग अनारक्षित वर्गों के मुकाबले रहते थे, और जिस वजह से देश में आरक्षण की जरूरत आई थी। देश के दिग्गज वकील अभी सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से इस पर बहस करेंगे, और हो सकता है कि कुछ दूसरे तबकों की तरफ से भी वकील इसमें खड़े हों, लेकिन हम कानूनी बारीकियों में गए बिना इस मोटी बुनियादी समझ की बात करना चाहते हैं कि किसी भी परिवार को आरक्षण के लाभ की एक सीमा होनी चाहिए। इस सीमा तक फायदा उठा लेने के बाद लोगों को अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के साथ मुकाबले के लिए तैयार करना चाहिए, और आरक्षण का फायदा उन्हीं तबकों के अधिक कमजोर लोगों के लिए छोडऩा चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में दो जजों ने कल ठीक यही मुद्दा उठाया है, और हम बरसों से यही मांग करते आ रहे हैं। 

हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि आरक्षित वर्गों से आरक्षण का फायदा पाकर संसद, विधानसभा, देश की नौकरशाही, और तमाम किस्म की दूसरी ताकत की जगहों पर जो लोग पहुंचे हैं, अगर क्रीमीलेयर उन पर लागू हो, तो सबसे पहले उन्हीं के बच्चे आरक्षण के फायदों से बाहर हो जाएंगे। यही वजह है कि जहां-जहां मुमकिन है, वहां-वहां आरक्षित तबकों से सत्ता पर पहुंचे लोग क्रीमीलेयर के खिलाफ काम करते हैं, और इसीलिए एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू ही नहीं हो सकी क्योंकि तमाम सांसद, विधायक, जज, बड़े अफसर, अपने ओहदों और अपनी तनख्वाह की वजह से अपने बच्चों के लिए आरक्षण का फायदा खो बैठेंगे, और यह एक वर्गहित की बात आ जाएगी जिसमें आरक्षित वर्ग के भीतर सामाजिक न्याय करने का मतलब फैसला करने वालों के लिए आत्मघाती हो जाएगा। यही वजह है कि देश में बार-बार आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों को भी उससे हटाया नहीं जा सक रहा है। और तो और अखबारों और बाकी मीडिया की ताकतवर कुर्सियों पर बैठे हुए लोग भी अपनी तनख्वाह की वजह से क्रीमीलेयर में भी ऊपर रहेंगे, और वे भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे आरक्षण के फायदे से बाहर हो जाएं। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को सामाजिक न्याय को एक व्यापक परिदृश्य में देखना चाहिए, और संविधान की अलग-अलग धाराओं की बारीकियों में उलझने के बजाय इस बुनियादी जरूरत को पूरा करना चाहिए कि किसी आरक्षित वर्ग के भीतर ऊपर के पांच-दस फीसदी लोग ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी फायदा न पाएं, बल्कि एक पीढ़ी फायदा पाने, और एक सीमा से ऊपर पहुंच जाने के बाद उन्हें आरक्षण के फायदों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। किसी भी तरह के अवसर किसी तबके की आबादी के मुकाबले बहुत ही कम रहते हैं, और इन तबकों के हित में है कि अधिक से अधिक लोगों तक ये अवसर पहुंचाए जाएं, और इसके लिए जरूरी है कि आरक्षित तबके पर से क्रीमीलेयर को हटाया जाए। हम इस तर्क को बिल्कुल बोगस मानते हैं कि एसटी-एससी तबके चूंकि सामाजिक भेदभाव के शिकार हैं, इसलिए इन तबकों के आरक्षण पर न तो क्रीमीलेयर लागू होनी चाहिए, और न ही इनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने पर रोक लगनी चाहिए। आरक्षण का फायदा पाई हुई पीढ़ी हटने के बाद ही दूसरे लोग मौका पा सकते हैं, और सामाजिक भेदभाव की बात तो इन दोनों पर एक बराबर लागू होती है, कमजोर एसटी-एससी सामाजिक भेदभाव से उबरे हुए तो नहीं हैं। देखना है सुप्रीम कोर्ट का कैसा फैसला आता है, यह फैसला सरकारी नौकरियों में अवसरों से परे भी देश के सामाजिक न्याय के लिए बड़ा ऐतिहासिक होगा।

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