विचार / लेख
सौतिक बिश्वास
उत्तराखंड में एक नया बिल पारित होने के बाद अब वहाँ रहने वाले या रहने की योजना बना रहे लिव-इन जोड़ों को सरकार को अपने रिलेशनशिप के बारे में जानकारी देनी होगी।
उत्तराखंड विधानसभा ने इसी सप्ताह यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता या यूसीसी) को मंज़ूरी दी है।
इस नए बिल के एक अहम प्रावधान के अनुसार धर्म, लिंग और सेक्स को लेकर व्यक्ति की पसंद की परवाह किए बग़ैर राज्य के सभी निवासियों पर समान पर्सनल लॉ लागू होगा।
हालांकि कुछ आदिवासी समुदायों को इस बिल के दायरे से बाहर रखा गया है। बिल के इस एक प्रावधान ने इस पूरे बिल से अधिक ध्यान खींचा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का वादा था कि वो एक समान क़ानून सभी पर लागू करेगी। मौजूदा वक़्त में उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार है।
भारत के अधिकतर हिस्सों में अब भी साथ में रह रहे अविवाहित जोड़ों को पसंद नहीं किया जाता। इस तरह के रिश्तों को आम तौर पर ‘लिव-इन’ रिलेशनशिप कहा जाता है।
बिल में क्या है?
इस नए बिल के तहत एक पुरुष और एक महिला जोड़े को पार्टनर्स कहा गया है।
नए बिल के अनुसार, इस तरह के जोड़ों को अपने लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को बयान देना होगा, जो इस मामले में तीस दिनों के भीतर जांच करेंगे।
जांच के दौरान ज़रूरी होने पर पार्टनर्स को 'और अधिक जानकारी या सबूत' पेश करने को कहा जा सकता है।
लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में दिए बयान को रजिस्ट्रार स्थानीय पुलिस के साथ साझा करेंगे और अगर जोड़े में किसी एक पार्टनर की उम्र 21 साल से कम हुई तो उनके अभिभावकों को भी सूचित किया जाएगा।
अगर जांच के बाद अधिकारी संतुष्ट हैं तो वो एक रजिस्टर में पूरी जानकारी दर्ज करेंगे और जोड़े को एक सर्टिफिक़ेट जारी करेंगे। ऐसा न होने पर पार्टनर्स को सर्टिफिक़ेट न जारी करने के कारणों के बरे में बताया जाएगा।
बिल के अनुसार, अगर जोड़े में एक पार्टनर शादीशुदा है या नाबालिग़ है या फिर रिश्ते के लिए ज़ोर-जबर्दस्ती या फिर धोखाधड़ी से सहमति ली गई है तो रजिस्ट्रार लिव-इन रिलेशनशिप की रजिस्ट्री करने से इनकार कर सकते हैं।
बिल में लिव-इन रिलेशनशिप को ख़त्म करने के बारे में प्रावधान किया गया है।
इसके अनुसार, रजिस्ट्रार के पास एक आवेदन देकर और दूसरे पार्टनर को इसकी एक प्रति देकर रिश्ते को ख़त्म किया जा सकता है। इसकी जानकारी भी पुलिस को दी जाएगी।
अगर पार्टनर लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को अपना बयान नहीं देते और रजिस्ट्रार को इस बारे में ‘शिकायत या जानकारी’ मिलती है तो वो इस बारे में पार्टनर्स को जानकारी सबमिट करने को कह सकता है। इसके लिए उन्हें 30 दिनों का वक़्त दिया जाएगा।
अधिकारियों को जानकारी दिए बग़ैर, अगर कोई जोड़ा एक महीने से अधिक वक़्त तक लिव-इन में रहता है तो इस मामले में उन्हें तीन महीनों की जेल, 10 हज़ार रुपये का जुर्माना या दोनों ही हो सकती है।
लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को ‘ग़लत जानकारी देने’ या फिर जानकारी छिपाने के मामले में पार्टनर्स को तीन महीनों की जेल, 10 हज़ार रुपये का जुर्माना या दोनों ही हो सकती है।
जानकार क्यों कर रहे हैं आलोचना?
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस बिल के प्रस्तावित मसौदे की क़ानून के जानकार आलोचना कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन कहती हैं, ‘कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने ये फ़ैसला दिया था कि निजता एक मौलिक अधिकार है।’
‘दो वयस्कों के बीच सहमति से बने रिश्ते के मामले में राज्य को दखल नहीं देना चाहिए। इस प्रावधान को जो बात और ख़तरनाक बनाती है, वो ये है कि अपने रिश्ते को रजिस्टर न करने की सूरत में एक जोड़े को सज़ा भी झेलनी पड़ सकती है। ख़तरनाक प्रावधान है, जिसे हटाया जाना चाहिए।
मौजूदा वक्त में भारत में लिव-इन रिश्तों को साल 2005 के घरेलू हिंसा क़ानून के दायरे में रखा जाता है, जिसके अनुसार ‘घरेलू रिश्ते’ की परिभाषा दूसरे रिश्तों की तर्ज पर दो लोगों के बीच ऐसा रिश्ता है ‘जिसकी प्रकृति शादी के रिश्ते की तरह हो।’ भारत में काम की तलाश में युवा बड़ी संख्या में बड़े शहरों का रुख़ करते हैं। इनमें से कई पारंपरिक शादी और इससे जुड़ी व्यवस्था का विरोध करते हैं। ऐसे में यहाँ अविवाहित जोड़ों का साथ रहना इतना असमान्य भी नहीं है।
साल 2018 में एक लाख 60 हज़ार परिवारों पर हुए एक सर्वे में ये पाया गया कि 93 फ़ीसदी शादियां अरेंज्ड मैरिज हैं जबकि तीन फ़ीसदी लव मैरिज। हालांकि अलग-अलग सर्वे में शादी को लेकर अलग-अलग आँकड़े देखने को मिलते हैं।
मई 2018 में इनशॉर्टस ने इंटरनेट के ज़रिए एक लाख 40 हज़ार लोगों का सर्वे किया था।
इस सर्वे में शामिल होने वाले 80 फ़ीसदी लोगों की उम्र 18 से 35 के बीच थी।
सर्वे में पाया गया कि 80 फ़ीसदी लोगों का मानना है कि लिव-इन रिलेशनशिप को भारत में असामान्य माना जाता है, वहीं 47 फ़ीसदी का मानना था कि शादी में दोनों की सहमति होनी चाहिए। साल 2023 में लायन्सगेट प्ले ने 1000 भारतीयों के बीच एक सर्वे किया था, जिसमें ये पाया गया कि हर दो में से एक भारतीय को लगता है कि अपने पार्टनर को बेहतर समझने के लिए साथ रहना ज़रूरी है।
लिव-इन रिलेशनशिप में क्या शादी जैसी सुरक्षा मिल सकती है?
अदालतों का रुख़
बीते सालों में भारतीय अदालतों ने भी लिव-इन रिश्तों को नापसंद करते हुए टिप्पणियां दी हैं।
2012 में दिल्ली की एक अदालत ने लिव-इन रिलेशनशिप को ‘अनैतिक’ कहा और इस तरह के रिश्तों को ‘शहरी सनक’ और ‘पश्चिमी सभ्यता का बदनाम उत्पाद’ कहते हुए ख़ारिज कर दिया।
हालांकि इस तरह के रिश्तों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख़ सकारात्मक रहा है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में साथ रहने के अविवाहित जोड़ों के अधिकार का समर्थन किया था।
ये मामला एक कलाकार खुशबू से जुड़ा था, जिसमें उन पर सार्वजनिक तौर पर शालीनता को ठेस पहुँचाने वाले बयान देने का आरोप था।
ख़ुशबू ने 2005 में विवाह पूर्व यौन संबंध को लेकर कहा था कि महानगरों की लड़कियां अब यौन इच्छाओं को दबाती नहीं हैं, इस बारे में उनके विचार खुले हुए हैं।
उन्होंने भी कहा था कि यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए और माता-पिता को इसकी शिक्षा देनी चाहिए।
खुशबू के सेक्स मुकदमे ख़त्म
लिव-इन रिश्ते नैतिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य-पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट
साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने संसद से कहा कि वो लिव-इन रिलेशनशिप में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क़ानून लागू करे। कोर्ट ने कहा कि सामाजिक तौर पर मान्यता न दिए जाने के बावजूद इस तरह के रिश्तों को ‘अपराध या पाप की तरह न देखा जाए।’
एक मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि इस तरह के रिश्तों में महिलाओं को घरेलू हिंसा क़ानून के तहत सुरक्षा मिली हुई है। इस क़ानून के तहत दी गई ‘घरेलू रिश्ते की परिभाषा के दायरे में लिव-इन रिलेशनशिप भी शामिल है।’
उत्तराखंड के क़ानून के अनुसार, लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला से पुरुष अलग हो जाता है तो वो अदालत से मदद और अपने भरणपोषण के लिए मदद मांग सकती है। इस तरह के रिश्तों से जन्मे बच्चे को भी क़ानूनी उत्तराधिकारी माना जाएगा।
कइयों को ये डर है कि उत्तराखंड में नया क़ानून लागू होने के बाद यहाँ साथ में रह रहे जोड़ों के मन में डर पैदा हो सकता है। उनके ख़िलाफ़ जानकारी देने के मामले बढ़ सकते हैं और जिन जोड़ों की रजिस्ट्री नहीं हुई है, उन्हें ‘किराए पर घर मिलना मुश्किल’ हो सकता है।
जानकारों का ये भी कहना है कि लिव-इन जोड़ों की गिनती करना और उनके मामले रजिस्टर करना भी मुश्किल हो सकता है, ख़ास कर तब जब 2011 से देश में जनगणना नहीं हुई है।