संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हजारों बरस का सामाजिक ढांचा क्या एकदम असफल?
11-Feb-2024 5:16 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   हजारों बरस का सामाजिक ढांचा क्या एकदम असफल?

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ की खबर है कि एक महिला ने अपने शराबी पति की प्रताडऩा से तंग आकर उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया। पन्द्रह बरस पहले यह प्रेमविवाह हुआ था, इनका 14 बरस का एक बेटा भी था, और जब यह नशा इस महिला के बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो उसने पति को इस तरह से निपटा दिया। जांच और पूछताछ में पता चला कि 44 बरस की थकी हुई पत्नी खुद ही पेट्रोल पंप पर जाकर पेट्रोल खरीद लाई, और फिर सोए हुए पति पर पेट्रोल छिडक़कर आग लगा दी। यह बात सुनने में भयानक लग सकती है, लेकिन नशेड़ी जीवनसाथी से प्रताडि़त आदमी या औरत के लिए रोज की प्रताडऩा इससे कम भयानक नहीं रहती है। आमतौर पर इस दर्जे का नशा करने वाले लोग गरीब या मध्यमवर्गीय रहते हैं, और नशे की उनकी आदत परिवार की कमर भी तोड़ देती है। बहुत से ऐसे गरीब परिवार हैं जहां पर राशन के रियायती चावल को भी घर से ले जाकर, बेचकर लोग शराब पी लेते हैं, और फिर उसके बाद चाहे उनके बच्चों के भूखे मरने की ही नौबत क्यों न आ जाए। हाल के महीनों में ही कई ऐसी घटनाएं सुनाई पड़ी हैं जिनमें बेटे के नशे से परेशान, और पैसे न देने पर उसकी हिंसा झेलने वाले मां-बाप ने उसे मार डाला, या बाप की नशे की आदत से थके हुए बच्चों ने उसे मार डाला। यह बात समझने की जरूरत है कि इनमें से अधिकतर लोगों को यह पता रहा होगा कि कत्ल करने की सजा कैद होती है, और बचना शायद आसान भी नहीं रहता है। इसके बावजूद लोगों ने अगर अपने ही सबसे करीबी लोगों के ऐसे कत्ल किए हैं, तो यह जाहिर है कि अपने घर की खुली जिंदगी से उन्हें उस पल जेल की कैद बेहतर लगी होगी, जब उन्होंने ऐसा कत्ल किया होगा। मतलब यह कि शराबी घरवालों की प्रताडऩा का बर्दाश्त जब जवाब दे जाता है, तो वह कातिल हो जाता है। 

अब किया क्या जाए? भारत जैसे देश में जहां राज्यों के बीच सरहदें न कटीले तारों से घिरी हुई हैं, न दीवारे हैं। ऐसे में किसी एक प्रदेश में नशाबंदी शायद आसान या मुमकिन भी नहीं है। आज देश में गुजरात, बिहार, और मिजोरम शायद पूरी तरह नशाबंदी लागू किए हुए हैं, लेकिन जो खबरें आती हैं, वे बताती हैं कि कम से कम गुजरात और बिहार में तो बाजारभाव देने पर हर किस्म की दारू घर पहुंचकर मिलती है, और दारूबंदी के नाम पर, उसे लागू करते हुए सरकार का पूरा अमला ही भ्रष्ट हो गया है। शराबबंदी से गैरकानूनी शराब का इतना बड़ा बाजार खड़ा हो जाता है कि वह पुलिस और दीगर संबंधित अमले को गले-गले तक भ्रष्ट कर देता है। यह कमाई एक बार मुंह लगती है, तो फिर वहां शराब से परे कई दूसरे किस्म के नशे भी चलने लगते हैं, और सरकारी अमला संगठित गिरोह की तरह काम करने लगता है, तरह-तरह के माफिया पनप जाते हैं। दुनिया के और कई देशों का इतिहास बताता है कि जहां कहीं शराबबंदी की गई, उन देशों में बड़े-बड़े माफिया पनप गए, और एक बार सरकार के खिलाफ, कानून के खिलाफ एक कारोबार करना शुरू हुआ, तो फिर वे ऐसे हर किस्म के कारोबार को करने लगे। इसलिए किसी देश में शराबबंदी को टुकड़ों में करना शायद आसान नहीं है, और अभी तकरीबन तमाम हिन्दुस्तान में शराब खुली रहने पर भी जितने किस्म के खतरनाक नशे दुनिया भर से इस देश में आते हैं, वे शराब के मुकाबले अधिक खतरनाक रहते हैं।  

एक बार फिर परिवारों की तरफ लौटें, तो लगता है कि क्या परिवार, पड़ोस, समाज, और दोस्तों का ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है कि किसी के नशे में इतने डूब जाने पर भी आसपास के लोग उसे रोकने-टोकने, संभालने और बचाने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाते? नशे की ऐसी हालत तो परिवार से परे भी सबको दिखती होगी, लेकिन अगर बाकी लोग दखल नहीं दे पा रहे हैं, तो यह सामुदायिक जिम्मेदारी का पूरा ही असफल हो जाना बताता है। ऐसे में एक परिवार अपने ही एक सदस्य से जूझने के लिए अकेला रह जाता है, और बहुत से मौकों पर दोनों में से किसी एक तरफ से हिंसा होती है। यह हिंसा जब मरने-मारने पर आ जाती है, तब तो वह पुलिस के मार्फत लोगों को दिखती है, लेकिन संगीन जुर्म से नीचे की ऐसी हिंसा परिवार के बंद दरवाजे के भीतर लगातार चलती है, पूरे परिवार को बर्बाद करती है, और इसके खिलाफ कोई कानून भी नहीं है। यह सिलसिला बहुत निराश करता है क्योंकि यह गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की अर्थव्यवस्था को पूरा ही खत्म कर देता है, परिवार के कमाऊ, या काम करने के लायक किसी सदस्य को बेरोजगार या बेकार कर देता है, और बच्चों के सामने एक बहुत बुरी मिसाल पेश करता है। ऐसा खतरा दिखता है कि शराबियों के बच्चे हो सकता है कि आगे चलकर खुद भी शराबी हो जाएं क्योंकि नशे से उनकी हिचक देख-देखकर खत्म हो चुकी रहती है। 

हम इस नौबत को सुधारने में सरकार की अधिक जिम्मेदारी नहीं देखते जो कि दारू के धंधे की वैध और अवैध कमाई को पसंद करती है। लेकिन जनता के बीच के लोगों को इस तरह का हस्तक्षेप करना चाहिए जो कि समाज के ही लोगों को दखल देने की जिम्मेदारी का अहसास कराए। आज भी इस दर्जे के एक शराबी के आसपास दर्जनों ऐसे परिचित और परिवार होंगे जो कि उसे रोकने की कोशिश करने का हक रखते होंगे। सामाजिक पहल बस इतनी करनी है कि ऐसा हक रखने वाले लोगों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराना है कि वे किसी को समझाकर, किसी का हाथ थामकर, डांटकर या रोककर अगर बर्बाद होने से रोक सकते हैं, तो उन्हें रोकना चाहिए। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेदारी बड़ी अमूर्त बातें लगती हैं जिनका कोई चेहरा नहीं है, लेकिन कानून की पौन सदी ने समाज के ढांचे को खत्म नहीं कर दिया है कि लोग एक-दूसरे से बात न कर सकें। अनगिनत ऐसी मिसालें हैं जिनमें लोगों ने एक-दूसरे को बचाते हुए जान भी दे दी है, यह एक अलग बात है कि एक-दूसरे की जान लेने की खबरें अधिक बनती हैं। समाज में इतना कुछ अच्छा भी होता है कि वह लोगों के एक-दूसरे के फिक्र किए बिना नहीं हो सकता था, परेशानी और मुसीबत में एक-दूसरे का साथ दिए बिना नहीं हो सकता था। इसलिए समाज को हर बात-बिनबात पर सरकार की तरफ देखना बंद करना चाहिए, पुलिस, कोर्ट, और जेल तो सबसे आखिरी इलाज होना चाहिए, इन सबकी नौबत आने का एक मतलब यह भी होता है कि समाज के लोग अपनी जिम्मेदारी से चूक गए हैं। समाज का ढांचा हजारों बरस से चले आ रहा है, उसके भीतर बहुत सी बुराईयां भी हैं, लेकिन उसकी बहुत सी अच्छी ताकतें भी रही हैं, और हमारा मानना है कि अपने आसपास इस किस्म के नशे और उससे उपजी हिंसा की नौबत को रोकने के लिए सभी को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। 
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