मनोरंजन

हॉलीवुड से कितनी अलग हैं बॉलीवुड की महिलाएं
13-Feb-2024 1:00 PM
हॉलीवुड से कितनी अलग हैं बॉलीवुड की महिलाएं

बॉलीवुड और हॉलीवुड दोनों में आमतौर पर महिलाओं को पुरुष नायकों के सहायक किरदार की भूमिका दी जाती है. इस समानता के अलावा, दोनों फिल्म उद्योग एक-दूसरे से कैसे अलग हैं?

  डॉयचे वैले पर जोआना बनर्जी-फिशर की रिपोर्ट- 

बॉलीवुड नाम 1970 में दिया गया था, जिससे दुनिया के सबसे सफल फिल्म उद्योगों में से एक को पश्चिमी दर्शकों के लिए ज्यादा आकर्षक बनाया जा सके.

लेकिन क्या बॉलीवुड की हॉलीवुड से तुलना करना संभव है. खासकर जब बात फिल्मों में काम करने वाली महिलाओं की हो?

यह सवाल हमने यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में फिल्म अध्ययन की व्याख्याता प्रियंका सिंह से पूछा. उन्होंने कहा, "नहीं, भारत में फिल्में एक धर्म की तरह है.” प्रियंका सिंह भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लेखन और प्रतिनिधित्व की विशेषज्ञ हैं.

बॉलीवुड पर आई राष्ट्रनिर्माण की जिम्मेदारी
अपने शुरुआती सालों में बॉलीवुड और हॉलीवुड की फिल्मों के लक्ष्य और उद्देश्य अलग-अलग थे. उनके दर्शक भी अलग थे. इसलिए स्क्रीन पर महिलाओं का चित्रण भी अलग-अलग था.

जब भारत को ब्रिटिश शासन से आजादी मिली, उस समय बॉलीवुड की शुरुआत हुए कुछ दशक ही बीते थे. ऐसे में फिल्मों के ऊपर भारी बोझ था.

भारत का पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मार्गदर्शन में शुरू हुआ था. उन्होंने राष्ट्र निर्माण में सिनेमा की भूमिका पर जोर दिया था.

उन्होंने कहा था, "फिल्में लोगों के जीवन में बेहद प्रभावशाली हो गई हैं. ये उन्हें सही और गलत दोनों दिशाओं में शिक्षित कर सकती हैं.

उस समय की फिल्मों में सरकार के मजबूत समाजवादी एजेंडे की झलक होती थी. मेहनत करते किसानों और महिलाओं को भारतीय आदर्शों के प्रतीक के रूप में महिमामंडित किया जाता था.

जैसे 1957 में आई ‘मदर इंडिया' फिल्म में एक महिला की कहानी दिखाई गई. यह महिला भीषण गरीबी और कठिनाई से निकलकर एक ऐसे जीवन में प्रवेश करती है जहां वह और उसका गांव दोनों फल-फूल रहे हैं.

यह चित्रण कथित आदर्श महिला के गुणों को दिखाते हुए एक उदाहरण पेश करने के बोझ के नीचे दब गया. प्रियंका सिंह कहती हैं, "आजादी के बाद महिलाओं को त्यागशील, धैर्यवान और आदर्श नारी का अवतार बनने की जरूरत थी.”

हॉलीवुड ने ईसाई मूल्यों को संकट में डाला
बॉलीवुड के उलट हॉलीवुड राष्ट्रीय मूल्यों को दिखाने से कोसों दूर था और वह अमेरिका के पारंपरिक ईसाई मूल्यों को संकट में डाल रहा था.

हॉलीवुड अमेरिका की पसंदीदा पलायनवादी कला के रूप में विकसित हुआ. 1920 और 1930 के दशक में महिला नायिकाएं पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान रूप से नाराज कर रही थीं.

इन कहानियों में महिलाएं अमीर और खुश रहने के लिए सेक्स का इस्तेमाल कर रही थीं. जैसा 1933 में आयी फिल्म ‘बेबीफेस' में दिखा.

इसके कुछ ही समय बाद हॉलीवुड का सुनहरा दौर शुरू हुआ. जिसमें हॉलीवुड ने दर्शकों को हंसाया और प्यार करने के लिए प्रेरित किया.

आजकल बॉलीवुड फिल्मों के सेट पर कुछ बुनियादी नियम होते हैं, जिनके चलते अतरंग दृश्यों के दौरान सहमति के लिए सुरक्षित माहौल बना है. लेकिन 1980 और 1990 के दशक को हिंदी सिनेमा का अंधकार युग कहा जाता है. उस दौरान दर्शकों को हंसाने के लिए महिलाओं को पत्नी, मां, वैश्या या बहुत ज्यादा मोटा दिखाया जाता था.

उस समय महिलाओं के चित्रण में नियंत्रण और संतुलन का ध्यान नहीं रखा जाता था. इस पर प्रियंका सिंह कहती हैं, "भारतीय सिनेमा के मामले में नैतिकता को परिभाषित करने की जरूरत है.”

1980 के दशक में आधुनिक हुआ हॉलीवुड
हॉलीवुड में महिला नायिकाएं स्पेस मिशन की रक्षा कर रही थीं, जैसा 1971 में आई फिल्म एलियन में दिखा. वे मनोरोगियों को पकड़ रही थीं, जैसा 1991 में आई फिल्म ‘द साइलेंस ऑफ द लैंब्स' में दिखा. वे लगातार सफल हो रही थीं, जैसा 1991 की फिल्म ‘थेलमा एंड लूसी' में दिखा.

एमजे बख्तियारी ने ‘अमेरिका में महिला किरदारों के विकास' पर एक रिसर्च पेपर लिखा है. इसमें वे लिखती हैं कि 1980 का दशक जबरदस्त बदलाव का दशक था. इसने हॉलीवुड उद्योग और अमेरिकी फिल्मों को आधुनिक रूप और आकार दिया.

लेकिन बॉलीवुड में नारीवाद की एक अलग ही जगह थी. मंथन (1976), मिर्च मसाला (1986) और अर्थ (1982) जैसी कम बजट की फिल्में कुछ फिल्मकारों और उनके फिल्म स्कूल स्नातकों के समूह का क्षेत्र बनी रहीं. इससे ही तथाकथित समानांतर सिनेमा बना, जिसका आम जनता से जुड़ाव बेहद कम था.

प्रियंका सिंह कहती हैं कि भारत का स्वतंत्र सिनेमा अपने समय से बेहद आगे है, जहां लेखन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

वैसे तो बॉलीवुड और हॉलीवुड दोनों जगह यह धारणा आ गई थी कि महिला का मतलब स्त्रैण होना जरूरी नहीं है. लेकिन उन्हें अलग-अलग तरीके से पेश किया जा रहा था.

भारतीय घरों की अदृश्य नायिकाओं यानी मां और पत्नी से जुड़ी ज्यादातर सामाजिक कहानियां पुरुषों द्वारा बताई गई थीं. उदाहरण के लिए अस्तित्व (2000) और लज्जा (2001) की परिकल्पना, निर्देशन और निर्माण पुरुषों द्वारा किया गया था.

हालिया समय में आई बॉलीवुड फिल्में जैसे- क्वीन (2013), पीकू (2015) और थप्पड़ (2022) समझौता ना करने वाली युवा महिलाओं की कहानी कहती हैं. इनसे स्थायी परिवर्तन आया है.

इनके अलावा 2022 में गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म भी आई, जो हिट साबित हुई थी. यह सभी फिल्में मुख्याधारा के सफल और प्रसिद्ध पुरुष निर्देशकों ने बनाई थीं, जो उनके लिए अच्छी साबित हुईं.

हॉलीवुड में लहर का नेतृत्व कर रहीं महिलाएं
हॉलीवुड में काम कर रही महिलाएं निर्माता, निर्देशक और लेखिका के रूप में साथ आ रही हैं और अपनी भूमिकाओं की अदला-बदली भी कर रही हैं.

2023 में इतिहास बनाने वाली बार्बी फिल्म के लिए मार्गोट रॉबी और ग्रेटा गेरविग का साथ आना इसका ताजा उदाहरण है.

हालांकि, अभी भी हॉलीवुड में पुरुषों का वर्चस्व ज्यादा है. हॉलीवुड के बड़े स्टूडियो करोड़ों डॉलर कमाने वाली सुपरहीरो फिल्में बना रहे हैं. इनमें महिला नायिकाएं सिलिकॉन से बने चुस्त कपड़े पहने होती हैं, जो सच्चाई से बेहद दूर होती हैं.

वंडर वुमन (2017), कैट वुमन (2004) और ब्लैक विडो (2021) लगातार पसंदीदा बनी हुई हैं.

हालिया समय में बॉलीवुड की कई रिकॉर्ड तोड़ने वाली फिल्मों में महिलाओं को बेहद कमजोर दिखाया गया है. कबीर सिंह (2019) और एनिमल (2023) में पुरुष नायकों की ताकत और प्रासंगिकता उनकी क्रूरता और स्त्रीद्वेष पर आधारित है.

बॉलीवुड में महिलाओं के वस्तुकरण को हम जितना चाहें पुरानी बात कहकर प्रचारित करते रहें, पर यह लगातार अपना सिर उठाता रहता है. (dw.com)
 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news