संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीबों के हिमायती अब संसद-विधानसभा, सभी जगहों पर घट रहे हैं...
14-Feb-2024 3:47 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : गरीबों के हिमायती अब संसद-विधानसभा, सभी जगहों पर घट रहे हैं...

देश की संसदीय प्रक्रिया का विश्वसनीय विश्लेषण करने वाली एक जानी-मानी संस्था पीआरएसइंडिया ने अभी ये आंकड़े सामने रखे हैं कि 17वीं लोकसभा, जिसका कि कार्यकाल अभी खत्म होने को है। इसमें सांसदों की मौजूदगी कैसी रही, और उन्होंने कितने सवाल पूछे। इस विश्लेषण को एक नजर देखें तो यह दिखता है कि इन पांच बरसों में लोकसभा ने 274 दिन काम किया जो कि भारतीय इतिहास की तमाम लोकसभाओं में से सबसे कम दिन का था। सभी सांसदों को मिला लें तो लोकसभा में हाजिरी 79 फीसदी थी, इनमें मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष शामिल नहीं हैं, जिनकी मौजूदगी गिनी नहीं जाती है। इस 17वीं लोकसभा में 10 फीसदी सांसद ऐसे थे जिनकी हाजिरी 60 फीसदी से कम थी। अलग-अलग राज्यों के सांसदों के पूछे गए कुल सवालों को देखें, तो सबसे ऊपर महाराष्ट्र है, उसके बाद आन्ध्र, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु, झारखंड, कर्नाटक, ओडिशा, और गुजरात का नंबर रहा। राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा सवाल पूछने वाली पार्टी एनसीपी रही, फिर शिवसेना, डीएमके, वाईएसआर कांग्रेस, बीआरएस, कांग्रेस, बीजू जनता दल, भाजपा, जेडीयू, और बसपा का नंबर रहा। 

लेकिन इसी विश्लेषण की जानकारी के मुताबिक तृणमूल कांग्रेस के बंगाल से निर्वाचित सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, और पंजाब के गुरदासपुर से भाजपा के सांसद सनी देओल पांच साल में लोकसभा की किसी बहस में नहीं आए। इनके अलावा भाजपा के पांच और सांसद, तृणमूल के एक, बसपा के एक सांसद ऐसे रहे जो लोकसभा की किसी बहस या चर्चा में शामिल नहीं हुए। एक दिलचस्प जानकारी यह है कि छत्तीसगढ़ के भाजपा सांसद मोहन मंडावी और इसी पार्टी के अजमेर के सांसद भागीरथ चौधरी ने पांच बरसों में सदन की एक भी बैठक नहीं छोड़ी, वे तमाम 274 दिन मौजूद रहे। 

अब सवाल यह उठता है कि राज्यसभा में जहां कि लोगों को मनोनीत किया जाता है वहां तो पार्टियां कई लेखकों, पत्रकारों, खिलाडिय़ों, फिल्मी सितारों को चुनावी फायदे के हिसाब से मनोनीत कर देती हैं। राष्ट्रपति की तरफ से भी राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है जो कि राष्ट्रपति का महज दस्तखत होता है, और फैसला तो केन्द्र सरकार का ही रहता है। ऐसे में सोचने लायक बात यह है कि निर्वाचित लोगों के सदन, लोकसभा में भी अगर ऐसे लोग चुनाव लडक़र और जीतकर पहुंचने लगें, जिनकी सदन की कार्रवाई में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो उनकी लोकसभा सीट के लाखों मतदाताओं का तो संसदीय प्रक्रिया में कोई प्रतिनिधित्व रह ही नहीं जाता। जबकि पूरे देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिलाकर ही लोकसभा बनती है, और ऐसी उम्मीद की जाती है कि अपने मतदाताओं से लगातार संपर्क में रहने वाले सांसदों की कही बातों में उनके मतदाताओं का रूख भी कहीं न कहीं दिखेगा, और उनके चुनाव क्षेत्र के मुद्दे भी सदन की बहस में आ सकेंगे। इसीलिए हिन्दुस्तान का कोई भी हिस्सा संसद के निर्वाचन से बाहर नहीं रखा गया है। ऐसे में 9 सांसदों ने किसी भी बहस में अगर मुंह भी नहीं खोला है, तो सवाल यह उठता है कि संसद को इनकी जरूरत क्या है, और क्या ये अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं का हक नहीं मार रहे हैं? पार्टियों की दिक्कत यह है कि उसे सदन में हर सांसद तेज-तर्रार नहीं चाहिए, और कई ऐसे नेता चाहिए जो अपनी सीट पर जीत सकें, और बाकी सीटों पर भी कुछ-कुछ असर डाल सकें। यह नौबत सदन के हिसाब से तो ठीक नहीं है, लेकिन यह पार्टियों की चुनावी राजनीति को माकूल बैठती है। और फिल्मी सितारों जैसे मशहूर लोगों का एक अलग इस्तेमाल पार्टी कर लेती है, और फिर संसद या विधानसभा जैसे सदनों में संख्या बढ़ाने के लिए भी ये काम आते हैं। 

कुछ ऐसी ही नौबत राज्यसभा में मनोनीत होने वाले रविशंकर जैसे शास्त्रीय संगीतकार, और सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट खिलाड़ी के साथ भी रहती है, और इनमें से बहुत से लोग सजावट का सामान बने रहते हैं, अपने-अपने काम के दायरे में उनकी बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का सम्मान होते रहता है, लेकिन वे देश की संसद में कुछ भी जोड़ नहीं पाते, लोकतंत्र को उनसे कुछ भी नहीं मिलता। इनका योगदान मैदान पर या संगीत सभागृह में तो रहता है, लेकिन क्या भारत की संसद को, खासकर राज्यसभा को सम्मान का मंच बना देना ठीक है? संसद के दोनों ही सदनों में, और राज्यों में विधानसभा या विधान परिषदों में देश-प्रदेश की बहुत जरूरी बातों पर चर्चा होती है, जनहित के मुद्दे उठाए जाते हैं, सरकारों को घेरा जाता है, और समय-समय पर यहां नए कानून भी बनते हैं। एक तो सभी सदनों की कार्रवाई सिकुड़ती जा रही है, उनके काम के दिन घट रहे हैं, सदनों में जनता से जुड़े हुए लोग घट रहे हैं, और पार्टियां अतिसंपन्न लोगों को उम्मीदवार बनाकर सदन पहुंचने की बेहतर संभावनाएं तलाशने लगी हैं। कुल मिलाकर देश की आबादी के सबसे बड़े हिस्से की समझ रखने वाले, उन तबकों या इलाकों से आने वाले, जमीन से जुड़े हुए लोग सभी सदनों में घटते चल रहे हैं। अरबपतियों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों की जिंदगी की तकलीफों को समझें, और उनकी भलाई के मुद्दे सदनों में उठाएं। धीरे-धीरे बहुत सी पार्टियों के बहुत से लोग जमीन से जुड़े हुए नहीं रह गए हैं, लेकिन उनके तरह-तरह के उपयोग को देखते हुए उन्हें चुनाव लड़ाया जाता है, या राज्यसभा में मनोनीत किया जाता है। यह लोकतंत्र का एक बड़ा नुकसान है जिसकी बुनियादी जरूरत सबसे जरूरतमंद लोगों के मुद्दों का उठना रहना चाहिए, लेकिन इनकी समझ रखने वाले लोग कम, सदनों का समय कम, पार्टियों की दिलचस्पी कम, और सदनों में बहस कम। कुल मिलाकर देश की आधी गरीब आबादी की जगह इस लोकतंत्र में राशन दुकान की कतार में ही रह गई है, जहां से उसे कुछ किलो अनाज हर महीने दे दिया जाता है। 

हम आज की यह बात दो फिल्मी सितारों तक सीमित रखना नहीं चाहते, बल्कि यह सवाल खड़ा करना चाहते हैं कि पार्टियां उम्मीदवारी या मनोनयन में ऐसे लोगों को बढ़ाती चल रही हैं जो जनता से जुड़े हुए नहीं हैं, तो ऐसे लोकतंत्र का आखिर क्या होगा? सांसद अपनी सहूलियतों की वजह से भी आम जनता की तकलीफों के रूबरू कई बार नहीं हो पाते। पीआरएस संस्था के ही दूसरे कुछ विश्लेषण बतलाते हैं कि किस तरह संसद और विधानसभाओं में करोड़पतियों की मौजूदगी लगातार बढ़ती जा रही है। इस लोकतंत्र में समाज के उस आखिरी व्यक्ति की पहचान रखने वाले लोग ही देश की सबसे बड़ी पंचायत से घटते चल रहे हैं, और राज्यों की विधानसभाओं का हाल भी कुछ ऐसा ही चल रहा है। इस बारे में सोचकर देखें। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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