विचार / लेख
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
पंडित जटाशंकर अपना माथा पकडक़र बैठ गए। खिन्न होकर बोले, ‘ये पांच बार ‘तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ’ लिखने वाली लडक़ी कौन है जो हमारी बहू बनना चाह रही है?’
‘अपने पड़ोसी गप्पू कसेर की लडक़ी है।’
‘हे प्रभु भोलेनाथ, रक्षा करो। कैसे संकट में पड़ गया मैं? मेरी रक्षा करो। मैं पहले से जानता था कि सिनेमा देख-देख कर हमारा लडक़ा कोई गुल खिलाएगा। एक दिन छत में मैंने उसे गाना बजाते देखा था तब ही मुझे सावधान हो जाना था। मुझे यह अनुमान नहीं था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर यह मूर्ख लडक़ा किसी कसेरन बहू को घर लाने की बात सोचेगा?’
‘पर ये विवाह कैसे होगा? नीची जाति की बहू आ गई तो हमारी दोनों बेटियों को कौन ब्राह्मण परिवार अपने घर की बहू बनाएगा?'
‘वह तो है। कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा मैं समाज को? प्रभु, कोई राह दिखाओ।' पंडित जटाशंकर की आँखों से टप-टप आंसू बहने लगे। कुछ देर में जटाशंकर शांत हुए तो बोले, ‘आने दो कृपा को घर में, हड्डी-पसली तोडक़र उसके इश्क का भूत उतारता हूँ।’
‘तनिक समझदारी और शांति से काम लो जी। बात अगर बिगड़ी तो और बिगड़ जाएगी। चि_ी में पढ़े नहीं क्या? दोनों एक-दूसरे के लिए जहर खाकर मरने को उतारू हैं! अपना एक अकेला लडक़ा है, कुछ कर लिया तो?’
‘तो उसकी आरती उतारूँ? मोहल्ले में प्रसाद बंटवा दूं?’
‘कुछ दिन चुप रहो, कोई रास्ता अवश्य निकलेगा। भोलेनाथ अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं, वे कुछ करेंगे। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, तुम कृपा से कुछ न कहना।’
‘कुछ न कहना, तुम्हारी इसी छूट ने लडक़े को नष्ट किया है, अब फिर कह रही हो, कुछ न कहना।’
‘तुम अभी गुस्से में हो। बैठे तुम्हारे लिए नींबू का शरबत बनाती हूँ, पी लो, फिर बाद में देखेंगे।’ पंडिताइन बोली।
पंडित जटाशंकर के जिगरी दोस्त थे, अनोखेलाल, जिनकी कोतवाली रोड पर कपड़े की दूकान थी। शाम के समय दोनों की बैठक होती, सप्ताह में छ: दिन अनोखे लाल की दूकान में और मंगलवार को पंडित जटाशंकर के घर में। समाज और राजनीति की चर्चा होती, घर-परिवार की बात होती। आज गुरूवार है, बैठक ज़ारी है लेकिन पंडित जटाशंकर चुप-चुप से बैठे हैं। अनोखेलाल ने पूछा, ‘आज मुंह में दही जमाये बैठे हो पंडित?’
‘क्या बताऊँ? तुमसे मेरा कुछ भी छुपा नहीं है लेकिन बात ऐसी है कि बताने की हिम्मत नहीं हो रही है।’ जटाशंकर बोले।
‘अरे, हमसे कैसी पर्देदारी? क्या हुआ महाराज?’
‘लडक़ा गलती कर बैठा है, पड़ोस की एक लडक़ी के चक्कर में फंस गया है।’
‘लडक़ा कितने साल का हो गया है?’
‘अठारह का हो गया है।’
‘तो ब्याह कर दो उसका, इसमें समस्या क्या है?’
‘कसेर की लडक़ी है, भैया अनोखेलाल।’
‘अरे बाप रे!’
‘वही तो बात है। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।’
‘रुको, मुझे सोचने दो।’
‘सोचो यार, कुछ सोचो और मुझे इस संकट से उबारो।’
‘ठीक है, मंगल को मेरी दूकान बंद रहती है, उस दिन फुर्सत रहती है। तब तक कोई उपाय सोचता हूँ। तुम चिंता न करो। और हाँ, लडक़े को कुछ न कहना, मैं घर आकर उससे बात करूंगा।’ अनोखेलाल ने पंडित जी को आश्वस्त किया। (क्रमश:)
(उपन्यास ‘मद्धम मद्धम’ का एक अंश)