संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चुनावी बांड पर सुप्रीम कोर्ट का तगड़ा वार, असंवैधानिक करार, दानदाताओं के नाम...
15-Feb-2024 3:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : चुनावी बांड पर सुप्रीम कोर्ट का तगड़ा वार, असंवैधानिक करार, दानदाताओं के नाम...

सुप्रीम कोर्ट ने अभी-अभी दिए एक फैसले में भारत में लागू चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर रोक लगा दी है। कुछ महीने पहले से इस मामले की सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रखा गया था, और आज अभी कुछ देर पहले पांच जजों की एक संविधानपीठ ने इस योजना में रखे गए गोपनीयता के प्रावधान को सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना, योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इसके इस मौजूदा रूख को रद्द कर दिया है। इसके साथ ही अदालत ने पिछले पांच सालों में राजनीतिक दलों को मिले चंदे का हिसाब-किताब भी मांग लिया है। अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह 13 अप्रैल तक चुनावी बांड खरीदने वाले, और राजनीतिक दलों को देने के बारे में सारी जानकारी वेबसाइट पर साझा करे। इस फैसले के बाद अब जनता को यह पता होगा कि किसने किस पार्टी की फंडिंग की है। इस योजना के तहत कोई व्यक्ति या कंपनी स्टेट बैंक जाकर चुनावी बांड खरीद सकते थे, और बैंक ऐसे खरीददारों की जानकारी गोपनीय रखता था। फिर ये बांड लोग या कंपनियां अपने पसंदीदा राजनीतिक दल को दे देते थे। 

चुनावी बांड की यह योजना 2017 में वित्त अधिनियम में किए गए संशोधनों के बाद मुमकिन हुई थी। इसके खिलाफ लगातार यह बात कही जा रही थी कि इस योजना से उद्योगपति या दूसरे कारोबारी अपनी किसी कागजी या फर्जी कंपनी के नाम से भी बांड खरीदकर पसंदीदा पार्टी को दे सकते थे। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स और सीपीएम की एक डॉ.जया ठाकुर, इन दोनों ने चुनावी बांड के साथ रखे गए गोपनीयता के प्रावधान को मतदाताओं के सूचना के अधिकार के खिलाफ माना था, और कहा था कि इसकी वजह से लोग फर्जी कंपनियों के रास्ते भी चंदा दे रहे हैं। सरकार ने इस याचिका का यह कहते हुए विरोध किया था कि बांड की वजह से राजनीति में कालाधन आना थम गया है, और दानदाताओं की शिनाख्त छुपाना इसलिए जरूरी है कि वे किसी राजनीतिक दल के नाराजगी का शिकार न हो। पांच जजों की बेंच ने सुनवाई के दौरान सरकार को फटकार लगाई थी कि क्या यह राजनीतिक दलों को रिश्वत देने को पहनाया गया कानूनी जामा नहीं है? जजों ने कहा था कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए यह तो मुमकिन है कि वह बांड खरीदने वालों की जानकारी पा सके, लेकिन विपक्ष को ऐसी जानकारी नहीं मिल सकती। अदालत ने चुनाव आयोग को भी यह हुक्म दिया था कि वह राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के रास्ते मिले चंदों का हिसाब एक सीलबंद लिफाफे में अदालत में जमा करे। 

यह बड़ा दिलचस्प मामला इसलिए भी है कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले कई फैसले ऐसे आए थे जो कि सत्ता को सुहाने वाले थे। हो सकता है कि वे तमाम फैसले पूरी तरह से सही रहे हों, लेकिन एक जनधारणा यह बन रही थी कि अदालत में भी सब कुछ सरकार की मर्जी का हो रहा है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी, और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को पिछले बरसों में मिले सबसे अधिक चुनावी चंदे का हिसाब भी शायद इस फैसले से अदालत के सामने आएगा, और पहली नजर में ऐसा लगता है कि दानदाताओं के नाम जनता के सामने भी रखे जाएंगे। वैसे भी देश में जब सूचना का अधिकार लागू है, तो योजना का यह गोपनीयता वाला हिस्सा पूरी तरह से उसके खिलाफ ही था, और ऐसा लगता है कि इसके खत्म होने से राजानीतिक दलों के बीच मुकाबले में गैरबराबरी थोड़ी तो कम होगी। मुख्य न्यायाधीश बी.वी.चन्द्रचूड़ ने कहा है कि इस याचिका पर दो अलग-अलग फैसले जरूर लिखे गए हैं, लेकिन दोनों फैसले सर्वसम्मत हैं, सभी जज इस बात पर एक हैं। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कहा कि हमने से दो जजों ने, मैंने और जस्टिस संजीव खन्ना ने फैसले अलग-अलग लिखे हैं, हमारे तर्कों में थोड़ा फर्क है, लेकिन दोनों फैसले एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। अदालत ने इस फैसले में यह भी कहा है कि चुनावी बांड के रास्ते दान देने वाले लोगों का खुलासा होना चाहिए क्योंकि कंपनियां इनके एवज में कुछ पाने के मकसद से ही ऐसा दान या चंदा देती हैं। अदालत ने कहा कि कालेधन पर रोक लगाने के उद्देश्य से सूचना के अधिकार को कुचलना ठीक नहीं है, चुनावी बांड आरटीआई के साथ-साथ अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन है। 

हम अपने विचारों के इस कॉलम में फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तर्क और उसकी भावना को लिखना पर्याप्त समझ रहे हैं, क्योंकि हम मोटेतौर पर उससे सहमत हैं। और जिन विचारों से सहमत हैं, उन पर दुहराव वाली कोई टिप्पणी करना नहीं चाहते। फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि नीजता के मौलिक अधिकार में एक नागरिक की राजनीतिक गोपनीयता, और राजनीतिक संबद्धता का अधिकार शामिल है। इस योजना से किसी नागरिक की राजनीतिक संबद्धता पता लगाकर उसे परेशान किया जा सकता है, और उसके वैचारिक झुकाव को मालूम किया जा सकता है। 

देश में बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों और कानून के जानकारों का लंबे समय से यह मानना था कि चुनावी बांड की यह योजना फर्जी कंपनियों के रास्ते कालाधन लाने और पाने का एक जरिया थी, और उसका सबसे बड़ा फायदा सत्तारूढ़ पार्टी को मिल रहा था। 13 अप्रैल तक चुनाव आयोग को जानकारी वेबसाइट पर डालने का निर्देश बड़ा अटपटा लग रहा है। यह जानकारी तो स्टेट बैंक या चुनाव आयोग के कम्प्यूटरों पर हैं, और इसे जुटाने में यह वेबसाइट पर डालने में इतना समय लगने की कोई बात नहीं है। दूसरी तरफ पिछले आम चुनाव के मतदान 11 अप्रैल से 19 मई के बीच हुए थे। अब तकरीबन इन्हीं तारीखों पर चुनाव होते हैं, तो चुनाव प्रक्रिया के बीच ऐसी संवेदनशील जानकारी ठीक नहीं है। बेहतर तो यह होता कि चुनाव आयोग अगले एक-दो हफ्ते में ही इस जानकारी को उजागर करवा देता, ताकि मतदाताओं को जो देखना रहे वो उसे देख लेते। मतदान के बीच यह ठीक नहीं होगा। फिलहाल पांच जजों की संविधानपीठ के इस फैसले के खिलाफ सरकार की तरफ से आसानी से कोई पुनर्विचार याचिका भी नहीं लगाई जा सकेगी, क्योंकि उसे मंजूर करने का मतलब इसी मुद्दे पर सात या उससे अधिक जजों की बेंच बनानी पड़ेगी, जो कि इस सर्वसम्मत फैसले के बाद मुमकिन नहीं दिख रही है। लोगों को याद होगा कि खोजी पत्रकारों की एक संस्था, द रिपोटर््र्स कलेक्टिव ने 2019 में ही यह रिपोर्ट सामने रखी थी कि चुनावी बांड के नाम पर ऐसा गोपनीय फंड बनाकर मोदी सरकार ने आरबीआई  की चेतावनी को खारिज कर दिया था, और इस बांड योजना के बहुत से पहलुओं पर सरकार ने संसद से तथ्य छुपाए थे, और दबाव डालकर अपनी मर्जी के कई काम करवाए थे। अब देखना यह है कि इस फैसले के बाद लोकसभा मतदान के पहले दानदाताओं और उनकी पसंदीदा पार्टियों के नाम चुनाव प्रभावित करेंगे, या सरकार, चुनाव आयोग, और स्टेट बैंक इन्हें उजागर करने में देर का कोई रास्ता सोच पाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने समय सीमा तय करते हुए मतदान की संभावित तारीखों की अनदेखी की है, जो कि ठीक नहीं है। याचिकाकर्ता अदालत से यह अपील भी कर सकते हैं कि कम्प्यूटरों के इस जमाने में तैयार जानकारी वेबसाइट पर डालने के लिए दो महीने का वक्त देना सही नहीं है। देखते हैं आगे क्या होता है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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