विचार / लेख

पुस्तक प्रेमी साथी, घर में लाइब्रेरी
16-Feb-2024 2:39 PM
पुस्तक प्रेमी साथी, घर में लाइब्रेरी

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 दीपाली अग्रवाल

बसंत की अलामत है और सूर्य की गर्मी दिन में तेज है परंतु सर्दी शाम को अपने अब भी होने का एहसास करवाती है। मेट्रो से बाहर निकलकर पुस्तक मेले में जा रही हूं। फोन पॉकेट में रखा है, रास्ता इतना लंबा है कि मुझे वो बीते साल याद आ गया जब इसी तरह अकेले मैं पुस्तक मेले जाया करती थी, फक़ऱ् बस इतना कि तब फोन जेब में नहीं रहता था। कितने ही साल बीते होंगे कि वो मेरा दोस्त मुझे बताता जाता था कि परवीन शाकिर की खुश्बू खोजना या साहिर की तल्खियां, जावेद अख्तर की किताब हो तो मेरे लिए भी लाना, मंटो के दस्तावेज नहीं मिल रहे बंबई में तो तुम मेले से लेना, क्या वहां कृष्णचंदर की कहानियां भी मिलेंगी? अंतरिक्ष विज्ञान की किताबें मिलें तो लेनी ही हैं। उन दिनों कई किताबें खऱीदती थी और महसूस करती कि साहित्य की ड्योढ़ी पर एक कदम और भीतर रखा है। रोज़ मेले जाती और अचरज से भरती कि मैं क्या नया लिखूंगी इन तमाम के बीच। यही सब सोचते हुए ध्यान गया कि सूरज बहुत तेज़ है, जैकेट उतारना पड़ा। फोन निकाला, मिस्ड कॉल थी, दोस्त स्टॉल पर इंतजार कर रहे हैं। दूरी अब भी बहुत है।

याद आया कि कुछ साल पहले तक कोई ऐसा चेहरा दिल्ली में नहीं था जिसके साथ मेले जाती। जो दोस्त थे उन्हें साहित्य उतना रास नहीं था और मुझे इतना भी नहीं मालूम था कि हर प्रकाशक हर किताब नहीं रखता और ना ही उनके काम करने का तरीका ही मालूम था। जैसे किसी छोटे शहर में किताब वालों की दुकानें होती हैं जिन पर कई किताबें मिलती हैं और जो किताब चाहिए वो अगले हफ्ते तक मंगवा देते हैं। कहां से मंगवाते हैं, ये तो कभी सोचा ही नहीं। पुस्तक मेला पहले ऐसे ही बुकस्टोर का मेला लगता था, जहां कहीं भी जाकर कोई भी किताब पूछी-खरीदी जा सकती है। किताब मेले घूमने के शऊर तो देरी से ही आए हैं। अब दोस्त भी हैं, इंतजार करते, साथ घूमते, मिलते, बातें करते।

इतना कुछ सोचते हॉल के भीतर आई तो पहले ही मुशायरे की आवाज सुनाई दी, बहुत देर ठहरी रही। लोग वाह-वाह कर रहे थे। फिर दोस्तों के पास पहुंची लेकिन मेले अकेले ही घूमना तय किया। शुरू की स्टॉल से आखिरी तक। शुरू में वही जहां दो सौ रूपये की हर किताब मिलती है लेकिन जो चाहिए वही नहीं मिलती। पास ही एक स्टोर पर बहुत हैवी जिल्द की किताबें थीं- रसोई से संबंधित लेकिन अंग्रेजी में, लेकिन इसलिए कि खाना बनाने का मजा जो हिंदी में है वो अंग्रेज़ी में नहीं है। जब तक छौंक, तडक़ा, हींग, लाल होने तक भूने जैसा कुछ न पता चले तो खाने का मज़ा ही नहीं आएगा। आगे हार्पर कॉलिंस है - लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग अपनी पोती के साथ काउंटर पर खड़े हैं। एक लेखक मिले जिन्हें एक-दो पॉडकास्ट में मैंने देखा है, लोग उन्हें घेरे हुए हैं। वे इतना धीरे बोल रहे हैं कि कुछ समझ नहीं आ रहा। लेकिन इस भीड़ में तो जाने का मन नहीं है।

लोग हर साल कहते हैं कि अंग्रेजी किताबें पढऩे वालों की संख्या हिंदी वालों से बहुत अधिक है। पता नहीं कितना सच है, किताबों की बिक्री ही शायद इस बात की तस्दीक करे। पेंग्विन में किताबें देखते हुए फिर मंजुल पहुंची, यहां हिंदी की भी किताबें हैं। सेल्फ-हेल्प बुक्स जो सबसे ज़्यादा बिकती हैं, लोग इन्हीं किताबों में अपने अमीर होने के तरीके, एंग्जाइटी और डिप्रेशन के इलाज खोजते हैं, आदतों को बदलने के गुर जानते हैं।

दिल्ली में सडक़ के पास बैठने वाले किताब वाले सबसे ज़्यादा यही किताबें अपने पास रखते हैं। यहां रूमी की किताब भी है, उनकी कविताओं की किताब, एक सुंदर कवर के साथ जैसा उनकी कविताओं का रंग है ठीक वैसी ही। ऐसी ही सुंदर कवर वाली किताबें हैं इकतारा के पास। मैं अब हॉल दो में हूं, इतनी देर अंग्रेजी की किताब देखने के बाद जब हिंदी की ओर लौटी तो लगा कि अपने शहर लौट आई हूं। दैहिक रूप से भाषा में लौटना क्या होता है, इसका पता चला।

यहीं मेरे सामने कंधे पर हाथ रखे कपल जा रहे हैं, पुस्तक प्रेमी साथी मिलना घर में लाइब्रेरी बनाने जैसा है। अब एक छोटी बच्ची मेरे सामने बैठी है, मैंने उसे कुछ कविताएं सुनाने को कहा, उसने स्कूल में याद की कुछ पोएम्स सुनाईं। रात के आठ बजे हैं और मेले से निकलने का समय है। मंडी हाउस में दोस्तों का मिलना तय हुआ है। मेरे हाथ में कुछ किताबें हैं। बाहर फिर से सर्दी है, जैकेट पहनकर फोन उसकी जेब में रखा। हॉल से गेट की दूरी बहुत है।

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