संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीबों की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ातीं सरकारें...
17-Feb-2024 6:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : गरीबों की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ातीं सरकारें...

फोटो : सोशल मीडिया

महाराष्ट्र में निजी स्कूलों को सरकार से शिक्षा के अधिकार योजना के तहत दाखिल गरीब बच्चों की फीस के करीब ढाई हजार करोड़ रूपए लेने हैं। ऐसा बकाया आगे और न बढ़े इसका राज्य सरकार ने एक रास्ता निकाल लिया है, अब सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के एक किलोमीटर के दायरे में आने वाली निजी स्कूलों को ऐसे दाखिले नहीं देने पड़ेंगे। गरीब बच्चों के ऐसे दाखिले की फीस सरकार देश भर में देते आई है, और महाराष्ट्र ने अब इससे बचने का रास्ता निकाल लिया है। एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक इससे अब निजी और अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढऩे के गरीब बच्चों के मौके खत्म हो जाएंगे, और सरकार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से बच जाएगी। अभी तक के नियमों के मुताबिक देश भर में अल्पसंख्यकों के स्कूलों और धार्मिक शिक्षा देने वाले स्कूलों के अलावा बाकी सभी को पहली कक्षा से दाखिले पर 25 फीसदी सीटें कमजोर बच्चों के लिए रखनी पड़ती थीं, अब नए नियमों से ऐसी स्कूलें बहुत कम रह जाएंगीं। खासकर शहरों में तो निजी स्कूलों के एक किलोमीटर के दायरे में कोई न कोई सरकारी या सहायता प्राप्त स्कूल तो रहती ही है, इसलिए ऐसी जगहों पर बच्चों का निजी स्कूल में पढऩे का सपना अब खत्म सरीखा रहेगा। 

जब सांसद और विधायक, और स्थानीय संस्थाओं के जनप्रतिनिधि संपन्न तबकों से आने लगते हैं, तो फिर विपन्न तबकों की जरूरतों की समझ उनमें खत्म हो जाती है। ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का है जहां बहुत सी कॉलोनियों में कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित जमीनें खाली पड़ी हैं क्योंकि सरकार ने इन पर गरीबों के लिए मकान नहीं बनाए हैं, और अब अफसर यह तय कर रहे हैं कि इन खाली जमीनों को कब्जे से बचाने के लिए खेल मैदान बना दिया जाए। एक नियम के तहत इस राज्य में बिल्डर्स और कॉलोनाइजर्स को कॉलोनी की 15 फीसदी जमीन गरीबों के मकान के लिए म्युनिसिपल को देनी पड़ती है, लेकिन गरीब किसी की प्राथमिकता नहीं रहते इसलिए ऐसी जमीनों पर मकान बनाए नहीं गए। इस योजना के पीछे यह तर्क था कि कॉलोनियों में रहने वाले अपेक्षाकृत संपन्न परिवारों में घरेलू कामकाज के लिए जिस तबके के लोगों की जरूरत पड़ती है, उनके लिए जमीनें उसी कॉलोनी के किसी हिस्से में छोड़ दी जाए। ऐसी 15 फीसदी जमीन कॉलोनियां सबसे उपेक्षित और खराब हिस्से में छोड़ते आई है लेकिन म्युनिसिपल और बाकी सरकारी विभाग हैं कि उस पर भी मकान नहीं बनाए गए, जबकि केन्द्र और राज्य सरकार की कई आवास योजनाओं की चर्चा होते रहती है। अब अगर वहां मैदान बना दिया जाता है, और खेलना शुरू हो जाता है, तो इसके बाद वहां जब कभी, और अगर, गरीबों के लिए मकान बनाना शुरू होगा, तो उसका विरोध होने लगेगा। 

गरीबों के हक खत्म करते हुए सरकारों को कुछ भी नहीं लगता। अगर किसी इलाके में किसी बड़े नेता का आना तय है, तो उसके आने के रास्ते पर से सभी किस्म के खोमचे-ठेलेवालों, और फुटपाथ पर बैठकर काम करने वालों को एक-दो दिन हटा दिया जाता है। ये सारे लोग रोज कमाने-खाने वाले रहते हैं, इनका एक दिन का नुकसान अगले दिन पूरा नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि सरकार को अगर सुरक्षा की वजह से किसी का रोजगार बंद करना है, तो उसे उसकी भरपाई देनी चाहिए। लेकिन असंगठित गरीबों की बात उठाने वाले नेता अब सफेद शेर सरीखे दुर्लभ हो गए हैं, और अफसरों में तो गरीबों के प्रति संवेदनशीलता रहती नहीं है। ऐसे में अखबारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे गरीबों के मुद्दों को उठाएं, लेकिन वे बिल्डरों और कॉलोनाइजरों के इश्तहारों के अहसानतले इतने दबे रहते हैं कि गरीबों का हक कुचला जाए, तो वे चीयर लीडर्स की तरह खुशी से नाचने लगते हैं। अखबारों से परे के मीडिया को लेकर सामाजिक सरोकार की किसी तरह की उम्मीद हमारी रहती नहीं है। यह एक बहुत ही विचित्र नौबत रहती है जब अखबारों से उम्मीद सरोकार की की जाती है, लेकिन उनका अपना अस्तित्व कारोबारी इश्तहारों पर टिका रहता है। ऐसे में सरोकार की बात करना उनके लिए आत्मघाती हो सकता है, और भला आज के कारोबार के वक्त में कौन अपने पांव पर कुल्हाड़ी और पेट पर लात मारना चाहेंगे? 

अभी तक तकरीबन मुफ्त में हासिल सोशल मीडिया पर इन मुद्दों को तल्खी के साथ उठाना चाहिए, लेकिन वहां भी बहुत से लोगों का ऐसा कहना है कि उनकी सरकार या कारोबार विरोधी बातें उनके दोस्तों को भी नहीं दिखतीं। हो सकता है कि दुनिया का एक सबसे बड़ा कारोबार बन चुके फेसबुक और इंस्टाग्राम के मालिक यह तय कर चुके हों कि गरीबों की दुखभरी बातों को दिखाकर भला कब तक लोगों को वहां बांधा रखा जा सकेगा, इसलिए चकाचौंध की दूसरी बातों को अधिक दिखाने का हुक्म उनके कम्प्यूटरों को मिला हुआ होगा, और इस तरह गरीबों के सरोकार वहां भी पीछे धकेले जाते होंगे। फिर भी हम कम से कम इस मोर्चे पर बहुत निराश नहीं हैं क्योंकि लोगों को अपनी न्यायसंगत और तर्कसंगत बातों को लिखकर या बोलकर अधिक से अधिक लोगों तक भेजना चाहिए, अधिक से अधिक जगहों पर पोस्ट करना चाहिए, और अब तक इस पर न सीधी रोक है, न इसे सौ फीसदी रोका जा रहा है। 

पहले कुछ सामाजिक संगठन ऐसे रहते थे जो गरीबों के अलग-अलग तबकों के हक को लेकर लड़ते थे। धीरे-धीरे सामाजिक आंदोलन खत्म हो रहे हैं, और उनकी जगह धार्मिक आंदोलन ले चुके हैं। अब जनसंगठनों के रास्ते भी ऐसे मुद्दे उठना मुमकिन नहीं दिखता है। और गरीब तबकों के बीच के सोशल मीडिया के जानकार लोगों को अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ेगी, और कुछ मुद्दों पर तो जनहित याचिकाएं लेकर बड़ी अदालत तक जाने का काम भी वंचित समुदायों से आए हुए कुछ नौजवान वकील कर सकते हैं। दुनिया के कई विकसित देशों में बड़े-बड़े वकील भी गरीबों के मामले, या जनहित के मामले मुफ्त में लड़ते हैं, यहां भी कुछ संवेदनशील वकीलों को अपना कुछ वक्त जनहित के मुद्दों के लिए देना चाहिए, और हो सकता है कि अदालतों के रास्ते मिले हुक्म सरकारों को मानने पड़ें। फिलहाल तो हर शहर में अपने गरीबों के मुद्दों को उठाने वाले लोगों को कुछ कल्पनाशीलता से काम लेना चाहिए, और सोशल मीडिया, अखबार, और समाजसेवी वकीलों तक अपनी बात लेकर जाना चाहिए।    (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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