संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पाक चुनावों की धांधली इस हद तक है नापाक..
19-Feb-2024 3:22 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  पाक चुनावों की धांधली इस हद तक है नापाक..

फोटो : सोशल मीडिया

पाकिस्तान के चुनावों में यह बात खुलकर जाहिर हो चुकी है कि वहां फौज की दखल से चुनावी नतीजे बदल दिए गए हैं, और जिस जगह फौज जिस उम्मीदवार या पार्टी को जितने वोटों से जिताना चाहती थी, उसी हिसाब से नतीजे बदल-बदलकर घोषित किए गए हैं। अभी दो-चार दिन पहले करांची से विधायक घोषित किए गए एक नेता, हाफिज नईम उर रहमान ने तुरंत ही इस्तीफा दे दिया, और कहा कि उनकी सीट पर जीत इमरान की पार्टी के उम्मीदवार की हुई थी, लेकिन चुनाव अफसर ने नतीजे बदलकर उन्हें जीता हुआ घोषित कर दिया। उन्होंने ऐसी जीत मंजूर करने से मना कर दिया और यह उजागर भी कर दिया कि यह फौज के तय किए गए नतीजे हैं। अब रावलपिंडी के कमिश्नर ने चुनाव में धांधली के आरोप लगाए हैं, और कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और मुख्य न्यायाधीश भी इस धांधली में शामिल हैं। उन्होंने मीडिया के सामने खुलकर कहा कि वे चैन से गुजरना चाहते हैं, और इस तरह की जिंदगी जीना नहीं चाहते जो उनके साथ हो रहा है। उन्होंने कहा कि उनके डिविजन के 13 उम्मीदवार 70-70 हजार वोट पाकर जीते थे, उन्हें हारा हुआ घोषित किया गया। उन्होंने कहा कि उन्हें यह सब बर्दाश्त नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने ओहदे, नौकरी, और हर चीज से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने जो किया है वह इतना बड़ा जुर्म है कि उन्हें उसकी कड़ी सजा मिलनी चाहिए, और वे खुद को पुलिस के हवाले कर देंगे। यह पूरी नौबत देखते हुए जेल में बंद इमरान खान की पार्टी ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त से इस्तीफे की मांग की है, और देश भर में प्रदर्शन शुरू किया है। 

पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में फौज की दखल से, अदालतों की मेहरबानी से, और चुनाव आयोग के साजिश में मिल जाने से सारे चुनाव धांधली के शिकार हुए हैं, और फौज की पसंद की दो पार्टियों से परे बाकी तमाम लोगों ने इस धांधली के खिलाफ बयान दिए हैं, या प्रदर्शन कर रहे हैं। यह पूरा सिलसिला पाकिस्तान को एक बुरी तरह नाकामयाब जम्हूरियत साबित कर रहा है। यह देश 1947 के बाद से कई बार फौजी तानाशाही झेल चुका है, एक प्रधानमंत्री को फौजी हुकूमत फांसी पर भी चढ़ा चुकी है, और देश में होने वाली तमाम राजनीतिक साजिशों के पीछे फौज खुलकर सामने रहती है। इस तरह निर्वाचित और लोकतांत्रिक ताकतों का आना और जाना फौज तय करती है, पाकिस्तान के पांच बरस पहले के प्रधानमंत्री इमरान खान फौज की मदद से सत्ता पर आए थे, और फौज से मतभेद हो जाने पर उन्हें संसद में अविश्वास प्रस्ताव से हटा दिया गया, उनके खिलाफ दर्जन भर जुर्म दर्ज कर लिए गए, दो मामलों में उन्हें लंबी कैद भी सुना दी गई, और उनकी पार्टी की मान्यता खत्म कर दी गई, चुनाव चिन्ह जब्त कर लिया गया। लेकिन जनता इस पूरे सिलसिले को इतनी अच्छी तरह समझती है कि अभी जब चुनाव हुए तो नेता जेल में, चुनाव चिन्ह गायब, फिर भी पार्टी के उम्मीदवारों ने निर्दलीय लडक़र इतनी सीटों पर जीत हासिल की कि फौज की आंखें फटी की फटी रह गईं, और जनता ने यह साबित कर दिया कि उसने जितने उत्साह से निकलकर वोट डाला था, उससे फौजी मनमानी और दखल के खिलाफ जनता की नाराजगी साबित हो गई। अब वहां एक माहौल यह बन रहा है कि फौज अपनी औकात समझकर या तो फौजी हुकूमत शुरू कर दे, या फिर अपनी बैरकों में लौटकर लोकतंत्र को खड़ा होने का एक मौका दे। 

पाकिस्तान की हालत चीन और अमरीका के बीच फंसे हुए भारत के एक ऐसे पड़ोसी की है जिसका दीवाला निकल चुका है, लेकिन जिसकी फौजी अहमियत की वजह से दुनिया की महाशक्तियां उसे अनदेखा नहीं कर रही हैं। चीन और अमरीका इन दोनों की फौजी दिलचस्पी उसमें है, और इन दोनों देशों को अपने-अपने भले के लिए पाकिस्तान के घरेलू मामलों में भी दखल देना सूझता है कि वहां के मामलात में फौजी दखल इन महाशक्तियों के शिकंजे को किस तरह प्रभावित करेगी। अमरीका जैसे देश के सामने एक फिक्र यह भी रहती है कि जिस अफगानिस्तान को वह बीस बरस के बाद छोडक़र निकला है, वह पाकिस्तान से लगा हुआ ही है, और तालिबान से निपटने के लिए, उन्हें काबू में रखने के लिए पाकिस्तान से कुछ रिश्ते तो रखना मजबूरी भी है। इस तरह की कई अंतरराष्ट्रीय मजबूरियां चीन-अमरीका, या भारत जैसे देशों के सामने है, और ये तमाम देश यह भी देखते हैं कि पाकिस्तान में फौज का दखल बेहतर रहेगा, या उनके देश के लिए पाकिस्तानी फौज बैरकों में बेहतर रहेगी? 

कुल मिलाकर पाकिस्तान की जनता ने इस चुनाव में नवाज शरीफ और बिलावल भुट्टो की पार्टियों को जिस हद तक खारिज किया, और इमरान के बिना निशान के निर्दलीय लड़ रहे उम्मीदवारों को जिस तरह जिताया, उससे जनता ने फौज के खिलाफ अपनी ताकत दिखा दी है। अभी ऐसा लगता है कि फौजी हेडक्वार्टर में बैठकर पाकिस्तान की अगली सरकार तय की जा रही है, और वहां ऐसी चर्चाएं हैं कि फौज चेतावनी दे रही है कि या तो उसके कहे मुताबिक दो बड़ी पार्टियां मिलकर सरकार चलाएं, या फिर फौज खुद ही सत्ता संभाल ले। कुछ लोगों को पाकिस्तान की यह बदहाली अच्छी लग सकती है, लेकिन एक अस्थिर लोकतंत्र, या असफल लोकतंत्र के पड़ोसी भी कभी चैन की नींद नहीं सो सकते। सबको यह याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान बुरी तरह से फौज, धर्मान्ध कट्टरपंथियों, और आतंकियों के कब्जे का देश है, और इसके पास परमाणु हथियार भी है। इस तरह की कमजोर व्यवस्था इतने मजबूत हथियार का कभी गैरजिम्मेदारी से इस्तेमाल करके एक परमाणु जंग भी छेड़ सकती है। जहां लोकतांत्रिक ताकतें फौज की कठपुतली बनकर ही जिंदा रह पा रही हैं, वैसे देश में परमाणु हथियारों को लेकर भी कोई गैरजिम्मेदारी सामने आ सकती है। इसलिए पाकिस्तान के घरेलू बदहाल पर अड़ोस-पड़ोस किसी को भी अधिक खुश नहीं होना चाहिए। अभी यह देश अंतरराष्ट्रीय कर्ज में जिस बुरी तरह डूबा हुआ है, उसमें भी राजनीतिक सरकार की विश्वसनीयता नहीं बन पाएगी, और अंतरराष्ट्रीय साहूकार-संगठन पता नहीं पाकिस्तान में किसी सरकार की संभावना खड़ी कर पाएंगे या नहीं।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news